बलात्कारी परिवेश में रक्षाबंधन पर एक बहन का नोट्स:-ज्योति प्रसाद

अपने समय से कट जाना बड़ा ही मुश्किल काम है. और जो लोग इस तरह से कट जाने में सफल रहते हैं वास्तव में वे लोग छल के सबसे करीब होते हैं.एक दिन धोखा खाते हैं. सारे भ्रम टूट भी जाते हैं. हमें क्या फर्क पड़ता है टाइप का बर्ताव भी कहीं नहीं ले जाने वाला. फर्क तो पड़ता है. अगर फर्क नहीं पड़ता तो शक़ है कि आप इंसान हो भी या नहीं. हम किस तरह के समाज की बुनाई कर रहे हैं या चाहत रखते हैं, यह बड़ा सवाल है. कई बार हमारे द्वारा किया जाने वाला विरोध ही समाज की बनावट या चाहत का पता बतलाता है. इसलिए समाज पर नोट्स बनाते रहना चाहिए. खबर रहेगी कि हमारे दौर का समय किस तरह की परेशानियों और चुनौतियों से जूझ रहा था.
क्या आप स्तब्ध शब्द को समझते हैं? जी हाँ, वही अवस्था जब आपको एक बेजोड़ धक्का लगता है. जैसे किसी अपने की मौत की खबर मिलना. वही अवस्था जब आप यकीं के तराजू में झूलने लगते हैं. यकीं करें या न करें की अवस्था! बिजली के झटकों का दौर चल रहा है. जहाँ रह रह कर बिजली सीधे सीधे एक सुधि इन्सान पर गिर रही है. 



कोई भी सामान्य व्यक्ति सन्न है क्योंकि बिहार से एक बहुत ही भयानक वारदात की तस्वीरें दिखाई पड़ रही हैं. एक महिला आगे बुरी हालत में निर्वस्त्र है और उसके पीछे 21 वीं शताब्दी की जालिम और बेदिमाग भीड़ की तस्वीर. यह तस्वीर किसी भी समाज और इन्सान के लिए शर्म का विषय होना चाहिए. शर्म से सिर तो झुकना ही चाहिए साथ ही व्यवस्था में मौजूद लोगों को अपने लिए चुल्लू भर पानी खोजकर डूबकर मर जाना चाहिए. हाँ, मर ही जाना चाहिए क्योंकि उन्हें जो प्रशासन के स्तर पर काम सौंपा गया था उसे करने में वे पूरी तरह से असफल रहे हैं.
एक युवक की हत्या होती है. यह तय भी नहीं है कि उसकी हत्या हुई है या हादसा हुआ है. लेकिन लोगों ने अपने जासूसी दिमाग से पहले ही पता लगा लिया कि यही औरत कातिल है.  अचानक एक भीड़ का जन्म होता है. यह भीड़ महिला को मारती है. पीटती है. इसके बाद उसके कपड़े फाड़ दिए जाते हैं. उसे गली दर गली भगाया जाता है. वीडियो ऐसा भयानक है कि रूह काँप जाती है. कुछ लोग उसे कपड़ा उढ़ाने की बजाय फोन से वीडियो बना रहे हैं. पुलिस खुद लापता होने की शिकार है. क्या है यह तस्वीर? हमारे मरे होने की निशानी है? व्यक्ति के तौर किसी व्यक्ति ने इन्सान बने रहने का जज्बा नहीं दिखाया. परिवार और समाज के तौर पर किसी ने इंसानियत की चादर नहीं उढ़ाई. इन तस्वीरों को देखने के बाद अगर कोई तलवार लेकर खून खौलाता हुआ निकल जाए तो क्या बुरा है! अगर इस घटना के बाद कोई मन से बद्दुआ दे तो क्या हैरानी है! उन नेताओं को जो शर्म से अभी भी कुर्सी पर बैठकर कुर्सी तोड़ रहे हैं उन्हें अपनी आत्मा से बेदखल हो जाना चाहिए. ऐसे लोगों को इस धरती से जल्दी उठ जाना चाहिए, जो इन्सान होना क्या होता है समझते नहीं.   

