क्यों तीन तलाक पर कानून का विरोध करने वालों को श्रीलंका और पाकिस्तान की तरफ भी देखना चाहिए- एजाज अशरफ
तीन तलाक के मुद्दे पर पूरी दुनिया जिस तरफ बढ़ रही है, भारत में एक तबके का रुख उसके बिल्कुल उलट है
रॉयटर्स
लोकसभा से पारित होने के बाद तीन तलाक से जुड़ा विधेयक अब राज्यसभा की देहरी पर है. विधेयक में तीन तलाक देने को अपराध बना दिया गया है जिसके लिए तीन साल की कैद के साथ जुर्माने का भी प्रावधान है. साथ ही, पीड़ित महिला अदालत से भरण-पोषण का दावा भी कर सकती है. बीते अगस्त में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पर रोक लगा दी थी. मोदी सरकार का कहना है कि कानून के बगैर सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू करना मुश्किल है, इसलिए यह विधेयक लाया गया है.
केंद्र सरकार के इस फैसले का ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) विरोध कर रहा है. लेफ्ट, तृणमूल कांग्रेस और एनसीपी समेत विपक्ष का एक बड़ा तबका भी इसके विरोध में है. पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि यह मजहब का मामला है जिसमें बाहरी दखल नहीं होना चाहिए. एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने इस विधेयक को मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का हनन बताया है. उनके मुताबिक प्रस्तावित कानून को लेकर मुस्लिमों से कोई चर्चा नहीं कई गई. आरजेडी ने भी विधेयक पर सवाल उठाए हैं. उधर, वाम दलों को तीन तलाक को अपराध करार देने पर ऐतराज है. उनका कहना है कि भाजपा राजनैतिक लाभ के लिए यह काम कर रही है.
देखा जाए तो इस मुद्दे पर पूरी दुनिया जिस तरफ आगे बढ़ रही है, एआईएमपीएलबी सहित एक तबके का रुख उसके बिल्कुल उलट है. यह बात भी खासी महत्वपूर्ण है कि तकरीबन 22 मुस्लिम देश, जिनमें पाकिस्तान और बांग्लादेश भी शामिल हैं, अपने यहां सीधे-सीधे या अप्रत्यक्ष रूप से तीन बार तलाक की प्रथा खत्म कर चुके हैं.
इस सूची में तुर्की और साइप्रस भी शामिल हैं जिन्होंने धर्मनिरपेक्ष पारिवारिक कानूनों को अपना लिया है; ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मलेशिया के सारावाक प्रांत में कानून के बाहर किसी तलाक को मान्यता नहीं है; ईरान में शिया कानूनों के तहत तीन तलाक की कोई मान्यता नहीं है. कुल मिलाकर यह अन्यायपूर्ण प्रथा इस समय भारत और दुनियाभर के सिर्फ सुन्नी मुसलमानों में बची हुई है.
भारत में कहा जाता है कि विदेशों में रहने वाले धार्मिक अल्पसंख्यक बदलावों के प्रति अपेक्षाकृत ज्यादा अड़ियल रुख अपनाते हैं. उन्हें डर होता है कि उनकी धार्मिक प्रथाओं में जरा से परिवर्तन से उनकी धार्मिक पहचान खतरे में पड़ जाएगी. हालांकि यह तर्क हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका तक में लागू होता नहीं दिखता. यहां 10 फीसदी के तकरीबन मुस्लिम आबादी है. श्रीलंका का शादी और तलाक (मुस्लिम) कानून, 1951 जो 2006 में संशोधित हुआ था, तुरंत तलाक वाले किसी नियम को मान्यता नहीं देता. इसके मुताबिक शौहर को तलाक देने से पहले काजी को इसकी सूचना देनी होती है. नियमों के मुताबिक अगले 30 दिन के भीतर काजी मियां-बीवी के बीच सुलह करवाने की कोशिश करता है. इस समयावधि के बाद ही तलाक हो सकता है लेकिन वह भी काजी और दो चश्मदीदों के सामने होता है. इस्लामाबाद की इंटरनेशनल इस्लामिक यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर डॉ मुहम्मद मुनीर अपने एक शोधपत्र में बताते हैं कि श्रीलंका में तीन तलाक के मुद्दे पर बना कानून एक आदर्श कानून है.
