क्या महिलाएं सिर्फ महिला होने की वजह से ही सम्मान की अधिकारी हो सकती हैं?--अंजलि मिश्रा

तमाम विषयों पर या किन्हीं खास परिस्थितियों में महिलाएं क्या सोचती हैं

क्या महिलाएं सिर्फ महिला होने की वजह से ही सम्मान की अधिकारी हो सकती हैं?
मनीषा यादव
सवाल-जवाबों की वेबसाइट कोरा डॉट कॉम पर महिलाओं से जुड़ा एक सवाल कुछ इस तरह से पूछा गया है - ‘मुझे महिलाओं की या ऐसे किसी भी व्यक्ति की इज्जत क्यों करनी चाहिए, जिसे मैं नहीं जानता हूं. अगर मैं सबके साथ बराबरी का रवैया अपनाता हूं तो उसमें क्या बुराई है. फिर मुझे महिलाओं को कोई खास दर्जा देने की जरूरत क्यों है?’
यह सवाल उस सीख के सामने वाजिब लगता है जिसमें बताया जाता है कि महिला-पुरुष बराबर होते हैं. इसके अलावा अगर बाकी मामलों में महिलाओं की मांग होती है कि उनके साथ बराबरी का व्यवहार किया जाना चाहिए तो फिर सिर्फ महिला होने की वजह से सम्मान पाने की उनकी मांग कैसे सही ठहराई जा सकती है! किसी को भी उसके लिंग के आधार पर विशेष दर्जा देना या उसके साथ खास तरह का बर्ताव करना बराबरी के मूल सिद्धांत के खिलाफ ही लगता है.