इन सब के बीच कुछ है जो हमारे समाज से मर चुका है. कानून का तो पहले ही जनाजा निकल गया है. इंसानियत किताबों की रौनक बन गई है. एक व्यक्ति और समाज की जिम्मेदारी के तौर पर हम सब का बाजा बज रहा है. हम लोग क्या बन रहे हैं? हम क्या बनाये जा रहे हैं? इन सवालों पर भी सोचने की जरुरत है. क्या हमारे परिवार, परवरिश, पाठ्यपुस्तकों में मौजूद पाठ्यक्रम, स्कूल, कोलेजटीचर, नेता आदि आदि अपनी भूमिका ठीक से नहीं निभा रहे? ऐसा क्या है जो इन्सान को हैवान की शक्ल में ला दे रहा है? ऐसा क्या है जो सोचने का समय भी नहीं दे रहा? ऐसा क्या है जो नैतिक मूल्यों के महत्व को समझने नहीं दे रहा?...कितने ही सवाल हैं जो आँखों की किरकिरी बनने चाहिए पर वे नहीं बन पा रहे. अगर आप इन्सान हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता औरत हैं, आदमी हैं या फिर तीसरा वर्ग, आपको सोचना चाहिए. नहीं सोचेंगे तो बेमौत मारे जाएंगे. यह पतनशील समाज की परिणिति होती है कि यहाँ मौत भी जलील किस्म की होती है. जीना तो जलील होता ही है.

भीड़ ही इंसाफ करने चल देगी तो सोचिये किस तरह की अराजकता फैलने लगेगी. आप गौर करें तो पाएंगे कि भीड़ का चेहरा किस तरह बदल दिया गया है. पहले भीड़ सिर्फ नजारा देखा करती थी. किसी नेता को सुना करती थी. जागरण में जाकर जाप किया करती थी. हादसों की साक्षी बन जाया करती थी. एक नैसर्गिक भीड़ भी बनती थी जो मुद्दा ख़त्म होने पर खुद से गायब हो जाती थी. लेकिन अब भीड़ का चेहरा हिंसा से पुता हुआ है. ऐसा लगता है कि किसी ने उनके कानों में मन्त्र फूंका हो. हिप्नोटाईज़ किया हो...अंत में एक मौत होती है और उस पर राजनितिक बहस शुरू हो जाती है. मुद्दा बनता है. एक माहौल रचा जाता है. इस चक्र को समझिए. उस उन्मादी भीड़ की कल्पना कीजिए जो किसी को बेतरह मार रही है. पीट रही है. जान ले ले रही है...आप काँप जाएंगे! जिस भीड़ से भारत माता की जय का नारा कहलवाया जाता है, वही भीड़ उस औरत में भारत माता नहीं देख पाती. क्या यह हमारे दौर की त्रासदी नहीं है?  

इंच-टेप लेकर चलने वाला समाज जो लड़कियों के कपड़े नापते नहीं थकता वह इस घटना को लेकर क्या सोचता है, यह जानना बड़ा दिलचस्प होगा. गज़ब के चिथड़ेदार लोग हैं यहाँ. कितने तो मुंह सीकर बैठे हुए हैं. लोग तो लोग यहाँ शासन और स्त्री नेता भी चुपचाप बैठी हैं. एक पल को दिमाग में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग जैसे विभाग को लेकर भी आक्रोश आता है. अगर ये लोग कुछ कर नहीं रहे तो इनको मुफ्त की पगार क्यों दी जा रही है? क्या जनता अपनी गाढ़ी कमाई को इसलिए देती है कि बिना काम के ऐश करवाई जाए. पुलिस, शासन, अफसर, नेता, मंत्रालय, मानव अधिकार आयोग, महिला आयोग ये सब ऐसे नाम हैं जिनसे एक जिम्मेदारी की आशा की जाती है. यह भयानक है कि इतनी बड़ी घटना में यह कुछ नहीं कर पाए. इसका मतलब ये विभाग और नेता सब घून लगने के कारण बेकार हो चुके हैं. पिछले दिनों आई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत महिलाओं के लिए एक सुरक्षित जगह नहीं है. उस रिपोर्ट को सिरे से ख़ारिज किया गया. खुद कितनी महिलाओं ने बयान दिए कि वे ऐसा कुछ महसूस नहीं करतीं. इस पर यह सवाल तो उभरता है कि फिर ये सब क्या है? क्या है ये सब? चौतीस बच्चियों का शासन की नाक के नीचे रेप होता है और किसी को पता ही नहीं चलता. क्या यह असुरक्षा का खौफनाक उदाहरण नहीं है? 
 
