क्यों सिर्फ ध्यान खींचने वाले ऐलानों से बिहार के उच्चतर शिक्षा क्षेत्र की बदहाली दूर नहीं होगी- चंदन शर्मा

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने हाल ही में ऐलान किया है कि स्नातक करने पर हर लड़की को 25 हजार रुपये मिलेंगे

क्यों सिर्फ ध्यान खींचने वाले ऐलानों से बिहार के उच्चतर शिक्षा क्षेत्र की बदहाली दूर नहीं होगी
ट्विटर/नीतीश कुमार

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का एक ऐलान हाल में सुर्खियों में रहा. इसके मुताबिक स्नातक करने पर हर लड़की को 25 हजार रुपये मिलेंगे उनकी इस घोषणा का स्वागत किया जा रहा है. कहा जा रहा है कि इससे राज्य में उच्चतर शिक्षा के प्रति लोगों का रुझान बढे़गा.
लेकिन कई जानकार इस पर संदेह जताते हैं. वे नीतीश कुमार के ताजा ऐलान को उच्चतर शिक्षा में सुधार के लिए एक सतही कवायद करार देते हैं. इन लोगों का मानना है कि इसके साथ-साथ राज्य सरकार को और भी कई मोर्चों पर ठोस प्रयास करने की जरूरत है. इनकी सूची बुनियादी ढांचे से लेकर शिक्षकों की घोर किल्लत, शिक्षा की खराब गुणवत्ता और पढ़ाई के बाद रोजगार की अच्छी संभावना तक जाती है.
बिहार में उच्च शिक्षा का क्या हाल है, यह बताने के लिए इस साल जनवरी में जारी हुए अखिल भारतीय उच्चतर शिक्षा सर्वेक्षण (एआईएचईएस) के आंकड़े पर्याप्त हैं. इस सर्वेक्षण के अनुसार 2016-17 में सकल नामांकन अनुपात (जीईआर) के मामले में बिहार सभी राज्यों में सबसे नीचे है. सर्वेक्षण में जीईआर का राष्ट्रीय औसत 25.2 पाया गया जबकि बिहार के संदर्भ में इसे केवल 14.4 फीसदी दर्ज किया गया.
देखा जाए तो इस मामले में बिहार का हाल देश के सबसे अग्रणी राज्य तमिलनाडु (47 फीसदी) के एक तिहाई से भी नीचे है. बिहार की दशा इतनी बुरी है कि अनुसूचित जातियों (21 फीसदी) और अनुसूचित जनजातियों (15.4 फीसदी) के विद्यार्थियों का जीईआर (राष्ट्रीय) भी पूरे बिहार से बढ़िया है. जीईआर का निर्धारण इससे होता है कि 18 से 23 साल के सभी युवाओं में से कितने कॉलेज में दाखिल होते हैं.
संस्थानों की मौजूदा संख्या नाकाफी
उच्च शिक्षा की बदहाली बताने वाले और भी आंकड़े हैं. केंद्र सरकार के अनुसार राज्य के मौजूदा 38 में से 25 जिले शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं. अभी राज्य की लगभग 12 करोड़ आबादी में से केवल आठ लाख लोग कॉलेजों में पढ़ रहे हैं जो प्रतिशत के लिहाज से केवल 0.7 फीसदी होता है. हाल यह है कि अभी राज्य सरकार के अधीन केवल 20 विश्वविद्यालय चल रहे हैं. इनमें सामान्य विश्वविद्यालयों की संख्या केवल 12 ही है जिनमें से तीन तो अभी गठन की प्रक्रिया में हैं. वहीं केंद्र सरकार और निजी नियंत्रण में इस समय विश्वविद्यालय स्तर के महज छह और तीन संस्थान ही काम कर रहे हैं.
उधर, कॉलेजों की बात करें तो राज्य में इस समय 350 मुख्य और 250 संबद्ध कॉलेज सक्रिय हैं. हालांकि प्रति लाख आबादी पर मौजूद कॉलेजों की संख्या के लिहाज से राज्य के आंकड़े काफी परेशान करने वाले हैं. बिहार में एक लाख की आबादी पर अभी केवल सात कॉलेज हैं. इस मामले में 60 कॉलेजों के लिहाज से तेलंगाना पूरे देश में पहले नंबर पर है. जाहिर सी बात है कि राज्य में युवाओं की भारी तादाद देखते हुए उच्च शिक्षण संस्थानों की यह संख्या नाकाफी है.
हाल में आई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार में इस समय 50 नए विश्वविद्यालयों के साथ-साथ 400 सामान्य कॉलेज खोलने की जरूरत है. इस रिपोर्ट में लगभग 250 इंजीनियरिंग और 150 मेडिकल कॉलज खोलने की आवश्यकता भी बताई गई है. इसके अलावा दूसरी ‘स्ट्रीम्स’ में भी सैकड़ों कॉलेज खोलने की जरूरत इस रिपोर्ट में बताई गई है. हालांकि आलोचकों की राय में ऐसा हो पाना बहुत मुश्किल है क्योंकि इसके लिए लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का भारी-भरकम निवेश चाहिए होगा. जानकारों के मुताबिक राज्य सरकार को इसके लिए क्रांतिकारी नीतियां भी बनानी होंगी.
शिक्षकों की भारी कमी भी एक कारण
