हमारे समाज में औरतों की जाति क्या है-स्वाति सिंह

.हमारे समाज में यह माना जाता है कि ‘औरत की कोई जाति नहीं होती है|’ शायद इसलिए जिन वर्गों को ख़ास अवसर मिलने चाहिए, उनकी सूची में वे दलितों, पिछड़ी जातियों और मुसलमानों के साथ औरतों को भी रखा जाता रहा है| यानी सभी जातियों की औरतों को| यह दिलचस्प है कि ऊंची जातियों की स्त्रियों को भौतिक सुख-सुविधाएँ ज्यादा हैं, पर पैर पसारने के लिए उन्हें जो चादर दी गयी है, उसका आकार छोटा है| वहीं दूसरी ओर, नीची जातियों की औरतों को आज़ादी ज्यादा है, पर इस आज़ादी का इस्तेमाल करने के लिए जो भौतिक और सांस्कृतिक संसाधन चाहिए, वे निहायत ही नाकाफी हैं| इस तरह, दोनों में से किसी भी समूह की औरतों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वे दमन का शिकार नहीं है| यह भी नहीं कहा जा सकता कि एक प्रकार का दमन दूसरे प्रकार के दमन से कम बुरा है| नि:संदेह स्त्रीवाद का विकास भी इसी दिशा में हो रहा है|



हमारे समाज में औरत की जाति क्या है? | Feminism In India


हर औरत को अपनी लड़ाई खुद भी लड़नी होती है....
एक स्तर पर सभी औरतें एक हैं और उनके हितों में समानता है, यह विचार क्रांतिकारी है| बस इससे ट्रेड यूनियन की बू आती है| असलियत यह है कि सामूहिक संघर्ष के साथ-साथ हर औरत को अपनी लड़ाई खुद भी लड़नी होती है| अब सवाल उठ सकता है कि अपनी पीड़ा का अंदाज़ा होने के बावजूद कितनी औरतों ने यह व्यक्तिगत संघर्ष किया? शायद और चीज़ों की तरह संघर्ष का भी एक अर्थशास्त्र होता है| जब तक भौतिक हालातों की अनुकूलता नहीं होती, मूल्यों का संघर्ष सभी नहीं कर सकते|

औरत को भुगतना पड़ता है जाति प्रथा का खामियाजा

लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है कि औरत जाति और धर्म से निरपेक्ष होती है| जाति प्रथा की खासियत ही यही है कि हर इंसान की कोई न कोई जाति होती है| किसी जाति में हुए बिना आप हिन्दू हो ही नहीं सकते| इसलिए हिन्दू औरत भी जाति प्रथा का उतना ही शिकार रही है जितना हिन्दू पुरुष| सच तो यह है कि औरत के सामान्य रूप से होने वाले दमन का जाति प्रथा से कोई सीधा संबंध नहीं है| यह ज़रूर है कि जाति प्रथा का निर्माण जिस सामाजिक मनोविज्ञान से होता है, वह औरत का दोस्त हो ही नहीं सकता| जन्म के आधार पर हैसियत तय कर विषमता ही पैदा कर सकता है| इसी मनोविज्ञान से पुरुष को यह ताकत मिलती है कि वह औरत को उप-मानव मानकर चलता रहे| इस स्तर पर ब्राह्मणी भी उतनी ही दमित है जितनी शूद्रा| इन दोनों के बीच व्यक्तिगत विभिन्नताएं होना लाज़मी है|
हाँ, जाति प्रथा का खामियाजा औरत को ज़रूर भुगतना पड़ा है| यहाँ हम यह कह सकते हैं कि स्त्री की भी जाति होती है| यह याद दिलाने के लिए एक व्यापक परिघटना का जिक्र करना काफी होगा| अभी हाल तक ऊंची जातियों के पुरुष नीची, खासकर दलित, जातियों की औरतों के साथ सोना अपना जायज अधिकार मानते थे| प्रेमचंद ने ‘गोदान’ में से ऐसे कई प्रसंगों का वर्णन किया है| युवा ग्वालिन झुनिया, जो गोबर को दिल दे चुकी है, उसे अपने कष्टों के बारे में बताती है : ‘बरसों से दूध लेकर बाज़ार जाती हूँ| एक-से-एक बाबू, महाजन, ठाकुर, वकील, अमले, अफसर अपना रसियापन दिखा कर मुझे फंसा लेना चाहते हैं|’ झुनिया बहादुर थी, इसलिए वह अपने को बचाती रही| लेकिन दूसरी कई औरतें को अपनी जाति का दंड देह-दान के माध्यम से भोगना पड़ता था| देश के कई हिस्सों में यह सामंती व्यवहार अभी भी जारी है| फ़र्क यह है कि पहले यह बात आम मानी जाती थी, अब नीची जातियों के औरत-मर्द इस जुल्म के खिलाफ अक्सर खड़े हो जाते हैं, क्योंकि जागरण के इस समय में हिंसा का सहारा लिए बिना शोषण करना कठिन है| आर्थिक दबाव या प्रलोभन भी हिंसा का ही अन्य रूप है और औरतें का दिल जीतने के बजाय उनका शरीर पाने का आधुनिक नुस्खा है|
जाति प्रथा का निर्माण जिस सामाजिक मनोविज्ञान से होता है, वह औरत का दोस्त हो ही नहीं सकता....

दरारों का ढेर है औरत की जातीय एकता में

वैसे आधुनिक युग से पहले दुनियाभर में जन-गरीबी रही थी, क्योंकि दौलत पैदा करने की चाभी आधुनिक विज्ञान और टेक्नोलॉजी ने ही आविष्कृत की है| ऐसी हालत में गरीबी का भार, भारत में, नीची जातियों को ढ़ोना पड़ा, क्योंकि वे सामाजिक रूप से हीन बना कर रखे गये थे| औरत चूँकि डबल दलित थी, इसलिए उसकी हैसियत समाज में भी और परिवार में भी कमजोर बनी रही| पर आज बहुत-सी औरतें अपनी औरतें अपनी माताओं और दादियों की तुलना में ज्यादा स्वाधीन क्यों हैं? इसका जवाब इस सवाल में है कि पिछड़ी जातियां पिछले दो दशकों में अचानक क्यों ख़ास हो उठी हैं या दलित वाणी इस मात्र में क्यों सुनाई पड़ने लगी है? क्योंकि, इनके एक हिस्से के पास पहली बार धन आया है| जाति के वर्गीय स्वरूप को आत्मसात किये बगैर हो हर जगह ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण देखने की बुरी आदत के शिकार होते जा रहे हैं, उन्हें प्रेम से और विनम्रतापूर्वक यह समझाने की ज़रूरत है कि समतामूलक समाज का मतलब सिर्फ जातिविहीन समाज नहीं होता, वर्गविहीन समाज भी होता है| जरा वर्गीय एकता का सवाल छेड़कर देखिए, महिलाओं की जातीय एकता की दीवार में कितनी दरारें दिखाई देने लगती हैं|
(आभार: feminisminindia.com, लेख मूल रूप से feminisminindia.com के लिए लिखा गया है)

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