वर्तमान राजनीति में वाजपेयी, करुणानीधि और सोमनाथ चटर्जी की ज़रूरत क्यों है-प्रत्युष प्रशांत



गुज़र रहा महीना भारतीय राजनीति के उन तीन राजनेताओं के अवसान का महीना रहा है, जिन्होंने अपनी विचारधारा की प्रतिबद्धता से संसदीय राजनीति में विपक्ष की भूमिका को कभी हाशिए पर सिमटने नहीं दिया।
किसी भी देश के स्वस्थ लोकतंत्र के लिए मज़बूत विपक्ष का होना हमेशा से ज़रूरी माना गया है। भारतीय राजनीति के वह तीन ध्रुव अटल बिहारी वाजपेयी, एम. करुणानिधी और सोमनाथ चटर्जी थे। राजनीतिक विचारधारा एक-दूसरे से अलग होते हुए भी तीनों ने कॉंग्रेस के समक्ष चुनौतियों को पेश किया और भारतीय लोकतंत्र को मज़बूत बनाकर उसे एक शिल्पकार की तरह सजाया और निखारा।
मौजूदा दौर में प्रचारक की भूमिका में स्वयं को ढाल चुका मीडिया उन तीनों के राजनीतिक सफर की व्याख्या करने में उनकी व्यक्तित्व में इस कदर मशरूफ हो गया कि भारतीय राजनीति में उनकी मुख्य भूमिका पर धूल भी नहीं झाड़ सका।
अटल बिहारी वाजपेयी, एम. करुणानिधी और सोमनाथ चटर्जी तीनों अलग-अलग राजनीतिक दल और राजनीतिक विचारधारा के अगुवा ही नहीं रहें, बल्कि वे तीनों अलग-अलग राज्यों से आते भी थे। तीनों व्यक्तित्व में कोई समानता देखनी है तो वह यह है कि तीनों एक ही पीढ़ी के थे। तीनों 1924 के दशक के आस-पास पैदा हुए थे और तीनों की वैचारिक प्रतिबद्धता उनको उन राजनीतिक पार्टियों से जोड़ती थी, जो उस दौर की प्रभुत्व वाली पार्टी का विरोध करती थी। आज हम उनकी राजनीतिक विचारधारा से सहमत-असहमत हो सकते हैं पर भारतीय संसदीय राजनीति में उनकी भूमिका से नज़रे नहीं चुरा सकते हैं।
अटल बिहारी वाजपेयी, एम. करुणानिधी और सोमनाथ चटर्जी तीनों ने राजनीति का ककहरा उस दौर में सीखना शुरू किया जब भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस देश की सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत थी। वाजपेयी अपने तरुणाई के दिनों में ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़ गए और बाद के दिनों में जनसंघ से जुड़े फिर भारतीय जनता पार्टी के अगुवा बने।
करुणानिधी भी युवावस्था में ही द्रविड़ कड़गम से जुड़ें और बाद में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम से। इन दोनों की तुलना में चटर्जी काफी बाद में दलगत राजनीति से जुड़े और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के साथ अपना राजनीतिक करियर बिताया।
तीनों ही राजनीतिक हस्ती राजनीति के अलावा एक अतिरिक्त शिल्प के महारथी भी थे, वाजपेयी कवि के रूप में भी पहचाने जाते थे, तो करुणानीधि अभिनेता, नाटककार और लेखक भी थे, वही चटर्जी वकालत के पेशे के महारथी थे।
तीनों ही राजनेताओं की अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं ने केवल भारत के चुनावी मानचित्र को पटल दिया, बल्कि वैचारिक भूभाग को भी बदला।
तीनों ने ही अपनी विचारधारा की प्रतिबद्धता से, देश की विवधता को पहचाना और इन विविधताओं की अस्मिता के लिए राजनीतिक संघर्ष किया। करुणानिधी ने मज़बूती से देश में भाषायी और क्षेत्रीय अभियान को कोर दिया और हिन्दी अंध राष्ट्रीयता को सवालों के घेरे में लाया।
वाजपेयी ने निजी उद्यम के पक्ष में नियंत्रित अर्थव्यवस्था को, पश्चोन्मुखी विदेश नीति के पक्ष में सोवियत परस्त नीति को, अपनी हिंदू विचारधारा पर राष्ट्रवाद और गैर सांप्रदायिक राष्ट्रवाद को चुनौति दी। चटर्जी ने भूमि सुधार, लैंगिक समानता और साम्राज्यवाद विरोध पर गांधी तथा नेहरू की कॉंग्रेस का कहीं अधिक पुरजोर तरीके से विरोध किया।
भारतीय संसदीय राजनीति ने इस महीने आरोही क्रम में उन तीन राजनीतिक विचारधारा के पुरोधाओं को खोया जिन्होंने देश की राजनीति को पुर्न परिभाषित कर बहुदलीय व्यवस्था को मज़बूत करने में अपनी महत्ती भूमिका निभाई, भले ही उनकी राजनीति प्रतिबद्धता एक-दूसरे के विरोधी विचारधाराओं के प्रति रही हो।
आज राजनीतिक परिदृश्य में भाजपा प्रणाली स्थापित है, इस प्रणाली ने भी पूरे देश में उसी तरह से प्रभुत्ववादी स्थिति का निमार्ण किया है, जिस तरह पूर्व में कॉंग्रेस ने किया था।
मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में, जब विपक्ष सत्तारूढ़ दल से संख्या बल में कमज़ोर और बिखरा हुआ है। अटल बिहारी वाजपेयी, एम. करुणानिधी और सोमनाथ चटर्जी के राजनीतिक संघर्ष को याद करते हुए, जनविकल्पों की राजनीति को मज़बूत करने के लिए संकल्पबद्ध होने की ज़रूरत है। यही संघर्ष की राजनीति के तीनों पुराधाओं या लोकतंत्रवादियों को सच्ची श्रद्धांजलि होगी क्योंकि कम संख्या बल के बाद भी कॉंग्रेस के सत्तारूढ़ वाले दिनों में इन राजनेताओं ने संसदीय राजनीति को आवारा नहीं होने दिया, सत्तारूढ़ कॉंग्रेस को संसद ही नहीं सड़क पर भी ज़ोरदर चुनौती पेश की।
(आभार: यूथ की आवाज़, लेख मूल रूप से यूथ की आवाज़ के  लिए लिखा गया है।)

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