दामोदर धर्मानंद कोसांबी: भारतीय इतिहास की वैज्ञानिक रिसर्च के जनक-डी एन झा

डी डी कोसांबी
महान गणितज्ञ डी डी कोसांबी


भारत के मशहूर गणितज्ञ, इतिहासकार और राजनैतिक विचारक दामोदर धर्मानंद कोसांबी का जन्म 31 जुलाई 1907 को गोवा के कोसबेन में हुआ था. डीडी कोसांबी को उनके दोस्त प्यार से बाबा कह कर बुलाते थे.
उनके पिता धर्मानंद कोसांबी अपने ज़माने के मशहूर बौद्ध विद्वान थे. धर्मानंद कोसांबी ने कई साल तक अमरीका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाया था.

विरासत में मिला सीखने का जुनून

डीडी कोसांबी ने सीखने का जुनून, तेज़ बुद्धि और इंसानियत के प्रति लगाव के गुण अपने पिता से ही विरासत में पाये थे. अपने शुरुआती दिनों की पढ़ाई पुणे में करने के बाद डीडी कोसांबी अपने पिता के साथ अमरीका चले गए. वहां उन्होंने 1925 तक कैम्ब्रिज लैटिन स्कूल में तालीम हासिल की.
इसके बाद 1929 में कोसांबी ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की. इसमें उन्होंने बहुत ऊंची ग्रेड हासिल की थी. हार्वर्ड में पढ़ाई के दौरान ही डीडी कोसांबी ने गणित, इतिहास और ग्रीक, लैटिन, जर्मन और फ्रेंच ज़बानों में दिलचस्पी लेनी शुरू की. और, बाद में इन विषयों में महारत हासिल की थी. हार्वर्ड में पढ़ाई के दौरान ही कोसांबी, जॉर्ज बिर्कहॉफ़ और नोरबर्ट वीनर जैसे मशहूर गणितज्ञों के संपर्क में आए.
1929 में भारत लौटने पर कोसांबी ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में गणित पढ़ाना शुरू किया. जल्द ही गणितज्ञ के तौर पर उनकी धाक जम गई. जिसके बाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने कोसांबी को अपने यहां पढ़ाने का न्यौता दिया. डीडी कोसांबी ने एक साल तक एएमयू में पढ़ाने का काम किया.
1932 में कोसांबी ने गणितज्ञ के तौर पर पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में पढ़ाने का फ़ैसला किया. अमरीका जाने से पहले तक उनके पिता धर्मानंद कोसांबी भी कई साल तक इसी कॉलेज में पाली भाषा पढ़ाते थे.
डीडी कोसांबी ने क़रीब 14 बरस तक पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में पढ़ाया. इस दौरान वो लगातार इल्म की तमाम विधाओं में महारत हासिल करने की कोशिश करते रहे. अपने इन्हीं प्रयासों से डीडी कोसांबी ने ख़ुद को आधुनिक भारत के महान विद्वानों और विचारकों की क़तार में खड़ा कर लिया.
भारत के मशहूर गणितज्ञ, इतिहासकार और राजनैतिक विचारक दामोदर धर्मानंद कोसांबी का जन्म 31 जुलाई 1907 को गोवा के कोसबेन में हुआ था. डीडी कोसांबी को उनके दोस्त प्यार से बाबा कह कर बुलाते थे.
उनके पिता धर्मानंद कोसांबी अपने ज़माने के मशहूर बौद्ध विद्वान थे. धर्मानंद कोसांबी ने कई साल तक अमरीका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाया था.

