महिलाओं के कपड़ों में ज़ेब क्यों नहीं होती?- अंजलि मिश्रा

सवाल जो या तो आपको पता नहीं, या आप पूछने से झिझकते हैं, या जिन्हें आप पूछने लायक ही नहीं समझते

महिलाओं के कपड़ों में ज़ेब क्यों नहीं होती?
ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर ने एक बार कहा था, ‘मैं हमारी (महिलाओं की) आजादी और खुद के लिए नियम तय करने की हिमायती हूं. यह सब हमेशा अपने साथ लेकर चल सकूं इसलिए एक बड़ा हैंडबैग साथ लेकर चलती हूं.’ बेशक थैचर के पास हैंडबैग रखने की यही वजह रही हो, लेकिन दुनियाभर की हजारों महिलाओं के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता. इसलिए उनको हैंडबैग लेकर चलना कई बार किसी झंझट से कम नहीं लगता. महिलाओं की जिंदगी में हैंडबैग की यह झंझट या सुविधा - जो भी आप कहना चाहें – शामिल होने की एक बड़ी वजह यह है कि उनके पास जेब जैसी कोई चीज नहीं होती. ऐसा क्यों नहीं होता और इसके पीछे क्या वजह है, चलिए जानते हैं.
महिलाओं की ज्यादातर पोशाकों में जेब नहीं होती, और अगर होती भी है तो बस नाम मात्र की. कुछ छुट्टे पैसों के अलावा शायद ही कोई सामान उनमें रखा जा सके. और कई बार तो यह भी नहीं, क्योंकि कुछ कपड़ों में सिर्फ जेब का डिजाइन बना होता है और वे भीतर की तरफ से सिली होती हैं. यह नाममात्र की या सिर्फ दिखाई देने वाली जेब भी पश्चिमी परिधानों में होती है यानी कि पैंट्स और ट्राउजर्स में. भारतीय कपड़ों की बात करें तो इनमें न तो जेब होती है और न ही जेब बनाने की गुंजाइश. यह और बात है कि भारतीय महिलाओं ने मोबाइल, छोटा बटुआ या चाबी जैसी छोटी-मोटी चीज संभालने के लिए उसे अपने ब्लाउज में फंसाकर रखने की एक तकनीक विकसित कर ली है. देखने-सुनने में यह मजाकिया लग सकता है लेकिन असल में उन्हें ऐसा मजबूरन करना पड़ता है.
वैसे इस बात की शिकायत करने से पहले यह जान लेना जरूरी है कि पहले हमारे यहां महिलाओं ही नहीं, बल्कि पुरुषों के कपड़ों में भी जेब नहीं हुआ करती थीं. भारत में जेब का चलन अंग्रेजों की देन है, साथ ही इसमें हुआ भेदभाव भी. भारतीय महिलाओं के कपड़ों तक यह चलन इसलिए नहीं आ पाया क्योंकि पश्चिम में भी महिलाओं के कपड़ों में जेबें बनाने का रिवाज नहीं था. विक्टोरियन युग यानी ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया के शासनकाल (1837-1903) में जेब मर्दानी चीज समझी जाती थी. समय के साथ पुरुषों के परंपरागत भारतीय कपड़ों में तो जेबों को जगह मिल गई लेकिन महिलाओं के मामले में ऐसा नहीं हुआ.
दुनियाभर की महिलाओं के साथ हुए इस भेदभाव की एक वजह फैशन भी है. फैशन डिजाइनर महिलाओं के लिए उनकी सुविधा के बजाय उनके शरीर को सुंदर दिखाने के हिसाब से पोशाक डिजाइन करते हैं. हालांकि यह भी पुरुषवादी मानसिकता को दिखाता है, मानो महिलाएं सिर्फ सुंदर दिखें इससे ज्यादा उनकी कोई उपयोगिता ही नहीं है! बिल्कुल सही समय तो नहीं बताया जा सकता लेकिन 1840 के बाद (अगर इस समय को आधुनिक फैशन की शुरुआत मान लें तो) फैशन डिजाइनर महिलाओं के लिए बड़े गले, पतली कमर और नीचे से घेरदार स्कर्टनुमा ड्रेस डिजाइन करने लगे थे. यह चलन धीरे-धीरे महिलाओं की ड्रेसों से जुड़े फैशन की बुनियाद बन गया. इसके अनुसार महिलाओं के कपड़े उनके ब्रेस्ट-वेस्ट-हिप्स को उभारकर दिखाने वाले होने चाहिए.
एक नामचीन फैशन फर्म की क्रिएटिव डॉयरेक्टर कैमिला ओल्सन इसे फैशन इंडस्ट्री का लिंगभेद बताती हैं. ओल्सन के मुताबिक मध्य वर्ग का फैशन पुरुष प्रधान कहा जा सकता है. यह इस बात से भी पता चलता है कि महिलाओं की पोशाक किस फैब्रिक से तैयार होती हैं. अमूमन लेडीज ड्रेसेज में इस्तेमाल किया जाने वाला कपड़ा अपेक्षाकृत पतला और शरीर से चिपकने वाला होता है. ओल्सन जिस प्रवृत्ति की ओर इशारा करती हैं, वह भी विक्टोरियन दौर की मानसिकता को दिखाता है कि महिलाओं का सिर्फ सुंदर दिखना जरूरी है.
जेब की अनुपस्थिति महिलाओं को हमेशा अपने साथ पर्स रखने को मजबूर करती है. और फिर पर्स होगा तो उसका भी एक फैशन, एक अलग उद्योग होगा. शायद इस फायदे के चलते फैशन जगत जेब के सवाल पर ध्यान नहीं देता. एक संभावना यह भी है कि बाद के फैशन डिजाइनरों ने जेब बनाने पर सिर्फ इसलिए ध्यान नहीं दिया होगा क्योंकि उनके मुताबिक जब महिलाएं अपने साथ पर्स रखती हैं तो फिर इसकी जरूरत ही क्या है.
बीते कुछ समय से कुछ यूरोपीय देशों में महिलाओं ने अपनी पोशाकों में जेब पाने के लिए ‘गिव अस पॉकेट’ अभियान चला रखा है. वहीं दुनियाभर में होने वाली फेमिनिज्म की बहस में अब यह मुद्दा भी शामिल रहता है. यह और बात है कि फैशन जगत इस बात पर अब भी उतना ध्यान नहीं दे रहा कि कोई नजर आने वाला बदलाव आ सके और महिलाएं अपनी आजादी और अपने बनाए नियम थैचर की तरह पर्स में रखने के बजाय अपनी जेब में रख सकें.
(आभार: अजलि मिश्रा, लेख मूल रूप से satyagrah.scroll.in के लिए लिखा गया है।)

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