फेमिनिजम से चिढ़ने वालो, दिक्कत आपके साथ है- सिंधुवासिनी

‘यार, इन लड़कियों का फेमिनिजम हमेशा पीरियड्स, सेक्स, ब्रा, वजाइना और अंडरआर्म्स के बालों तक ही सिमट कर क्यों रह जाता है?’ अक्सर ऐसे सवाल सुनने को मिलते हैं। सवाल वाजिब है लेकिन इसका जवाब थोड़ा जटिल और लंबा है और इसे आप तभी समझ पाएंगे जब तार्किक होकर सोचेंगे, अपने पूर्वाग्रहों को दूर रखकर।
देश में चुनावों का माहौल है। कहा जा रहा है कि वोट की ‘इज्जत’ बेटी की ‘इज्जत’ से ज्यादा बड़ी है। कोई बड़ी बात तो नहीं कह दी शरद यादव ने? है ना? विनय कटियार को लगता है कि प्रियंका गांधी खूबसूरत नहीं हैं और उनकी पार्टी के पास ज्यादा खूबसूरत महिलाएं हैं जो स्टार कैंपेनर बन सकती हैं।
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इसमें क्या गलत कहा उन्होंने? बेचारे अपनी राय ही तो रख रहे हैं! सही कहा ना? हां, यह महज एक राय है लेकिन इसके पीछे की मानसिकता को समझना जरूरी है। मानसिकता यह है कि महिलाओं को खूबसूरत होना चाहिए क्योंकि खूबसूरती ही उनकी ताकत है और वे इसी के सहारे आगे बढ़ सकती हैं।
दुनिया के सबसे ताकतवर देश को अभी-अभी उसका राष्ट्रपति मिला है। ट्रंप ने महिलाओं के बारे में कैसी-कैसी बातें कही हैं, आप जानते ही हैं। उन्होने हिलरी क्लिंटन के वॉशरूम ब्रेक और पीरियड्स का मजाक बनाने से लेकर महिलाओं की पुसी पकड़ने तक सैकड़ों ऐसी बातें कही हैं जो निहायती घटिया हैं। अब जब ट्रंप राष्ट्रपति बन गए हैं तब भी एक तबका उन्हें अपना प्रतिनिधि मानने से इनकार कर रहा है। महिलाएं विरोध में मार्च निकाल रही हैं।
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इंग्लिश जर्नलिस्ट केटी हॉपकिन्स ने इसी मार्च के बारे में एक लेख लिखा है। लेख का शीर्षक है-‘Possessing a vagina is a matter of biology, not a political argument’ हालांकि, उनकी कई बातों से सहमत हुआ जा सकता है लेकिन लेख का निचोड़ यह है कि महिला होना आपका व्यक्तिगत मसला है इसलिए विक्टिम कार्ड खेलकर राजनीति मत करिए। बता दें कि केटी डॉनल्ड ट्रंप का शुरुआत से समर्थन करती आई हैं।
खैर, उनकी बात बिल्कुल सही है। महिला होना तो सिर्फ एक बॉयोलॉजिक इंसिडेंट (बल्कि ऐक्सिडेंट)  है। ऐक्सिडेंट इसलिए क्योंकि यह ‘दुखद’ है। वह इसलिए क्योंकि सिर्फ क्योंकि इसी एक ‘ऐक्सिडेंट’ की वजह से आपको बहुत कुछ झेलना पड़ता है।
ट्रंप जैसे लोग जबरन आपकी पुसी पकड़ने में गर्व महसूस करते हैं, शरद यादव जैसे नेता लोग वोट के इज्जत की तुलना आपकी ‘इज्जत’ से करते हैं और मुलायम सिंह जैसे नेता बताते हैं कि आपके साथ रेप होना ज्यादा कुछ नहीं बस भोले-भाले लड़कों से अंजाने में हुई गलती है। लेकिन जब आप कहेंगी कि समाज की इज्जत आपकी वजाइना में नहीं होती तो आपको सनकी फेमिनिस्ट का दर्जा दे दिया जाएगा।
मतलब राजनीति के लिए आप महिलाओं को हथियार बनाएं, उनकी वजाइना को हथियार बनाएं तो ठीक लेकिन जब वही महिलाएं ‘This pussy grabs back’ और ‘I am more than my vagina’  के नारे देती हैं तो आप उन्हें बताते हैं कि वजाइना कोई पॉलिटिकल टूल नहीं है। तब वे आपकी नजरों में ‘अटेंशन सीकिंग रैडिकल फेमिनिस्ट’ हो जाती हैं।
लोग रोना रोते हैं कि महिलाओं को बहुत फायदे मिल जाते हैं। उनकी शिकायतों को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन आपने ऐसी स्थिति पैदा ही क्यों की? आप ही तो कहते हैं कि वे कमजोर हैं। फिर कमजोरों को मिलने वाली मदद से आपको इतनी शिकायतें क्यों हैं?