विरासत में मिला सीखने का जुनून

डीडी कोसांबी ने सीखने का जुनून, तेज़ बुद्धि और इंसानियत के प्रति लगाव के गुण अपने पिता से ही विरासत में पाये थे. अपने शुरुआती दिनों की पढ़ाई पुणे में करने के बाद डीडी कोसांबी अपने पिता के साथ अमरीका चले गए. वहां उन्होंने 1925 तक कैम्ब्रिज लैटिन स्कूल में तालीम हासिल की.
इसके बाद 1929 में कोसांबी ने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की. इसमें उन्होंने बहुत ऊंची ग्रेड हासिल की थी. हार्वर्ड में पढ़ाई के दौरान ही डीडी कोसांबी ने गणित, इतिहास और ग्रीक, लैटिन, जर्मन और फ्रेंच ज़बानों में दिलचस्पी लेनी शुरू की. और, बाद में इन विषयों में महारत हासिल की थी. हार्वर्ड में पढ़ाई के दौरान ही कोसांबी, जॉर्ज बिर्कहॉफ़ और नोरबर्ट वीनर जैसे मशहूर गणितज्ञों के संपर्क में आए.
1929 में भारत लौटने पर कोसांबी ने बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में गणित पढ़ाना शुरू किया. जल्द ही गणितज्ञ के तौर पर उनकी धाक जम गई. जिसके बाद अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने कोसांबी को अपने यहां पढ़ाने का न्यौता दिया. डीडी कोसांबी ने एक साल तक एएमयू में पढ़ाने का काम किया.
1932 में कोसांबी ने गणितज्ञ के तौर पर पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में पढ़ाने का फ़ैसला किया. अमरीका जाने से पहले तक उनके पिता धर्मानंद कोसांबी भी कई साल तक इसी कॉलेज में पाली भाषा पढ़ाते थे.

डीडी कोसांबी ने क़रीब 14 बरस तक पुणे के फर्ग्यूसन कॉलेज में पढ़ाया. इस दौरान वो लगातार इल्म की तमाम विधाओं में महारत हासिल करने की कोशिश करते रहे. अपने इन्हीं प्रयासों से डीडी कोसांबी ने ख़ुद को आधुनिक भारत के महान विद्वानों और विचारकों की क़तार में खड़ा कर लिया.
1946 में डीडी कोसांबी ने मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च में गणित विभाग के प्रमुख बनने का प्रस्ताव मंज़ूर कर लिया. वो इस पद पर 1962 तक रहे. इस रोल में डीडी कोसांबी को दुनिया भर के आला दर्जे के विद्वानों के साथ विचारों का आदान-प्रदान करने का मौक़ा मिला.

दुनिया भर में जमाई धाक

अध्यापन के अपने लंबे करियर का ज़्यादातर हिस्सा डीडी कोसांबी ने गणित पढ़ाने और इसमें महारत हासिल करने में गुज़ारा. गणित के क्षेत्र में डीडी कोसांबी के योगदान की तारीफ़ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर बहुत से विद्वानों जैसे ब्रिटिश वैज्ञानिक जे.डी. बर्नल ने की.
बर्नल ने कोसांबी की वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथ-साथ विश्व शांति के लिए उनके प्रयासों की भी सराहना की. एक लेखक के तौर पर मैं ख़ुद को उस हैसियत में नहीं पाता, जो विज्ञान के क्षेत्र में डीडी कोसांबी के योगदान की अहमियत की समीक्षा करे.

लेकिन एक बात तय है कि डीडी कोसांबी ने तमाम विषयों का पारंपरिक हदों से परे जाकर अध्ययन किया. उन्होंने आनुवांशिकी और सांख्यिकी समेत कई ऐसे विषयों में मूल्यवान और दूरगामी योगदान दिये, जो समाज के लिए बहुत उपयोगी साबित हुए हैं.
डीडी कोसांबी ने भारत में बिना सोचे-विचारे कहीं पर भी बांध बनाने के इकतरफ़ा फ़ैसलों का कड़ा विरोध किया. उन्होंने इसकी जगह सांख्यिकी की बुनियाद पर बांध बनाने की वक़ालत की.
इसी तरह मुंबई में मॉनसून आने से पहले मौसमी बीमारियों जैसे टायफ़ाइड पर उनकी रिसर्च भी बहुत कारगर रही. इसी की वजह से ही हर साल मॉनसून आने से पहले क़रीब 500 लोगों की जान बचाई जा सकी.
उन्होंने उस वक़्त की मुंबई की सरकार को सुझाव दिया था कि नानेघाट से हर मौसम में खुली रहने वाली सीधी सड़क, बिजली के तारों पर चलने वाली रेल से बेहतर होगी.

किताबी रिसर्च में यकीन नहीं

डीडी कोसांबी ऐसे विद्वान थे, जो किताबी रिसर्च में यक़ीन नहीं रखते थे. उनका मक़सद हमेशा यही होता था कि उनकी जानकारी से जनता का भला हो.
इल्म की दुनिया में अपना दायरा बढ़ाने की हर कोशिश के पीछे डीडी कोसांबी का मक़सद यही होता था कि कैसे अपने आस-पास के लोगों की ज़रूरतों का हल निकालें. इसी वजह से वो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मसलों पर बेबाकी से अपनी राय रखते थे.

