जेएनयू अरावली के पहाड़ियों चंद इंट पत्थर से खड़ी हुई बिल्डिग नहीं है- -प्रत्युष प्रशांत


जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) मेरे लिए सिर्फ़ एक यूनिवर्सिटी नहीं है, अरावली के पहाड़ियों पर स्थित इस जगह ने मुझे अपने उस देश का एहसास कराया, जो विविधताओं से भरा हुआ है और इसी विविधताओं के कारण हर विषय पर हर किसी की राय सांस्कृतिक, भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और वर्गीय आधार पर अलग-अलग है। इतनी सारी विविधताओं के बीच कभी-कभी वाद-विवाद और बहसों में स्थिति तीखी बहस, नोक-झोक तक तो आती थी, पर वह कभी हिंसा लात-जूतों में नहीं बदलती थी, वहाँ एक-दूसरों पर लाठी-डंडे नहीं बरसते थे, न ही वहाँ कभी एक-दूसरे को देख लेने की बात नहीं कहीं गई. गोया, तीखे नोख-जोख ने फिर से लाईब्रेरी जाने को मज़बूर ज़रूर किया ताकि मैं अपने फैक्ट को चेक कर सकूं और खुद को सही सिद्ध कर सकूं।



परसों छात्रसंघ के चुनाव के मतगणना के समय और चुनाव के मतगणना के बाद देर रात छात्रों के साथ हाथा-पाई की घटना ने मन को दुखी कर दिया। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में आठ साल गुजारे है, इसलिए मेरे यह कहने का आधार मजबूत है कि जेएनयू की परंपरा और यहाँ के डीएनए ने प्रतिरोध की जमीन को हमेशा से उर्वरता प्रदान की है। ये हो सकता है कि गुजरे जमाने से अब तक के सफ़र में जेएनयू का चरित्र बदला हो, पर हर बदलाव के दौर में भी बहस-मुबाहसों के मौसम में वह बदलाव नहीं आ सका, जो जेएनयू को विचारधारा की राजनीति में लाठी-डंडे या चाकू-पिस्तौल में यकीन करने लगे।
हर राजनीति के दौर में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के छात्र पढाई के साथ-साथ राजनीति के लिए हमेशा से चर्चा के केंद्र में रहते रहे है। ख़ासकर यहाँ के छात्रसंघ के चुनाव का संचालन और प्रबंधन जो खुद यहाँ के छात्र समुदाय ही करते है, जो देश के छात्र राजनीति के लिए मिसाल है। जब देशभर में छात्र राजनीति के नाम गुंडागर्दी होती थी जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) छात्र राजनीति विचारों को भांजने का अखाड़ा बना रहा पर नौबत मार-पीट तक नहीं पहुंची।
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के छात्रसंघ के चुनाव यहाँ के क्लासरूम में विविधतापूर्ण बहसें और देश का अव्वल संस्थान होना आज अगर एक सच है, तो दूसरा सच यह भी है कि जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) को मौजूदा सरकार ने दुश्मन के किले के रूप में तब्दील कर दिया है, जिसपर कब्जे की तैयारी में जो भी हमले हो रहे है, उसने जेएनयू की छवि पर कालिख पोतने का काम किया है। तथाकथित राष्ट्रवादी बहसों ने जेएनयू को देशद्रोहियों का अड्डा घोषित करके की कोशिश ही नहीं की, टुकड़े-टुकड़े गैंग का वह जुमला भी उछाल दिया जिसको आज तक 900 दिनों के बाद भी पुलिस सिद्ध नहीं कर पाई है न ही आरोपियों पर चार्जशीट दायर कर पाई है।
वास्तव में सारा मामला विचारधारा का है, उस विचारधारा को जो प्रतिरोध के आग में तपकर और मजबूत होती गई राजनीतिक रूप में वामपंथ राजनीति ज़रूर घुटने टेकती रही परंतु बौद्धिक और सासंकृतिक मोर्चे पर डटे रहकर अपनी तमाम कामयाबी और नाकामयाबी के बावजूद जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) वामपंथ का गढ़ बनती चली गई. वामपंथ का यह गढ़ मौजूदा सरकार ही नहीं इडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया के दौर में भी सरकार के आंखों में खटकी थी। वामपंथ राजनीति का असर अस्सी के दशक में कम होने लगा, पूंजी की गतिशीलता को देश ने अपना लिया पर इस बौद्धिक संस्थान पर वामपंथ की कमजोर नहीं हुई वह पहले की तरह ही जमी रही, गोया जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में कोला और नेसकैफे अभी भी नहीं पहुंच सकी। भले ही कांग्रेस कमजोर हो गई और आरएसएस मजबूत होता गया।




महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि मौजूदा दौर में जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) सरकार से नहीं एक विचारधारा से लड़ रहा है उस विचारधारा से जो देश को चाभी वाले खिलौने में बदलना चाहती है, चाभी घुमाई और खिलौना डमरू बजाने लगे। भले ही तथाकथित लोकतंत्र के दुहाई देने वाले संस्थान घुटने टेक चुके है पर बौद्धिक वर्ग पूरी तरह से डटे हुए है, इसलिए जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) अगर टुकड़े-टुकड़े गैग है तो बौद्धिक वर्ग अर्बन नक्सल। आएएसएस जानता है कि वैचारिक वर्चस्व के लिए वामपंथ की राजनीतिक ही नहीं सामाजिक, सास्कृतिक और बौद्धिक हार ज़रूरी है और उसके लिए उसके सबसे बड़े किले को ध्वस्त करना ज़रूरी है जैसे एक समय में नालंदा विश्वविधालय को तहस-नहस किया गया और जलाया गया।
मुझे याद है जब यूपीए के दूसरे कार्यकाल के समय जब मैं जेएनयू आया था जिसके लिए मैं 12वीं पास करने के बाद लगातार कोशिश करता रहा, तब मेरे लिए यह स्वर्ग के तरह था, मेर जैसे छोटे शहर के लड़के के लिए जेएनयू में एडमिशन पा लेना और उन शिक्षकों के क्लास में खड़े होकर सवाल पूछना जिनकी किताबें स्कूल और कांलेज के दिनों में पढ़ता था एक सपना सच होने जैसा था। जो मुझे बार-बार यह विश्वास दिलाता था कि अगर प्रतिभा तुम्हारे अंदर है तो सारा आकाश तुम्हारा है। जेएनयू ने सिखाया कि सवाल पूछने का हक मेरा भी है अपने यथार्थ के अनुभव और अध्ययन से जुटाये तथ्यों से आप बड़ी-से-बड़ी बात को काट सकते है और नई बात सबों के सामने रख सकते है। साथ ही मेरा यह विश्वास भी पक्का होता चला गया कि लोकतंत्र में बहसे और सवाल होने ही चाहिए क्योंकि लोकतंत्र सवालों से ही मजबूत होता है। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) पर हो रहे लगातार हो रहे हमले सवाल पूछने के इस परंपरा को जमीनदोख करने की कोशिश है।

व्यक्तिगत रूप से मैं खुद को वामपंथी नहीं मानता हूँ, पर जेएनयू का होने के कारण हमेशा लेफ़्टिस्ट कहा जाता है, क्योंकि मैं सवाल पूछता हूँ। पर मैं यह कहने में संकोच नहीं करूंगा कि जेएनयू में वामपंथ और प्रतिरोध की आवाजें होने के कारण ही यह इस मूल्क का सबसे बेहतरीन यूनिवर्सिटी बना है, जिसे केवल वामपंथियों ने नहीं प्रतिरोध की हर आवाज ने अपने पसीने से सीचा है।

छात्रसंघ के चुनाव में अपनी हार के बाद आरएसएस के छात्र संगठन अखिल भारतीय विधार्थी परिषद ने जो हंगामा बरपा किया है, उससे यह तो तय है कि वह छात्रों के समर्थन से जीत नहीं सकते है तो संस्थान को बदनाम तो कर ही सकते है। थोड़ी देर के लिए मैं जेएनयू की बदनामी सह भी लूं लेकिन उन युवा उम्मीदों के तरफ किस तरह देखूं जो जेएनयू का फार्म निकलते समय मुझसे सवाल करते है जेएनयू में एडमिशन के लिए क्या पढ़ना होता है और तैयारी कैसी होती है? मैं उस आंटो वाले को क्या जवाब दूं जो जेएनयू पर लगाए गए देशद्रोही के तगमों के बाद भी अपनी बेटी को यहाँ पढ़वाना चाहता है और पूछता है क्या यहाँ एडमिशन के बाद बहुत खर्चा आता है या परीक्षा अंग्रजी में ही लिखनी होती है? उनको भी यह एहसास है जेएनयू अरावली के पहाड़ियों चंद इंट पत्थर से खड़ी हुई बिल्डिग नहीं है यह आम लोगों के लिए उच्च शिक्षा के साथ बेहतर शिक्षा की उम्मीद है।

जाहिर है आरएसएस के छात्र संगठन अखिल भारतीय विधार्थी परिषद के पास इन सवालों का जवाब नहीं होगा क्योंकि इनलोगों ने बीएचयू की लड़कियों को लंका के गेट पर अपनी सुरक्षा के लिए धरने पर बैठने के लिए मजबूर कर दिया उनके साथ हिंसा ही नहीं की उनको बदनाम भी कर दिया।

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