एक अनुमान के अनुसार 2003 के बाद नई भर्ती न होने से राज्य के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में इस समय 13 से 14 ​हजार शिक्षकों की कमी है. हालांकि सरकार ने 2014 में सहायक प्रोफेसर के करीब 3,300 पदों पर भर्तियां निकालीं, लेकिन यह प्रक्रिया अभी तक पूरी नहीं हो सकी है. दूसरी ओर सरकार ने पिछले साल कहा था कि भर्ती की यह प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद 9,000 और पदों के लिए विज्ञापन निकाले जाएंगे. इन नियुक्तियों को तेजी से अंजाम देने के लिए राज्य सरकार ने बिहार राज्य विश्वविद्यालय सेवा आयोग (बीएसयूएससी) नामक संस्था का गठन भी किया है.
हालांकि इन नियुक्तियों को पूरा करने की समय सीमा निर्धारित न करने के चलते कई आलोचक सरकार की मंशा को संदेहास्पद भी मानते हैं. वहीं शि​क्षाविदों के अनुसार उच्च शिक्षण संस्थानों के विस्तार और उनमें शोध की प्रक्रिया को तेज करने के लिए भारी मात्रा में शिक्षकों को भर्ती करना होगा. इनका मानना है कि विश्वविद्यालय न केवल छात्रों को पढ़ाने के लिए होता है बल्कि वहां शोध भी कराए जाते हैं लेकिन पिछले तीन दशकों से राज्य में शोध का काम लगभग ठप है. जानकारों के अनुसार राज्य के विश्वविद्यालयों में योग्य शिक्षकों की सतत आपूर्ति और नए अनुसंधान से राज्य के विकास को गति देने के लिए भी शोध कार्यों को तवज्जो देना जरूरी है. हालांकि राज्य की वर्तमान आ​र्थिक दशा को देखते हुए कई लोग मानते हैं कि यह लक्ष्य अभी दूर की कौड़ी है. उनके अनुसार मौजूदा हालात में सरकार अपने कॉलेजों में कामचलाऊ पढ़ाई का माहौल ही बना ले, वही बड़ी बात होगी.
शिक्षा की खराब गुणवत्ता
शिक्षण संस्थानों और शिक्षकों की कमी के अलावा खराब कार्य-संस्कृति को भी राज्य के उच्च शिक्षण संस्थानों के बुरे हाल का कारण माना जाता है. आलोचकों के अनुसार बिना राजनीति, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की गहरी हो चुकी जड़ों को मिटाए शिक्षा की गुणवत्ता को ठीक करना असंभव है. जानकार मानते हैं कि इसके लिए भी सरकार को भगीरथ प्रयास करने की जरूरत है. उधर राज्य की वित्तीय सेहत कमजोर रहने से पिछले कई सालों से शिक्षकों और कर्मचारियों को तय समय पर वेतन न मिलना आम बात रही है. इससे निपटने के लिए कई शिक्षकों के दूसरे काम-धंधों में लग जाने की खबरें मिलती रहती हैं. सालों से शिक्षण से दूर इन शिक्षकों से काम करवाना बड़ी मुश्किल कवायद होगी.
पुराने कोर्स और सिलेबस
बिहार की एक प्रमुख समस्या यह भी है कि उसके ज्यादातर विश्वविद्यालयों में सालों से कुछेक नए कोर्स ही शामिल किए गए हैं खासकर रोजगारपरक शिक्षा वाले. आलोचकों के अनुसार इसके नाम पर वहां के संस्थानों में जो कोर्स शामिल भी हैं, वे चूके हुए से हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में पेशेवर तैयार करने के लिए सरकार ने हालांकि कई कोर्स जरूर शामिल किए हैं. तब भी विदेशी भाषा जैसे कई कोर्स अभी भी वहां किसी संस्थान में नहीं पढ़ाए जा रहे हैं जबकि बिहार जैसे गरीब राज्य में ऐसे कोर्स हजारों बेरोजगारों का मजबूत सहारा बन सकते हैं. इसके अलावा ज्यादातर विषयों के सिलेबस में सालों से बदलाव न होने और परीक्षा में प्रश्नों के दोहराव के चलते छात्रों में सीखने की प्रक्रिया रटने तक सीमित रह गई है. जानकारों के अनुसार बिना इन जड़ताओं को दूर किए राज्य में उच्च शिक्षा का उद्धार हो पाना मुश्किल है.
समाज की सोच में बदलाव भी जरूरी
बिहार में शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे लोगों का कहना है कि राज्य के ज्यादातर अभिभावक कई वजहों से अपने बच्चों विशेषकर लड़कियों को स्कूल से आगे पढ़ाना नहीं चाहते. इसके बजाय वे अपने बच्चों को कोई सरकारी नौकरी ढूंढ़ने को प्रेरित करते हैं. जानकारों के अनुसार सरकार ने बीते एक दशक में अपने कई उपायों से स्कूली शिक्षा के प्रति इस तरह की सोच दूर करने का सफल प्रयास किया है. लेकिन उच्चतर शिक्षा के लिए उसने अभी तक ऐसे उपाय न के बराबर किए हैं.
आलोचकों के अनुसार नीतीश सरकार ने पिछले 12 सालों में माध्यमिक स्तर की शिक्षा में भले ही कई सफलताएं दर्ज की हैं लेकिन उच्चतर शिक्षा में उसके हिस्से नाकामियां ही नाकामियां रही हैं. इस चलते आलोचक अभी से ही कहने लगे हैं कि 2020 तक सकल नामांकन अनुपात बढ़ाकर 30 फीसदी करने का उसका लक्ष्य पूरा होने की कोई संभावना नहीं है. फिर भी यह देखना होगा कि सरकार तमाम मजबूरियों से निपटते हुए राज्य सरकार कब तक यह लक्ष्य पूरा कर पाती है.
(आभार: satyagrah,  लेख मूल रूप से satyagrah के लिए लिखा गया है)

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