कइयों ने मुझसे कहा, लड़कों के साथ भी तो गलत होता है। मैं उन पर कुछ क्यों नहीं लिखती? सच है, लड़कों के साथ भी गलत होता है। उनके साथ भी रेप होते हैं। लेकिन ‘मर्द को दर्द नहीं होता’ और ‘खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजा पर, नुकसान हमेशा खरबूजे का ही होता है’ जैसी कहावतें पुरुषप्रधान समाज की ही तो बनाई हुई हैं।
एक बार मेरी अपने एक सीनियर से इसी बात पर बहस हो गई थी। उनका कहना था कि पुरुषों का रेप हो ही नहीं सकता। अब इससे ज्यादा क्या कहूं मैं? पितृसत्ता सिर्फ महिलाओं के लिए ही नहीं, पुरुषों के लिए भी उतनी ही खतरनाक है। यह बात हम जितनी जल्दी समझ लें उतना ही अच्छा होगा।
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‘औरतें भी ना, बड़ी दोगली होती हैं। एक तरफ कहेंगी कि हमें बराबरी चाहिए दूसरी तरफ अंधेरा होने की बात कहकर ऑफिस से जल्दी निकलने के बहाने बनाएंगी, मेट्रो और बसों में धप्प से सीट हथिया लेंगी। बराबरी चाहती हैं तो आकर बराबर की लड़ाई भी लड़ें।‘ ऐसे ही कुछ दलीलें अक्सर सुनने को मिलती हैं।
कुछ दिनों पहले ही जब आर्मी चीफ बिपिन रावत से जब महिलाओं को सेना में कॉम्बैट रोल देने के बारे में पूछा गया तो उन्होंने झट से कहा कि बराबर ओहदे के साथ बराबर जिम्मेदारियां भी मिलती हैं। जिम्मेदारियां मिलनी भी चाहिए। लेकिन बराबरी की यह दौड़ तभी शुरू हो सकती है जब दोनों एक ही लाइन से शुरुआत करें। अब सच-सच बताइए, क्या महिलाएं और पुरुष एक ही लाइन पर हैं?
रही बात फेमिनिजम के पीरियड्स और वजाइना तक सिमट जाने की तो ऐसा बिल्कुल नहीं है। आपको सिर्फ यही इसलिए दिखता है क्योंकि शायद आप एक खास तबके को ही देख रहे हैं। आपको वही लड़कियां दिख रही हैं जो पीरियड्स के बारे में लिख रही हैं।
आप उन लड़कियों को नहीं देख रहे हैं जो अपने हिंसक पति से छुटकारा पाने के लिए तलाक लेने की हिम्मत दिखा रही हैं। आप उन लड़कियों को नहीं देख रहे हैं जो जिद करके पढ़ाई कर रही हैं, उन क्षेत्रों में अपने पांव जमा रही हैं जहां पुरुषों को वर्चस्व होता है।
आपको पढ़ने-लिखने वाली लड़कियों से कोई शिकायत नहीं है। स्पोर्ट्स में हिस्सा लेने वाली लड़कियों से भी शिकायत नहीं हैं। लेकिन वही पढ़ी-लिखी अगर लड़की अगर अपनी चॉइस के कपड़ों की बात करें, सेक्शुअल फ्रीडम की बात करे तो वह आपको रैडिकल लगने लगती है। जाहिर है, दिक्कत आपके साथ है। फेमिनिजम या लड़कियों के ऐटिट्यूड के साथ नहीं।
(आभार:सिंधुवासिनी, लेख मूल रूप से नवभारत टाईम्स के लिए लिखा गया है )

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