भारत सरकार ने 2008 में अमरीका के साथ एटमी समझौता करके अपनी संप्रभुता गिरवी रख दी. इससे क़रीब आधी सदी पहले ही डीडी कोसांबी ने परमाणु ऊर्जा में निवेश का विरोध किया था.
कोसांबी का मानना था कि भारत गरीब देश है. ऐसे में उसे केवल आधुनिक दिखने की चाहत में परमाणु बिजली जैसे ऊर्जा के महंगे स्रोत में पैसे नहीं फूंकने चाहिए. वो उस वक़्त भी सूरज की किरणों से बिजली बनाने का विकल्प अपनाने की ज़ोर-शोर से वक़ालत करते थे.
गणित से सामाजिक गुत्थियों तक
डीडी कोसांबी के बारे में अक्सर कहा जाता था कि वो नए प्रयोग करने में बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे.
वो गणित के सिद्धांतों के ज़रिए अक्सर सामाजिक विज्ञान की पहेलियां सुलझाने की कोशिश करते थे.
यही वजह है कि कोसांबी ने सांख्यिकी के सिद्धांतों की मदद से मुहर वाले सिक्कों पर रिसर्च की. कोसांबी ने क़रीब 12 हज़ार सिक्कों को तोलकर (इनमें 7 हज़ार आधुनिक सिक्के भी शामिल थे) भारत में सिक्कों के वैज्ञानिक रिसर्च की बुनियाद रखी.

डीडी कोसांबी ने सिक्कों के विज्ञान को सिक्के जमा करने वालों के चंगुल से आज़ाद कराया. कोसांबी की कोशिशों का ही नतीजा था कि देश ने सिक्कों को पुरातन प्रतीकों के साथ-साथ इन्हें भारत के सामाजिक-आर्थिक इतिहास को समझने का ज़रिया भी माना.
सिक्कों को लेकर इस नए नज़रिए की मदद से ही डीडी कोसांबी ने प्राचीन भारत को लेकर हमारी समझ को बेहतर किया.
कोसांबी ने गुप्त वंश के बाद के दौर के सिक्कों की कमी के आधार पर बताया कि उस दौर में कारोबार धीमा हो गया था. सिक्कों की कमी का मतलब था कि उस दौर में गांव आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़े हो रहे थे.

ग्रंथों को पढ़ने के लिए सीखी संस्कृत भाषा

प्राचीन काल के सिक्कों की पड़ताल के बाद डीडी कोसांबी ने सवाल उठाया कि आख़िर वो सिक्के जारी किसने किए थे? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए जब उन्होंने तमाम स्रोतों जैसे पुराणों, बौद्ध और जैन धर्म के ग्रंथों को खंगाला तो उनमें अलग-अलग जानकारियां मिलीं.
हर ग्रंथ में एक ही राजा का अलग नाम मिला. इसके बाद कोसांबी ने तय किया कि वो ख़ुद ही इन प्राचीन ग्रंथों को उनके असली रूप में पढ़ेंगे. इसके लिए ज़रूरी था कि वो संस्कृत भाषा को सीखें.

हालांकि ख़ुद कोसांबी का कहना था कि उन्हें तो बस कामचलाऊ संस्कृत आती है. संस्कृत की समझ तो उन्हें पिता से विरासत में मिली थी.
लेकिन, अपने पिता के अलावा वी.एस. सुक्थांकर के साथ मिलकर कोसांबी ने संस्कृत के अलावा पाली और प्राकृत भाषाओं में भी महारत हासिल कर ली.
संस्कृत साहित्य पर कोसांबी की पकड़ और पड़ताल की बुनियाद उनकी मार्क्सवादी सामाजिक और राजनैतिक विचारधारा थी.
कोसांबी का मानना था कि विज्ञान की तरह ही साहित्य को उसके युग के हिसाब से समझने की कोशिश होनी चाहिए.
डीडी कोसांबी ने कहा था कि, 'वर्गों में विभाजित समाज के कवि को केवल ऊंचे दर्जे के लोगों की हैसियत और उम्मीदों को ही नहीं व्यक्त करना चाहिए. बल्कि, उसे उस समाज के तमाम दर्जों के खांचे से ऊपर उठ कर अपनी बात कहनी चाहिए. भले ही वो बात को खुलकर कहे या घुमा फिराकर.'
संस्कृत भाषा और साहित्य पर कोसांबी का सबसे आक्रामक बयान संस्कृत के सामाजिक भेदभाव को लेकर था. कोसांबी ने भृतहरि और विद्याकर की रचनाओं के हवाले से संस्कृत में सामाजिक भेदभाव पर सवाल उठाया था.

