सोशल मीडिया की ये कैसी आज़ादी कि किसी की मौत हमारे लिए आलोचना का मौका है- प्रत्युष प्रशांत

सोशल मीडिया के मौजूदा तूफानी दौर में जब हम इसके राजनीतिक प्रयोग के काल में जी रहे हैं, उस वक्त हम इसके सामासिक और सामाजिक होने की उम्मीद भी कर रहे हैं। गोया जब नाम ही सोशल है तो उम्मीद गैरवाजिब तो नहीं ही है।



सोशल मीडिया के वर्चुअल स्पेस पर परंपरागर और आधुनिक दोनों ही समाज की मौजूदगी है। परंपरागत समाज अपनी सामाजिक चेतना के क्षीण होने से परेशान है और आधुनिक समाज नई सामाजिक चेतना को गढ़ने के मुहाने पर खड़ा है।
दोनों ही समाज अपनी खंडित चेतना के बाद भी एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। वह मात्र इसलिए क्योंकि तमाम विविधताओं में एकता हमारी समृद्ध पहचान है। परंतु, इस समृद्ध पहचान को सोशल मीडिया के लाइक, शेयर और कमेंट्स की प्रवृति ने मतभेद ही नहीं मनभेद तक में बदल दिया है।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी की मृत्यु पर लोग भावुक हैं और यह स्वाभाविक भी है, इसलिए लोग उनकी गरिमा पर आघात करते हुए कमेंट्स के प्रति संवेदनशील हो रहे हैं। ऐसा किसी भी जननेता या राजनेता के प्रति संवेदना रखने वाले लोगों के साथ हो सकता है।
सोशल मीडिया के मौजूदा दौर में यह समझना अधिक ज़रूरी है कि इतिहास में नायकों, जन नेताओं या राजनेताओं के संदर्भ में यह अकाट्य सत्य है कि किसी एक रेफरेंस प्वाइंट पर वह हीरो नज़र आते हैं तो दूसरे में उसके उलट हो जाते हैं। जिसको इतिहास और इतिहासकार अपने-अपने संदर्भों से व्याख्यायित करते हैं। कोई कितनी भी कोशिश कर ले, किसी भी ऐतिहासिक नायकों या जन नायकों का जो स्थान है उसको बदल नहीं सकता। बहुत कम लोग जानते होंगे कि पूर्व की सरकारें बाबा साहब के व्यक्तिव और उनके योगदान को आज़ादी के कई दशकों तक लोगों से छिपाती रही लेकिन जब वह धूल भरी अभिलेखागारों ने निकले तो और भी निखरे और जनमानस में स्वीकार्य हुए।
सनद रहे, इतिहास के प्रति सबॉल्टन नज़रिये को भी नेपथ्य से निकाल कर ही मंच पर लाया गया है, जो पूर्वाग्रहों के अंधेरे में खोए हुए थे। इतिहासकार पूर्वाग्रह ग्रस्त हो सकता है लेकिन इतिहास नहीं, इसलिए कोई भी नहीं बच सकता, चाहे किसी की कितनी ही इमेज बिल्डिंग गलत तरीकों से की जाए।
जब उत्साही और उन्मादी दोनों ही यूज़र तमाम ऐतिहासिक नायकों को नहीं बख्श रहे हैं तो किसी के देहांत के बाद हम क्या उम्मीद करें कि सोशल मीडिया के इस अराजक मंच पर हमें सांस्कृतिक परंपरानुकूल प्रतिक्रियाएं ही देखने को मिलेंगी।
सोशल मीडिया के राजनीतिकरण के दौर में कोई भी महापुरुष या जननेता इन कसौटियों से मुक्त नहीं हो सकता, बल्कि और अधिक निर्ममता से कसा जाएगा क्योंकि वह इतिहास का अध्याय बन जाता है और इतिहास की निर्ममता तो जग जाहिर है।
इस दौर में तमाम जन नेताओं की मौत के बाद एक के बाद हम इस तरह की प्रतिक्रियाओं को देख रहे हैं। भारतीय परंपरा में मौत के बाद सब कुछ माफ करने का चलन रहा है। सोशल मीडिया पर वर्तमान पीढ़ी ने उसे भी नकार दिया है। आखिर सोशल मीडिया का यूज़र बनने के पहले कोई पात्रता परीक्षा तो होती नहीं है। कुछ टिप्पणी करने में कोई सामाजिक, राजनीतिक या सांस्कृतिक पात्रता भी ज़रूरी नहीं है। जैसा हमारा समाज है जिसमें हम निर्बाध रूप से रहते हैं सोशल मीडिया उनके लिए मुक्त मंच है, हमको यहां पर आई आलोचनाओं या टिप्पणियों को भी उसी तरह लेना सीखना होगा।