भारत में अब भी इस मुद्दे पर भारी बहस चल रही है
भारत में रहने वाले सुन्नी मुसलमान तीन तलाक का नियम बदल सकते हैं या उन्हें बदलना चाहिए, यह बहस दसियों साल पुरानी है. इस्लाम में तलाक के तीन तरीके चलन में हैं. इनमें से एक है तलाक ए अहसन. इस्लाम के कानूनविदों का मानना है कि तलाक ए अहसन (तलाक का एक तरीका) में शौहर बीवी को तब तलाक दे सकता है जब उसका मासिक चक्र न चल रहा हो (तूहरा की समयावधि). इसके बाद तकरीबन तीन महीने की समयावधि जिसे इद्दत कहा जाता है, वह तलाक वापस ले सकता है. यदि ऐसा नहीं होता तो इद्दत के बाद तलाक को स्थायी मान लिया जाता है. लेकिन इसके बाद भी यदि यह जोड़ा चाहे तो भविष्य में शादी कर सकता है और इसलिए इस तलाक को अहसन (सर्वश्रेष्ठ) कहा जाता है.
दूसरे प्रकार की तलाक को तलाक ए हसन (बेहतर) कहा जाता है. इसकी प्रक्रिया की तलाक ए अहसन की तरह है लेकिन इसमें शौहर अपनी बीवी को तीन अलग-अलग बार तलाक कहता (जब बीवी का मासिक चक्र न चल रहा हो) है. यहां शौहर को अनुमति होती है कि वह इद्दत की समयावधि खत्म होने के पहले तलाक वापस ले सकता है. यह तलाकशुदा जोड़ा चाहे तो भविष्य में फिर से शादी कर सकता है. इस प्रक्रिया में तीसरी बार तलाक कहने के तुरंत बाद वह अंतिम मान लिया जाता है. तलाकशुदा जोड़ा फिर से शादी तब ही कर सकता है जब बीवी किसी दूसरे व्यक्ति से शादी कर ले और उसे तलाक दे. इस प्रक्रिया को हलाला कहा जाता है.
जो जोड़ा तीन बार के तलाक के बाद अलग हुआ है, इस्लाम के मुताबिक उसे फिर शादी नहीं करनी चाहिए लेकिन, हलाला की व्यवस्था इसका तोड़ निकालती है. इसके लिए आमतौर पर यह होता है कि तीसरे व्यक्ति के साथ एक आपसी समझ बनाई जाती है जो संबंधित महिला से शादी कर उसे तुरंत तलाक दे देता है. इसके बाद वह महिला अपने पहले शौहर से शादी कर सकती है.
यहीं आकर तलाक की उस प्रक्रिया की बुराइयां साफ-साफ दिखने लगती हैं जिसमें शौहर एक बार में तीन तलाक कहकर बीवी को तलाक दे देता है. इसे तलाक उल बिदत कहा जाता है और यह उतनी पुरानी परंपरा है जितना इस्लाम.
तलाक उल बिदत के तहत शौहर तलाक के पहले ‘तीन बार’ शब्द लगा देता है या ‘मैं तुम्हें तलाक देता हूं’ को तीन बार दोहरा देता है. इसके बाद शादी तुरंत टूट जाती है. इस तलाक को वापस नहीं लिया जा सकता. तलाकशुदा जोड़ा फिर हलाला के बाद ही शादी कर सकता है.
आमतौर पर जल्दी से जल्दी तलाक का यह तरीका होता है कि शौहर अपनी पत्नी से तीन अलग-अलग बार, जब मासिक चक्र न चल रहा हो, तलाक बोले. डॉ ताहिर महमूद और डॉ सैफ महमूद इस्लामिक कानूनों से जुड़ी अपनी किताब में लिखते हैं कि तलाक के लिए लगातार तीन तूहर (जब मासिक चक्र न चल रहा हो) का कम के कम समय निर्धारित होता है लेकिन हर मामले में यह निश्चित नहीं है. इन लेखकों ने अपनी बात के पक्ष में देवबंदी विद्वान अशरफ अली थानवी (1863-1943) की राय का हवाला दिया है. इसके अनुसार – ‘कोई व्यक्ति एक बार तलाक कह देता है. उसके बाद वह बीवी से सुलह कर लेता है और दोनों फिर साथ रहने लगते हैं. कुछ सालों के बाद किसी तरह के उकसावे में आकर वह दूसरी बार फिर से तलाक कह देता है. इसके बाद वह उकसावे को भूल जाता है और फिर से बीवी के साथ रहने लगता है. लेकिन उसके दो तलाक पूरे हो चुके हैं. इसके बाद वह जब भी तलाक कहता है वह अंतिम तलाक होता है और उसके बाद निकाह तुरंत खत्म हो जाता है.’
कहते हैं कि तलाक उल बिदत या एक साथ तीन बार तलाक कहकर तलाक देने की प्रक्रिया यह सुनिश्चित करने लिए शुरू की गई थी कि जहां जोड़े के बीच कभी न सुधरने की हद तक संबंध खराब चुके हैं या दोनों का साथ रहना बिलकुल मुमकिन नहीं हैं वहां तुरंत तलाक हो जाए..