पुरातत्व विज्ञान के क्षेत्र में अमूल्य योगदान

डीडी कोसांबी ने सिक्कों के वैज्ञानिक अध्ययन पर ज़ोर दिया, तो साहित्य में सामाजिक भेदभाव की पड़ताल की भी बात कही.
इसी तरह वो भारत के इतिहास को नए सिरे से समझने में पुरातत्व विज्ञान की अहमियत को भी समझते थे. इसीलिए उन्होंने पुरातत्व विज्ञान के क्षेत्र में भी अमूल्य योगदान देने का काम किया.
पुणे में डीडी कोसांबी ने एक विशाल प्रागैतिहासिक पत्थर और छोटे-छोटे कई पत्थरों को तलाश कर इकट्ठा किया. अपनी इस खोज की बुनियाद पर कोसांबी ने प्राचीन काल में लोगों की आवाजाही पर नए सिरे से रोशनी डाली.
कोसांबी की मेहनत का ही नतीजा था कि हम मध्य भारत और दक्कन के बीच प्रागैतिहासिक काल के संबंध को जान सके.
कोसांबी ने ज़मीनी रिसर्च से प्राचीन काल के कारोबारी रास्तों का पता लगाया. कुदा में बौद्ध गुफाओं की खोज भी उन्होंने की थी. इसके अलावा कोसांबी ने कई प्राचीन अभिलेखों को अपनी टिप्पणियों के साथ छपवाया. कोसांबी ने ये पुरातात्विक खोजें आज से आधी सदी पहले की थीं. और इसमें कोई चौंकाने वाली बात नहीं है कि आज उनकी बहुत सी खोजें और उनके निष्कर्ष पुराने पड़ चुके हैं. उनमें कमियां बताकर उन्हें खारिज किया जाता है.

तमाम विषयों के साथ ऐतिहासिक भौतिकवाद के मेल से कोसांबी ने भारतीय इतिहास और संस्कृति पर व्यापक रूप से रिसर्च किया था. उनकी इस मेहनत का सबूत हैं वो सैकड़ों लेख, जो 1940 के बाद से छपे थे.
कोसांबी ने बाद में अपनी तमाम रिसर्च को इकट्ठा करके उन्हें तीन किताबों की शक्ल में प्रकाशित कराया. इनके नाम हैं स्टडी ऑफ़ इंडियन हिस्ट्री (1956), मिथ ऐंड रियलिटी (1962) और कल्चर ऐंड सिविलाइज़ेशन ऑफ़ एनशिएंट इंडिया इन हिस्टोरिकल आउटलाइन (1965).
बहुत प्रभावी तरीक़े से लिखी गई इन किताबों में अक्सर हमें तुर्श ज़बान का इस्तेमाल दिखता है. औपनिवेशिक काल में भारतीय इतिहास को धार्मिक नज़रिए से पेश किया गया. बाद में राष्ट्रवादियों ने प्राचीन भारत का और भी महिमामंडन किया. इनके बरक्स कोसांबी ने अपनी किताबों के ज़रिए आधुनिक भारत में इतिहास लेखन की ठहरी हुई और दिखावे वाली परंपरा को जड़ से हिलाने का काम किया.
कोसांबी ने इतिहास के रिसर्च और इसे लिखने में अपनी मार्क्सवादी विचारधारा का खुलकर इस्तेमाल किया था. इस बात को साबित करने के लिए उनका ये बयान ही काफ़ी है: इतिहास का मतलब, उत्पादन के तरीक़ों और इसमें आए बदलाव के बीच के रिश्ते की काल खंड के हिसाब से व्याख्या करना है.
(आभार: बीबीसी हिंदी,ये लेख वरिष्ठ इतिहासकार प्रोफ़ेसर डीएन झा की किताब 'अगेंस्ट द ग्रेन' के अंशों पर आधारित है)

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