केरोसिन से छिड़क कर आग लगाता समाज

बिहार की ही एक और घटना में खौफ बैठा है. कल के अख़बार में नालंदा से थी यह खबर. एक महिला से रेप करने में नाकाम रहने के बाद आरोपी ने उस पर केरोसिन छिड़ककर आग लगा दी. अब वह महिला अस्पताल में ज़िन्दगी की जंग लड़ रही है. अभी अभी बिहार शेल्टर होम की घटना हुई है. फिर एक महिला को निर्वस्त्र कर मारा पीटा गया. और अब यह खबर. बात यह नहीं है कि ऐसी घटनाएं सिर्फ और सिर्फ बिहार में ही हो रही हैं. बल्कि देश का कोई कोना महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं है. हमारे संगी पुरुष इस हद तक नारी भक्षक हो रहे हैं कि वे हमारी अस्मत और जान भी खा रहे हैं. ऐसे में एक सवाल स्वतः उभर आता है कि क्या ये लोग सभ्य समाज का हिस्सा बने रहने के काबिल हैं? कानून की किताब में पर्याप्त कानून हैं जिनसे कि इन लोगों को सज़ा दी जा सकती है पर मुद्दा तो यह है कि जो सेहरा पहनकर बैठे हैं वही कातिल हैं. खुद जिम्मेदार लोगों पर ही महिलाओं के यौन शोषण के मामले सामने आ रहे हैं. ऐसे में महिला नेता भी मुंह सीलकर बैठी हैं. वे कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दे रही हैं. यदि उनका मुंह खुल भी रहा है तो बाहर सिर्फ गोबर आ रहा है. जानते हैं न गोबर क्या होता है? यह तो शायद बताना नहीं पड़ेगा!
बच्चे भी सुरक्षित नहीं हैं! 



सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से इस बाबत सवाल किया कि दो लाख बच्चे कहाँ हैं? एक अख़बार की खबर के मुताबिक चाइल्डलाइन के डेटा अनुसार पुरे देश में 4.37 लाख बच्चे शेल्टर होम में रहते हैं. वहीं सरकारी डेटा में यह 2.61 लाख है. इन दोनों आंकड़ों के मुताबिक दो लाख बच्चों का फर्क आ रहा है. ये सभी बच्चे कहाँ गए? यदि एक बच्चा भी गायब है तो यह खतरनाक बात है यहाँ तो संख्या लाखों में है. इस पर भी धीर गंभीर समाज चुप नहीं रह सकता. यह सरकार और प्रशासन की जवाबदेही है कि वह कर क्या रही है? इतना टैक्स का रुपया आता है और उन रुपयों से प्रचार प्रसार में करोड़ों रुपए पानी की तरह सरकारें बहाती रहती हैं. उन्हीं रुपयों का इस्तेमाल हमारे बच्चों की पढ़ाई लिखाई और स्वास्थ्य पर क्यों नहीं हो रहा? इन सवालों को मुझे आपको ही करना है. हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा?

मानव तस्करी किसी से छुपा हुआ जुर्म नहीं है. हर किसी को मालूम है कि यह एक अन्तराष्ट्रीय समस्या है. इस पर हर देश और समाज को साथ आना होगा. ये कौन लोग हैं जो इन्सान की खरीद फरोख्त करते हैं? इनके ऊपर क्यों नहीं कानून का शिकंजा कसा जाता ? साफ़ यह है कि सफ़ेद लिबाज़ में बैठे हुए लोग ही इन अपराधों में शामिल हैं. क्या आप अभी भी हैरान नहीं है कि दो लाख बच्चों का कुछ पता नहीं है. सरकार के लोग कहते हैं कि यह आंकड़ों में कुछ गड़बड़ी है. अगर यह आंकड़ों में गड़बड़ी है तो सुप्रीम कोर्ट में पेश करने से पहले इसे दुरुस्त क्यों नहीं किया गया? इस तरह की गड़बड़ी करने का क्या मतलब बनता है? क्या फैक्ट्री के सामान का मामला है? नहीं! यह इन्सान का मामला है. यहाँ आपको गड़बड़ी करने का कोई अधिकार नहीं है! 

