अंबेडकर की याद और हादिया-सुभाषनी अली सहगल

अंबेडकर संविधान के माध्यम से जाति, धर्म, लिंग और आर्थिक आधार पर व्याप्त तमाम असमानताओं को खत्म करना चाहते थे। पर, आज पच्चीस वर्षीय एक महिला की शादी में उसके माता-पिता से लेकर एनआईए तक अड़ंगा लगा रही है।
छः दिसंबर को  डां अंबेडकर की पुण्यतिथि का दिन था, उनको लाखों लोग दिल से श्रद्धांजली अर्पित करते है, वही समाज का एक बड़ा हिस्सा उससे चिढ़ता है। इसकी एक ही वजह है-भारत के इतिहास में पहली बार समानता के सिद्धांत को कानूनी रूप उनके द्दारा तैयार किए गए संविधान ने ही दिया था। केवल पुरुषों को नहीं, महिलाओं को भी समानता के लायक समझा गया। धर्म, जाति, लिंग और आर्थिक आधार पर तमाम असमानता को बाबा साहब संविधान के माध्यम से खत्म करना चाहते थे।
जिन लोगों के लिए समाज की बुनियाद असमानता बुनियाद होनी चाहिए, जिनके लिए धर्म भी असमानता पर आधारित होना चाहिए, उनको संविधान कतई नहीं भाता। 1992 में, बाबा साहब के निमार्ण दिवस के दिन, बाबरी मस्जिद के साथ संविधान के एक पाये,, धर्मनिरपेक्षता को दहा दिया गया।
बाबा साहब के संविधान से सिर्फ मस्जिद टूटने से खुश होने वाले नहीं चिढ़ते। हर तरह की समानता के विरोधी चिढ़ते है।  जब ससंद में बाबा साहब ने बालिग महिला को अपनी शादी के बारे में स्वयं फैसला लेने की आजादी देने की बात रखी, तब कोहराम मच गया। कानून बनाना संसद की मजबूरी थी,क्योंकि  संसद पोगापंथी नहीं दिखना चाहते थे।
अंतर्जातीय विवाह करने वाले लड़के-लड़कियों को आज उनके माता-पिता मार डालते है। दूसरे धर्म में विवाह करने वालों को जेल में बंद करवा देते है। ऎसे में युवक-युवतियों को न्यायपालिका का ही रास्ता मिलता है। पर बाबा साहब के निर्वाण दिवस के एक दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय में जो दृश्य देखने को मिला, उससे तो लगता है कि इस राहत पर अब खतरा है। विगत 27 नवंबर को न्यायालय के सामने हादिया को पेश किया गया। तीन साल पहले वह केरल में हैम्योपैथी की पढ़ाई करने के लिए तमिलनाडु गई थी। वहां उसने इस्लाम धर्म अपनाया और एक मुस्लिम से शादी कर ली। उसके पिता इसके खिलाफ उच्च न्यायालय में गए। न्यायालय ने कहा कि हादिया बालिग है और उसे अपने फैसला लेने का पूरा अधिकार था। नई याचिका में उसके पिता को कहा कि हादिया आतंकवादीयों के प्रभाव में आ गई है और विदेश जाने वाली है। इस बार न्यायालय ने उसकी शादी निरस्त कर उसे मां-बाप के पास भेज दिया। हादिया के पति ने सर्वोच्च न्यायालय में न्याय के लिए गुहार लगाई। इस बीच एनआईए ने केरल में हुए अन्य ऎसे विवाहों को नोटिस में  लिया, फिर सर्वोच्च न्यायालय को बताया गया कि इन शादियों से देश को खतरा पहुंच सकता है। कई महीने बाद न्यायालय ने हादिया को बुलाया। घंटो बहस होती रही कि हादिया का पक्ष सुना जाए या नहीं। एनआईए  उसके सुने जाने का विरोध कर रहा था, पर राज्य महिला आयोग के जोर देने पर हादिया को बोलने का मौका मिला। उसने कहा, मैं आजादी चाहती हूं। मैं पढ़ना चाहती हूं और अपने पति के साथ रहना चाहती हूं। अदालत ने उसकी एक बात मानी। उसकी दूसरी बात पर वह दो महीने बाद अपना फैसला देगी।
जो लोग हादिया को कोर्ट के सामने बोलने से मना कर रहे थे, उसका कहना था कि उसने शादी "दबाव" में की है। इस देश में कितनी लाख शादियां मां-बाप और समाज के दबाव में की जाती हैं, इस पर किसको चिंता है? पच्चीस वर्षीय एक महिला को शादी में मां-बाप से लेकर एनआईए तक हस्तक्षेप कर रही है, इसकी किसको चिंता है? संविधान और कानून की धज्जियां उड़ाई जा सकती हैं, उसकी चिंता किसको है।
(आभार: सुभाषनी सहगल अली, अमर उजाला, लेख मूल रूप से अमर उजाला के लिए लिखा गया है।)

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