क्या महिलाओं का सम्मान सिर्फ इसलिए किया जाना चाहिए कि वे महिलाएं हैं, इस सवाल का जवाब कई महिलाएं ना में देती हैं. दिल्ली में रहने वाली और एक अंतर्राष्ट्रीय एड एजेंसी में काम करने वाली कोमल मीना कहती हैं, ‘एक समय था जब इसकी जरूरत थी, अब भी कई जगहों पर है. लेकिन अगर हम दिल्ली की बात करें तो यहां महिलाएं सिर्फ थोड़ी सी असुविधा से बचने के लिए कुछ प्रिविलेजेज चाहती हैं और इन्हें ही वे महिलाओं का सम्मान करना बताती हैं. उनका ऐसा करना औरतों की बराबरी की लड़ाई को कमजोर कर देता है. हमें बस ये ध्यान रखना चाहिए कि असल मकसद बराबरी है, विशेष दर्जा पाना नहीं.’
एनआईटी जमशेदपुर से मास्टर्स कर रही मनु वागले भी ऐसा ही कुछ मानती हैं. वागले बहुत जोश के साथ कहती हैं, ‘नारी देवी होती है या पूजनीय होती है, ये सब बकवास बातें हैं. अगर कोई महिला कुछ अच्छा काम करती है तो मैं उसे सरस्वती-दुर्गा मानूंगी. नहीं तो बिन कुछ किए, फोकट में सम्मान चाहने वाली महिलाओं के लिए मेरे पास पूतना-ताड़का जैसे ही शब्द हैं. रेस्पेक्ट उसे ही मिलनी चाहिए जो डिजर्विंग है.’
मनु अपने कुछ अनुभव बांटते हुए बताती हैं, ‘यहां एनआईटी में हमारे कुछ सीनियर्स कहते हैं कि हमारी इज्जत करो हम बड़े हैं तो क्या हम सिर्फ उम्र ज्यादा होने के कारण उनकी इज्जत करेंगे? नहीं. जब तक तुमने इज्जत करने लायक कोई काम नहीं किया तुम्हें इज्जत कैसे मिलेगी. मुझे लगता है कि कोई दूसरी महिला हो या मैं खुद होऊं, सिर्फ लड़की होने के चलते इज्जत की हकदार नहीं है.’
यहां पर यह कहा जा सकता है कि किसी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली और किसी राष्ट्रीय संस्थान में पढ़ने वाली लड़की के लिए ऐसी बातें कहना आसान है. उनके सामने रोजमर्रा के उतने और वैसे संघर्ष नहीं होते हैं. या एक तरह का बढ़ावा और बराबरी मिलने के बाद ही वे वहां पर पहुंची हैं. लेकिन इस तरह के लोग ही ऐसा सोचते हैं ऐसा भी नहीं है. भोपाल की वंदना सागर जो एक समाजसेवी और सिंगल मदर हैं, बताती हैं, ‘महिलाएं हों या पुरुष दोनों को ही सम्मान देने की और कई बार समझे जाने की जरूरत होती है. एक को सम्मान देना दूसरे को अपमानित करने जैसा नहीं होना चाहिए. जैसे मान लीजिए अगर किसी ने आपको बस में धक्का दे दिया और आपको उसके इरादे गलत लगे तो आपने उसे, महिलाओं से कैसे पेश आना चाहिए, वाला पाठ पढ़ा दिया. मैं ये मानती हूं कि कई बार हमारे साथ गलत होता है लेकिन कई बार परिस्थितियां भी गलत होती हैं. हमें बराबरी चाहिए तो अपने आंख-कान भी खुले रखने चाहिए. मुफ्त का सम्मान मांगना आपको हंसी का पात्र बनाता है.’
राजस्थान के कोटा शहर की शकुंतला शर्मा बताती हैं कि हाल ही में उन्होंने अपना चौंसठवां जन्मदिन मनाया है. करीब साढ़े चार दशक से अपनी गृहस्थी संभाल रही शकुंतला महिलाओं के सम्मान से जुड़े हमारे सवाल सुनकर हंसते हुए कहती हैं, ‘हमारे जमाने में तो हम ही इज्जत हुआ करतीं थीं, ये और बात है कि इस इज्जत से छेड़छाड़ भी बहुत होती थी. लेकिन अब के वक्त को देखूं तो मैं नहीं सोचती कि मैं औरत हूं या मैं बूढ़ी हूं सिर्फ इसलिए कोई मेरी इज्जत करे. घर वालों से जरूर इस बात की उम्मीद होती है कि वे मेरे काम की कदर करें, जो वो करते भी हैं. बस बाकी कोई मुझे तकलीफ ना दे, इतना एहसान बहुत है.’
कुछ और बातों के बाद शकुंतला एक बेहद काम की बात कहती हैं, ‘लड़कियों को और सबको ही सम्मान से पहले स्वाभिमान की बात करनी चाहिए. हम अपने जमाने में किसी की एक पैसे की चीज नहीं खाते थे और अब लड़कियां सम्मान-सम्मान चिल्लाती हैं जबकि उनका पूरा खर्चा उनके बॉयफ्रेंड उठाते हैं. ये तो सिस्टम ही गलत हुआ न. लड़कियों को पहले खुद ही, खुद को सम्मान देना चाहिए.’
लेकिन एक तबका ऐसा भी है जो महिलाओं के साथ थोड़े अलग बर्ताव की जरूरत महसूस करता है. सत्याग्रह में हमारी सहयोगी गायत्री आर्य कहती हैं, ‘ज्यादा देने की बात ही तब आती है जब सामने वाले के पास कोई चीज कम हो. लड़कियों को सम्मान देने की बात असल में उन्हें इंसान का बुनियादी हक देने से निकली है. ऐसा कहने के पीछे बुनियादी सोच ये थी कि महिलाओं को सेक्स टॉय या बच्चा पैदा करने की मशीन से ज्यादा भी समझा जाए.’
लेकिन गायत्री इस बात पर अफसोस जताती हैं कि वे लड़कियां जिनके पास काफी हद तक बराबरी के मौके मौजूद हैं, उनमें से कइयों ने बस-मेट्रो में सीट के लिए झगड़े को ही अपने हक की लड़ाई मान लिया है. वे मानती हैं कि सभी महिलाओं को सिर्फ महिला होने के लिए तो नहीं लेकिन सभी मांओं को सिर्फ मां होने के लिए सम्मान दिया जा सकता है. वे कहती हैं कि ‘एक बच्चे को जीवन देना-बनाना दुनिया के सबसे मुश्किल कामों में से एक है और ये एक बार शुरू होकर सालों के लिए चौबीसों घंटे चलने वाला काम है.’
झांसी में रहने वाली पत्रकार मेधाविनी मोहन भी महिलाओं को सम्मान दिए जाने की बात पर सहमत नजर आती हैं. वे कहती हैं कि ‘महिलाओं को सम्मान देना या वीमेंस डे मनाना है, जैसी बातें शायद इसीलिए हैं कि महिलाओं को कभी बतौर इंसान सम्मान नहीं मिला है. जहां तक मेरा मानना है कि कुछ मामलों में महिलाओं को विशेष सुविधा देने की जरूरत पड़ती ही है. जैसे आप उन्हें देर रात कहीं आने-जाने को नहीं कह सकते क्योंकि हम अब तक उनके लिए वो सुरक्षित माहौल नहीं बना पाए हैं. इसकी भरपाई आप उनके प्रति थोड़े विनम्र होकर कर सकते हैं.’
यहां पर मेधाविनी सम्मान मिलने की पक्षधर होते हुए भी गायत्री से थोड़ी असहमत नजर आती हैं. वे कहती हैं, ‘लेकिन सिर्फ यह कहना कि महिलाएं दुनिया चलाती हैं, बच्चे पैदा करती हैं, इसलिए उनको ज्यादा सम्मान मिलना चाहिए, सही नहीं है. मुझे लगता है ये सिर्फ बच्चों को समझाने का तरीका है.’ मेधाविनी का कहना भी सही लगता है, हो सकता है कि शुरू में यह सीख बच्चों, खासकर लड़कों, को लैंगिक भेदभाव से दूर रहने के लिए सिखाई जाती हो. लेकिन यह भी उतना ही सही लगता है कि इस मसले को पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं ने भी बस ऊपर ही ऊपर से जाना-समझा है. शायद इसीलिए अक्सर लड़कियां छोटी-मोटी बात पर भी ‘लड़कियो की रिस्पेक्ट करना नहीं आता क्या’ जैसी लाइनें कहती सुनी जा सकती हैं.
कुल मिलाकर, महिलाओं को सम्मान देना, एक गलत तरीके से समझा गया विषय है. इस सम्मान की मांग उन्हें बराबरी पर लाने के लिए की गई थी जो अब ज्यादातर मामलों में सिर्फ फायदे या दिखावे तक ही सिमटकर रह गई है. पुरुषों को जहां यह समझने की जरूरत है कि महिलाओं का सम्मान करने का मतलब है कि बतौर मनुष्य उनका सम्मान किया जाना, वहीं महिलाओं को यह जानने की दरकार है कि जहां पर उचित बराबरी की बात न हो वहां सम्मान के नाम पर अतिरिक्त सुविधा मांगना गलत है. हम महिलाएं चाहती हैं कि हमारी उपलब्धियों को हमारे लड़की होने से जोड़कर देखने के बजाय हमारी मेहनत से जोड़कर देखा जाए और लगे तो उसका सम्मान किया जाए. बस.
(आभार, satyagrah.scroll.in/ , लेख मूल रूप से satyagrah.scroll. के लिए लिखा गया है।)

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