दावा यह भी किया जाता है कि तलाक की यह प्रक्रिया उन महिलाओं के लिए ईजाद की गई थी जो अपने ऐसे पतियों के शोषण से मुक्ति चाहती हैं जो बात-बात में उन्हें तलाक देकर उसे वापस ले लेते हैं.
वजह जो भी हो लेकिन तलाक की यह प्रक्रिया मुस्लिम दुनिया में लंबे समय से स्वीकार्य रही है. यहां तक कि चारों सुन्नी विचार धाराएं – हनफी, मलिकी, हंबली और शाफेई इस प्रक्रिया पर सहमति जताती हैं.
तीन तलाक माने एक
सुन्नी विचारधारा के बीच तीन तलाक को लेकर सहमति तब टूटी जब हंबली विद्वान इब्न तैमिया (1268-1328) ने तर्क दिया कि एक बार में तीन तलाक एक के बराबर होता है. इस विचार को हाशिये पर रखा जाता रहा है लेकिन बीती शताब्दी में 20 से ज्यादा देशों ने इसे मान्यता दी है.
मिस्र पहला देश था जिसने 1929 में इस विचार को कानूनी मान्यता दी. वहां कानून-25 के जरिए घोषणा की गई कि तलाक को तीन बार कहने पर भी उसे एक ही माना जाएगा और इसे वापस लिया जा सकता है. लेकिन लगातार तीन तूहरा (जब बीवी का मासिक चक्र न चल रहा हो) के दौरान तलाक कहने से तलाक अंतिम माना जाएगा. 1935 में सूडान ने भी कुछ और प्रावधानों के साथ यह कानून अपना लिया. आज ज्यादातर मुस्लिम देश – ईराक से लेकर संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, कतर और इंडोनेशिया तक ने तीन तलाक के मुद्दे पर तैमिया के विचार को स्वीकार कर लिया है.
ट्यूनीशिया तो तैमिया के विचार से भी आगे निकल चुका है. 1956 में बने कानून के मुताबिक वहां अदालत के बाहर तलाक को मान्यता नहीं है. ट्यूनीशिया में बाकायदा पहले तलाक की वजहों की पड़ताल होती है और यदि जोड़े के बीच सुलह की कोई गुंजाइश न दिखे तभी तलाक को मान्यता मिलती है. अल्जीरिया में भी तकरीबन यही कानून है.
वहीं तुर्की ने मुस्तफा कमाल अतातुर्क के नेतृत्व में 1926 में स्विस सिविल कोड अपना लिया था. यह कानून प्रणाली यूरोप में सबसे प्रगतिशील और सुधारवादी मानी जाती है और इसके लागू होने का मतलब था कि शादी और तलाक से जुड़े इस्लामी कानून अपने आप ही हाशिये पर चले गए. हालांकि 1990 के दशक में इसमें कुछ संशोधन जरूर हुए लेकिन जबर्दस्ती की धार्मिक छाप से यह तब भी बचे रहे. बाद में साइप्रस ने भी तुर्की में लागू कानून प्रणाली अपना ली.
जहां तक भारत की बात है तो यहां तीन तलाक की जड़ें आम जनमानस में काफी गहरी हैं. अनजाने में या पितृसत्तात्मक समाज के प्रभाव से यहां तलाक की यह प्रक्रिया सबसे प्रभावी बन गई. यहां तक कि कई मुसलमान यह भी मान लेते हैं कि इस्लाम में तलाक का यही एकमात्र तरीका है.
इसलिए गुस्से के क्षणों में कई लोग तीन तलाक कहकर अपनी बीवी तो तलाक दे देते हैं और फिर इस फैसले पछताते हैं. क्योंकि यह तलाक वापस नहीं लिया जा सकता और तलाकशुदा लोगों को फिर से आपस में शादी करनी है तो उन्हें हलाला की व्यवस्था से गुजरना पड़ता है.
पाकिस्तान में बदलाव कैसे आया
पाकिस्तान में तीन तलाक के नियम पर दोबारा विचार की शुरुआत एक विवाद के चलते हुई. 1955 में वहां के तत्कालीन प्रधानमंत्री मुहम्मद अली बोगरा ने अपनी बीवी को तलाक दिए बिना सेक्रेटरी से शादी कर ली थी. इसपर पाकिस्तान के संगठन ऑल पाकिस्तान वूमैन एसोसिएशन ने आंदोलन छेड़ दिया और सरकार को शादी और पारिवारिक कानूनों पर एक सात सदस्यीय आयोग बनाना पड़ा.
