सुषमा स्वराज की ट्रोलिंग क्या पेशेवर राजनीतिक ट्रोलिंग का नतीजा है?- प्रत्युष प्रशांत

अभी तक ट्रोलर्स की बदज़ुबानी के घाव पर मरहम वही लोग लगा रहे थे, जो मौजूदा दौर से सरकारी नीतियों या कुंठित समाज की सोच के विरुद्ध मुखर थे, पर अब धीरे-धीरे मौजूदा सरकार के वरिष्ठ अमलेदार भी इसकी जद में है।

हालिया मामला विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की ट्रोलिंग को लेकर है, जिसके बारे में वह एक नहीं कई ट्वीट कर चुकी हैं। सोशल मीडिया पर अभद्रता और असंवेदशीलता का सामना करते हुए पहले उन्होंने ट्विटर पर एक सर्वेक्षण शुरू किया और लोगों से पूछा कि क्या वे इस तरह की ट्रोलिंग को स्वीकृति देते हैं।
इस सर्वेक्षण में कुल 124,305 लोगों ने हिस्सा लिया और 57 प्रतिशत लोगों ने सुषमा स्वराज का समर्थन किया और 43 प्रतिशत लोगों ने ट्रोलर्स का समर्थन किया। अंत में सुषमा स्वराज को लिखना पड़ा,
लोकतंत्र में मतभिन्नता स्वभाविक है आलोचना अवश्य करो, लेकिन अभद्र भाषा में नहीं। सभ्य भाषा में की गई आलोचना ज़्यादा असरदार होती है।
आज सोशल मीडिया की साइबर खिड़की पर, चंद समझदार और अधिक कमअक्ल लोगों के साथ-साथ एक पूरा का पूरा सुनियोजित संगठित तंत्र का जमावड़ा अदृश्य रूप में मौजूद है, जो किसी के भी पहनने- ओढ़ने, किसी विचारधारा के मातहत बात कहने या खाने-पीने से उठने-बैठने जैसी समान्य गतिविधियों पर संस्कृति, संस्कार और देशप्रेम की डिक्शनरी खोलकर गाली-गलौच के साथ प्रमाण-पत्र बांटने लग जाते हैं। मुख्यधारा मीडिया और अखबारों में कमोबेश रोज़ ही किसी ना किसी के ट्रोल्स के बारे में पढ़ने-सुनने को मिल ही जाता है।
ट्रोलर्स हमारे समाज में परंपरागत विचारों से चिपके हुए हैं और पुराने ज़माने से ही जोंक की तरह दूसरों का खून पीकर जीवित होते रहे हैं। आज जब हमारी दुनिया इंटरनेट से गहराई से जुड़ी है तब भी इन लोगों ने चारपाई के खटमल की तरह आभासी दुनिया में जगह बनाई हुई है। किसी ने कोई फोटो या अपने विचार साझा किए नहीं कि ये लोग तुरंत गंदे शब्दों की बारिश करने पहुंच जाते हैं और टपक पड़ते हैं खून चूसने या जलाने। चंद समझदार, अधिक कमअक्ल और सुनियोजित संगठित तंत्र इसलिए क्योंकि सारे के सारे एक ही सूप के बैंगन नहीं है, किसी भी विषय पर होने वाली ट्रोलिंग मौजूद सामाजिक यथास्थिति के रिएक्शन से अलग नहीं है।
चंद समझदार, वो जमात है जो अपने तयशुदा संदर्भों के साथ आपकी राय से सहमति-असमति रखते हैं और लोकतांत्रिक विमर्श की प्रक्रिया का अपना दखल बनाए रखना चाहते हैं, इनके विचार आपसे विलग या आपके समान भी हो सकते हैं पर यह ट्रोलर्स नहीं होते हैं, सहमति-असमति से संवाद की प्रक्रिया को अपने तर्कों से जारी रखते हैं।
कमअक्ल, वो जो सोशल स्पेश पर तो हैं, मगर सोशल स्पेश पर चल रहे वाद-विवाद से दूर-दूर तक कोई सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक समझ नहीं है। मगर अपनी बेसिर-पैर के तर्कों से अपने होने का एहसास ज़रूर कराते हैं।
ये भी किसी ट्रोलर्स का हिस्सा नहीं है पर साइबर स्पेस पर अपनी गतिविधियों के कारण ट्रोलर्स की जमात में शामिल हो जाते हैं और सुनियोजित संगठित ट्रोलर्स का हिस्सा अनजाने में बनते हैं। ज़ाहिर है, यह सुनियोजित संगठित ट्रोलर्स की राजनीति का हिस्सा है क्योंकि इस तरह से वो सामाजिक एकता को विखंडित करने में कामयाब हो जाते हैं।