सोशल मीडिया पर आसान पहुंच ऐसे महौल का निमार्ण कर रही है और करती रहेगी क्योंकि धीरे-धीरे हम इसके मकड़जाल में फंसते ही जा रहे हैं। ऐसे में इन बातों को नज़रअंदाज करना ही होगा क्योंकि यह चीज़ें हमारे सामाजिक जीवन के ताने-बाने को भी भंग कर रही हैं। खतरनाक बात तो यह है कि इसकी शुरुआत हमारे दौर के कई कद्दावर नेताओं से हुई है। मेरी पेशानी की नसे तनने लगती हैं जब यह सोचता हूं कि आज के विवादित, असम्मानित और आरोपित नेता जब मरेंगे, तो उनके साथ यह पीढ़ी क्या करेगी? क्योंकि अटलजी की शोभायात्रा में स्वामी अग्निवेश के साथ जो कुछ अशोभनीय घटना हुई, शायद अगली परिणति उससे भी ज़्यादा खेदजनक और विरोधाभासी हो। यहीं मौजूदा राजनीतिक और सामाजिक नियति का विधान भी हो शायद।
मौजूदा वक्त में सोशल मीडिया के क्षणजीवी समय में फटाफट स्वयं की मुखर अभिव्यक्ति में कुछ भी नहीं सुनने के आदि होते जा रहे हैं। जो थोड़ी देर ठहर कर सम्यक या सार्थक मूल्यांकन, ना स्वयं के अभिव्यक्ति के बारे में ना दूसरे के अभिव्यक्ति के बारे में करना चाहते हैं। शायद हम अभिव्यक्ति के सबसे खतरनाक दौर में है, जहां अपने संदर्भों के साथ नुक्ताचीनी हमारी आदतों में शुमार होता जा रहा है, जो सामासिक, समाजीकरण के पाठ को हाशिए पर ढकेल रहा है। जबकि भारतीय संदर्भ में विविधता के चंद पन्ने ही अभी तक खुले हैं, अभी तो कितने ही खुलने बाकी हैं।
हमें इससे संभलना होगा क्योंकि सोशल मीडिया पर मतभिन्नता या मतभेद हमारे सामाजिक व्यवहार को ना केवल संचालित कर रहा है बल्कि हम धीरे-धीरे इसकी गिरफ्त में हम किसी ना किसी खेमे का हिस्सा बनते चले जा रहे हैं, जो कई बार वास्तविक रूप में हम है भी नहीं।
मुझे कहने से कोई गुरेज़ नहीं कि सोशल मीडिया की नवप्रवृत्तियों ने देश की अखंडता ही नहीं, समाज की समासिक संस्कृति को भी को लहूलुहान किया है।
हाल के दिनों में, समाज में कम सक्रियता और सोशल मीडिया पर अधिक सक्रियता बढ़ने के बाद इस दलगत स्थिति में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है कि वर्चुअल स्पेस पर अभिव्यक्ति में उत्साह और उन्माद दोनों के साथ शामिल होने लगे हैं और दोनों ही स्थितियों में सही/गलत की अपनी-अपनी व्याख्या, अपनी-अपनी कसौटियां हमारे पास ही नहीं, हर किसी के पास मौजूद है।
अपनी-अपनी कसौटियों के तयशुदा सांचे में या कभी अपनी मौज में आकर कभी किसी शख्सियत के लिए गैरज़िम्मेदार हो रहे हैं तो किसी के लिए अमानवीय वक्तव्य दे रहे हैं या जो भीतरी कुंठा है उसपर भद्दे जोक्स और मीम भी शेयर कर रहे हैं। कभी किसी भजन मंडली से भींड़ रहे हैं तो किसी को उस भजन मंडली का बता कर उसका मखौल भी बना रहे हैं।
(आभार: यूथ की आवाज़, लेख मूल रूप से यूथ की आवाज़ के लिए लिखा गया है)

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