इस आयोग ने 1956 में सिफारिश की कि एक बार में तीन तलाक बोलने को एक माना जाए. दूसरी सिफारिश थी कि लगातार तीन तूहरा में जब शौहर तलाक बोले तब तलाक को प्रभावी माना जाना चाहिए. आयोग ने तीसरी सिफारिश में कहा कि शौहर तब तक तलाक नहीं दे सकता जबतक कि विवाह और परिवार अदालत से वह इसपर आदेश हासिल नहीं कर लेता.
इस तीसरी सिफारिश की आयोग के ही एक सदस्य मौलाना एहतेशाम उल हक थानवी ने खूब आलोचना की. अपने असहमति पत्र में उनका कहना थी तलाक के पहले ही अदालत से इसकी अनुमति हासिल करना धार्मिक विश्वास के साथ खिलवाड़ है और जब तलाक अनिवार्य हो चुका है तो यह प्रक्रिया उसमें बाधा डालने जैसी है.
पाकिस्तान में 1961 में मुस्लिम परिवार कानून अध्यादेश (एमएफएलओ) जारी किया गया था लेकिन मौलाना एहतेशाम उल हक थानवी की आपत्ति के मद्देनजर तलाक के मामले को अदालती हस्तक्षेप से दूर रखा गया.
इस अध्यादेश के सेक्शन सात में तलाक के बारे में जिक्र है और इससे जुड़े छह सब सेक्शन इस प्रकार हैं :
1. कोई भी व्यक्ति ‘किसी भी रूप में तलाक’ कहता है तो उसे यूनियन काऊंसिल (स्थानी निकाय) के चेयरमैन को इसबारे में जानकारी देते हुए एक नोटिस देना होगा और इसकी कॉपी अपनी बीवी को देनी होगी.
2. यदि कोई व्यक्ति ऐसा करने में असफल रहता है तो उसे एक साल की सजा हो सकती है या 5000 रुपये का जुर्माना देना पड़ सकता है.
3. चेयरमैन को नोटिस देने के 90 दिन बाद ही तलाक प्रभावी माना जाएगा.
4. नोटिस पाने के 30 दिनों के भीतर चेयरमैन को एक पंच परिषद बनानी होगी जो तलाक के पहले सुलह करवाने की कोशिश करेगी.
5. यदि महिला गर्भवती है तो तलाक 90 दिन या प्रसव, जिसकी समयावधि ज्यादा हो के बाद ही प्रभावी होगा.
6. संबंधित महिला तलाक होने बाद भी अपने पूर्व पति से शादी कर सकती है और इसके लिए उसे बीच में किसी तीसरे व्यक्ति से शादी करने की जरूरत नहीं है.
इस्लामी कानूनों के जानकार मानते हैं कि पाकिस्तान के ये प्रावधान तीन तलाक की प्रथा या तलाक उल बिदत को अप्रत्यक्षरूप से अप्रभावी बना देते हैं.
बांग्लादेश का निर्माण 1971 में हुआ था. उस समय तक वहां भी यही अध्यादेश लागू था और पाकिस्तान से स्वतंत्रता के बाद सरकार ने यह कानून जारी रखा.
भारत में तीन तलाक पर अदालतों का रुख क्या रहा है
ऐसा नहीं है कि भारतीय अदालतों में तीन तलाक को खत्म करने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए कुछ फैसले न दिए हों. उदाहरण के लिए 2008 के एक मामले में फैसला देते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज बदर दुरेज अहमद ने कहा था कि भारत में तीन तलाक को एक तलाक (जो वापस लिया जा सकता है) समझा जाना चाहिए. इसी तरह से गुवाहाटी हाईकोर्ट ने जियाउद्दीन बनाम अनवरा बेगम मामले में कहा था कि तलाक के लिए पर्याप्त आधार होने चाहिए और सुलह की कोशिशों के बाद ही तलाक होना चाहिए.
कई सर्वेक्षणों की राय से जाहिर हुआ है कि भारत में इस समय मुसलमान महिलाओं का एक बड़ा तबका तीन तलाक के नियम को खत्म करने के पक्ष में है. लेकिन ऐसा लगता है कि एआईएमपीएलबी ने इस मामले में शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर रेत में दबा लिया है. उसे दूसरे मुस्लिम देशों में हुए सुधारों का अध्ययन करना चाहिए ताकि हमारे यहां भी तीन तलाक की प्रथा को खत्म किया जा सके.
(अभार: एजाज अशरफ, लेख मूल रूप से satyagrah.com के लिए लिखा गया है।) |
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