भारत में अभी भी अधूरा क्यों है #MeToo कैंपेन-प्रत्युष प्रशांत



इस बार नोबेल शांति पुरस्कार कांगो के डॉक्टर मुकवेगे और नादिया मुराद को दिया जा रहा है। दोनों का संघर्ष अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में यौन हिंसा के विरुद्ध ही रहा है। ज़ाहिर है #MeeToo अभियान की ठोस शक्ल लेने के बाद विश्वभर में यौन हिंसा चाहे वह निजी हो या सार्वजनिक महिलाओं के विरुद्ध अपराध माना गया है और इसे गंभीरता से लेने की शुरुआत प्रतिष्ठित संस्थानों द्वारा की गई है।
इस कड़ी में यौन हिंसा के विरुद्ध संघर्ष में नादिया मुराद और डेनिस मुकवेगे को नोबेल सम्मान कहीं ना कहीं मील का पत्थर साबित होगी। भारतीय संदर्भ में #MeeToo में कई सवालों को एक साथ शामिल करने की ज़रूरत है, नहीं तो यह एकांगी एकालाप की तरह मिस फिट दिखेगी।
विश्वभर में यौन हिंसा के विरुद्ध संघर्ष में हमारे देश की शुरुआत देर से हुई, जबकि कई जानी-मानी हस्तियों ने अपने बुरे अनुभवों का ज़िक्र #MeeToo में किया मगर कहां, कब और कौन जैसे महत्त्वपूर्ण सवालों का जवाब दिए बगैर?
#MeeToo कैंपेन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके ज़रिए महिलाओं ने अपने आस-पास के परिचित और सहकर्मी को यौन शोषण के मामले में बेनकाब करना शुरू कर दिया। इस कैपेंन का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि महिलाओं के शोषण के अधिकांश मामलों में आसपास का कोई इंंसान, परिचित, दोस्त रिश्तेदार आरोपित होता था और एक खामोशी का रुख अख्तियार कर लिया जाता था।
इस अभियान से थोड़ी बहुत सनसनी फैली पर बहुत कम ही ऐसा मामला सामने आया, जिनमें गलत करने वाले की पहचान सामने आई हो और अदालत से ना सही, लोगों की नज़रों में भी उसे दंडित होते देखा गया हो। इससे यह तो सिद्ध होता है कि समाज में निजी और सार्वजनिक दायरे में आधी आबादी के साथ यौन शोषण की घटनाएं होती हैं पर वह कभी बेनकाब नहीं होती हैं।
शोषित महिलाएं मन ही मन घुटती रहने के बावजूद इतनी हिम्मत नहीं कर पाती हैं कि शोषण करने वाले पुरुष को बेनकाब कर सके। इसकी वजह के रूप में कहा जा सकता है कि हमारे समाज में महिलाओं का समस्या पर मुखर होने के बजाए उकड़ू बैठकर समस्या पर हाथ सेंकने की घटना अधिक रही है।
पूर्व मिस इंडिया और अभिनेत्री तनुश्री दत्ता का दस साल पुराना मामला, जिसमें उन्होंने जाने-माने अभिनेता और समाजसेवी नाना पाटेकर के खिलाफ उत्पीड़न की शिकायत की है, जिसे देश में #MeeTooIndia कैंपेन के नाम से देखा जा रहा है। यह भी इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके ज़रिए महिलाओं ने अपने आसपास के परिचित और सहकर्मी को यौन शोषण के मामले में बेनकाब करना शुरू कर दिया है।
इसका असर भी देखने को मिल रहा है क्योंकि #MeeTooIndia कैंपेन के चलते सहकर्मियों और अपने अधिकारियों की करतूत सामने आने पर लोग बौखला ही नहीं रहे हैं बल्कि इसके बदले #HeToo का अभियान शुरू हो गया है।
यह ज़रूर कहा जा सकता है कि #MeeToo कैंपन अधिक पारदर्शी नहीं हो पा रहा था क्योंकि यह केवल She तक सीमित होता दिख रहा है। जबकि #MeeToo कैंपन के दायरे में हर तरह का उत्पीड़न शामिल होना चाहिए जो लिंग, भाषा, रंग, खान-पान, पहनने-ओढ़ने और भी कई तरह के हैं। इसके साथ-साथ इसका शिकार केवल आधी आबादी ही नहीं है, जब सर्वोच्च न्यायालय ने धारा-377 को संवैधानिक मान्यता दे दी है तो इसके दायरे को और भी बढ़ाने की ज़रूरत है।
गौर करने वाली बात यह है कि देश में #MeeTooIndia अभियान समाज के संभ्रांत तबकों की तरफ से हुई है, जबकि समाज में महिलाओं के साथ ही नहीं बच्चियों के साथ भी पब्लिक और प्राइवेट स्पेस में यौन शोषण की हज़ारों कहानियां दम तोड़ रही होगीं। कितनों को तो पता भी नहीं होगा कि उस वक्त उनका यौन शोषण हो रहा था। जब इस पर बात की जाए तो वह उंगलियों पर गिनती करने लगेंगी कि किन-किन घटनाओं के बारे में बताऊं?