जिस देश में आज भी भुखमरी से मौत हो रही हों वहां के हालातों को गंभीरता से क्यों नहीं लेती सरकारें? पिछले दिनों देश की राजधानी में भीख मांगना अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया. यह सोचकर दुःख और हैरानी साथ साथ होते हैं कि हम किस तरह के जीवन की बात कर रहे हैं? जनता के तौर पर नेता हमें विकास वाले जीवन देने की बात करते हैं. व्यक्तिगत तौर पर हमारे अच्छे जीवन के मायने हम खुद ही अलग मानते हैं. एक देश के रूप में भी अच्छे जीवन की लय अलग मानी जाती है. हम खुद नहीं जानते कि हमारी खुद की असल मांग और मूल्य क्या होने चाहिए. दूसरों की बताई छवि में खुद के आदर्श को खोज रहे हैं हम. हम भटके हुए लोग हैं जिन्हें हिंसा सुकून दे रही है. 

जब किसी को लिंच कर के मार दिया जाता है तब हम खुद को घोंघा बनाते हुए एक शैल में घुस पड़ते हैं. डर जाते हैं. डर की राजनीति फल फूल रही है. जिसके मन में आ रहा है वे गुट बनाकर आते हैं और सरेराह पीटकर जान ले लेते हैं. यह इस समाज की विभत्सता है. आलोचना के लिये लोग तैयार क्यों नहीं हैं? जबकि यह भारत की विशेषता रही है. सुनना हमारा अभ्यास रहा है. हमें एक दुसरे को सुनने से कभी परहेज नहीं रहा है. हम सुनते सुनाते आ रहे हैं. लेकिन अब लोगों की जगह बदमाशों और क़ातिलों की भीड़ हैं. ये हत्यारे हैं. जिनको राजनेताओं का आशीर्वाद प्राप्त है. इन राजनेताओं का काम पूरा हो जाने पर आपको चाय में पड़ी मक्खी की तरह बाहर फेंक दिया जाएगा.
पतनशील समाज के नोट्स अगर बनाये भी जाएं तो वह अलार्म के समान होने चाहिए. अभी भी समय है. जाग जाइये. क्या पता कल बहुत देर हो सकती है! जिन लोगों को लगता है कि किसी एक घर में लगी आग की लपटें आप तक नहीं आएंगी तो यह बहुत बड़ी गलतफहमी होगी. आप भी झुलस जाएंगे. क्या पता जल भी सकते हैं. घर की आग तो बुझाई जा सकती है पर समाज की आग एक बार लग गई तो सब जला कर भी नहीं बुझती. पीढ़ियों का समय लगता है वापस एक ढर्रे पर लौटने में. हम तो वे जख्मी लोग हैं जो जाति के जहर के साथ पैदा होते रहे हैं. हम वे भी लोग हैं जिन्हों ने विभाजन में के दर्द को बलात्कार और मौत में देखा और झेला है. रोज़ ही सीवरों में दम घोंटू मौत का दर्द किसी से छुपा नहीं. बहुत दर्द हैं इस देश में! भारत में जन्म लेते ही ये दर्द नैसर्गिक तौर पर साथ मिलते हैं. 



कुल मिलाकर मेरी परेशानी और सवाल यह है कि शोर हो क्यों नहीं रहा? अच्छा वाला शोर! तीखा शोर! कान के परदे फाड़ देने वाला शोर! चौंका देने वाला शोर! कुर्सियों पर बैठे हुए लोगों के दिलों को दहला देने वाला शोर! कट्टर को डरा देने वाला शोर! नींद को धमका देने वाला शोर! ऊँची इमारतों को उनकी औकात बता देने वाला शोर! दूसरों का हक पी जाने वालों का कॉलर पकड़ लेने वाला शोर! इंडिया गेट की मोमबत्तियों से उपजा शोर! इन्कलाब जिंदाबाद वाला शोर! ये दुनिया को जला देने वाला शोर! कवि पाश वाला शोर! मौत के डर को भी ख़त्म कर देने वाला शोर! विरोध वाला शोर!

मुझे इसी शोर की तलाश है. जिसमें सामूहिक आवाजें हैं. मेरे और तेरे ग़म के किस्से हैं. इसी शोर में वह हौंसला बढ़ाने वाला मरहम है कि मैं शायद तुझे जानता नहीं पर तेरा ग़म ही मेरा ग़म है! 

ज्योति प्रसाद जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं, समसामयिक मुद्दों पर लिखती हैं. 
(आभार, स्त्रीकाल: लेख स्त्रीकाल के लिए लिखा गया है)

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