सुनियोजित संगठित तंत्र, वो किसी ना किसी विचारधारा के साथ जुड़कर सेलिब्रिटी को फॉलो करते हैं और उनकी लाइफ स्टाइल या शेयर किये गये सोशल स्टेट्स को कभी-कभी तो एडिट करके या लफंदरों की तरह ट्रोलिंग करके मुफ्त में सलाह बांटते हैं।
ये सस्ती सोच के मालिक अमूमन एक ही धारा में एक-दूसरे को देखकर ट्वीट या फेसबुक पर कमेंट्स करते जाते हैं। ये कॉपी कैट भी हैं जब भी कोई उनकी पसंद और गैर-पसंद के जाने पहचाने चेहरे कोई भी फोटो साझा करते हैं या पोस्ट लिखते हैं तब पहले से तैयार बैठे ट्रॉल्स सही गलत का रुख तय कर देते हैं।
ज़ाहिर है ट्रोलर्स हमारे ही समाज का हिस्सा हैं, जो अलग-अलग रूप में ऑनलाइन गुंडागर्दी में शामिल हो रहे हैं, जिसको कहीं ना कहीं से किसी राजनीतिक शक्तियों से संरक्षण मिलता है। इसलिए वह अपनी गतिविधियों को बौखोफ अंजाम भी देते हैं।
दरअसल, अपने विरोधियों पर हमला करवाने के लिए ट्रोलर्स को पालने-पोसने का काम कमोबेश हर राजनीतिक पार्टियां कर रही हैं, इसमें कुछ कम तेज़ाबी है तो कुछ ज़्यादा। ट्रोलर्स का साम्राज्य सोशल मीडिया पर अपनी ही जानकारी सबसे सही फॉर्मूले पर इनकी समझदारी या विचारधारा से उलट होने पर उनपर टूट पड़ते हैं।
धीरे-धीरे यह तथ्य भी सामने आ रहा है कि ट्रोल्स के ज़रिये विरोध की आवाज़ को दबाया जा रहा है। ऐसा केवल हमारे देश में ही नहीं विश्व के कई देशों में हो रहा है। मानवाधिकार संस्था फ्रीडम हाउस ने अपने अध्ययन में बताया है “कई देश की सरकारें सोशल मीडिया को अपने हित के लिए इस्तेमाल करने का काम कर रही हैं। वे अंसतोष और विरोध के स्वरों का दबा रही हैं, जो किसी भी लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है।”
चूंकि ट्रोलर्स का निशाना बनने के लिए कोई विशेष पैरामीटर नहीं है। जिस किसी की भी इन्हें कोई बात पसंद न आए, वो ट्रोलर्स का निशाना बन जाते हैं। इसलिए धीरे-धीरे ये अधिक खतरनाक होते जा रहे हैं।
ट्रोलर्स से निपटने के लिए “अनफॉलो ट्रोल्स चुनौती”, #NoPlace4Hate जैसे अभियान चल रहे हैं। यह कितने मुफीद होंगे इसके बारे में कुछ कहना मुश्किल है, क्योंकि इनसे निपटने के लिए कानूनी विकल्प हमारे देश में अधिक प्रभावी नहीं है। लोगों की शिकायतें ज़रूर इस संदर्भ में आ रही हैं पर चौकस कानूनी विकल्प हमारे देश में अधिक प्रभावी और राजनीतिक संरक्षण ढांक के तीन पात के बराबर है।
बहरहाल, हम सुनियोजित संगठित ट्रोलर्स तंत्र से मुक्ति भले नहीं पा सके। ट्रोलर्स से संवाद कायम रखकर कुछ निजात तो पा सकते हैं, क्योंकि कभी-कभी खामोशी ही ट्रोल को बढ़ावा देती है। कुछ दिनों पहले “हिजाब” पर खुद मैंने एक लेख लिखा और अनजान लोग मुझपर टूट पड़े जिनको हिजाब, बुर्के और नाक तक घूंघट का पूरा समाजशास्त्र या अंतर तक नहीं मालूम था, पर बात करने पर उन्होंने समझा कि वो गलत तर्क कर रहे थे।
कानूनी विकल्प के साथ-साथ इन छोटी-छोटी कोशिशों पर काम करना अधिक ज़रूरी है, क्योंकि अंतत: कुछ ट्रोलर्स के भस्मासुर, हमारे समाज का ही हिस्सा हैं जो अपनी कमअक्ली के कारण सोशल मीडिया जैसे अभिव्यक्ति के मज़बूत विकल्प से दूर जाने को विवश कर रहे हैं और हमारी सामाजिकता को भीड़ तंत्र में बदल रहे हैं। अगर समय रहते इस समस्या को लेकर सरकार और समाज सचेत नहीं हुआ तो पक्ष-विपक्ष, सहमति-असहमति की दुधारी तलवार पर ट्रोलर्स पूरे समाज और देश को बायनरी में बांटकर लील लेगा।
(आभार: यूथ की आवाज़, लेख मूल रूप से यूथ की आवाज़ के लिए लिखा गया है)

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