हालिया तनुश्री दत्ता और नाना पाटेकर मामले में जिस तरह की खबरों की सुर्खियां अखबारों और मुख्यधारा की मीडिया में बनाई जा रही हैं, वह कोई नई बात नहीं है। बहुचर्चित रूपन देओल और केपीएस गिल मामले में भी अखबारों और खबरिया चैनलों ने अपनी यही भूमिका निभाई थी। अलबत्ता निचली अदालतों में केपीएस गिल के दोषी सिद्ध होने के बाद भी अखबारनवीस चाहते थे कि गिल साहब को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए क्योंकि उन्होंने देश के लिए विशिष्ट सेवाएं दी हैं।
मुख्य सवाल उस समय भी यही था कि किसी की देश सेवा या उसके सामाजिक सरोकार से उसके गलत काम को कैसे जस्टिफाई किया जाए? यही फ्रेम तनुश्री दत्ता और नाना पाटेकर मामले में भी सेट किया जा रहा है, नाना पाटेकर के अभिनय और उनकी सामाजिक सरोकारिता को सभी सोशल स्पेस पर बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जा रहा है।
समझने की ज़रूरत यह है कि उनके अभिनय और सामाजिक सरोकारिता का मौजूदा मामले से कोई संबंध नहीं है। अगर नाना पाटेकर स्वयं को बेकसूर मानते हैं तो सच का सामना करने में उन्हें दिक्कत क्यों हो रही है? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भी मोनिका लेविस्की मामले में पूरे राष्ट्र से माफी मांगने के लिए मजबूर हुए थे।
बहरहाल, कार्यस्थल पर रूपन देओल, मोनिया लेविस्की या फिर तनुश्री दत्ता और नाना पाटेकर का हालिया मामला केवल मॉलेस्ट होने भर का नहीं है, मामला कार्यस्थल का जेंडर संवेदनशील होने के साथ ही अन्य दूसरे विषयों पर संवेदनशील होने का भी है।
सिर्फ फिल्मों में ही नहीं, राजनीति, खेल, मीडिया समेत जीवन के सामाजिक दायरों के तमाम क्षेत्रों में अपनी जगह बनाने में जुटे लोगों को विविधताओं के कारण असहज स्थितियों का सामना करना पड़ता है। हर इंसान अपने काम करने की जगह पर सहज होकर काम करना चाहता है, पर वह सहज माहौल नहीं मिल पाता है। जबकि संविधान के अनुच्छेद और अनुबंध समानता और समान अवसर की वकालत करते हैं।
जब मिस वर्ल्ड रह चुकी तनुश्री दत्ता को अपने मॉलेस्ट होने की शिकायत को लेकर कई विपरित परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है, तो उत्पीड़न और डिस्क्रिमिनेशन झेल रहे एक आम इंसान की स्थिति क्या होती होगी, यह समझना आसान नहीं है?
इन सबके साथ यह भी समझना ज़रूरी है कि मौजूदा दौर में उत्पीड़न या शोषण वर्क प्लेस ही नहीं घर के दायरे में भी होता है और इसका शिकार केवल महिलाएं या लड़कियां या बच्चियां नहीं हैं इसका दायरा काफी बड़ा है। इससे निपटने के लिए समाज और सरकार दोनों को उन विषयों पर संवेदनशील होना पड़ेगा, जिसपर कोई बात नहीं होती है, जबकि यह घर और बाहर हर दायरे में मौजूद होता है।
इस दिशा में कानून के दायरे को अधिक विस्तार देने की भी ज़रूरत है। विशाखा गाइडलाइन में कार्यस्थल पर स्त्री-पुरुष के साथ-साथ समलैंगिक समुदायों को भी एक सहज माहौल मिलने की बात की वकालत की जानी चाहिए। यहां तक कि लोगों को जाति, धर्म, वर्ग, भाषा, रंग, खान-पान, पहनावे जैसे कई स्तरों पर उत्पीड़न भी झेलने पड़ते हैं, इसलिए इन उत्पीड़नों के खिलाफ भी कड़े कानून ज़रूरी है।
(आभार: लेख मूल रूप से यूथ की आवाज़ के लिए लिखा गया है।)

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