उम्मीद जगाता हैं, जेएनयू छात्र संघ चुनाव में LGBTQI चेहरा- प्रत्युष प्रशांत


देश की राजनीति को युवाओं की छात्र राजनीति हमेशा से ही प्रतिरोध की जमीन को उस समय उर्वरता प्रदान की है, जब संसदीय राजनीति आवारा होने लगी। भारतीय राजनीति में छात्र राजनीति के चेहरों अपने संघर्षों से नई दिशा देने का काम किया। मौजूदा समय में भी कमोबेश हर राजनीतिक दल के कई प्रमुख राजनीति चेहरे छात्र राजनीति के ही देन रहे है।
छात्र राजनीति हर दौर में दिल्ली का JNU पढ़ाई के साथ-साथ छात्र राजनीति के लिए हमेशा से चर्चा के केंद्र में रहा है। जब देशभर में छात्र राजनीति के नाम पर केवल गुंडागर्दी होती थी JNU के छात्र राजनीति विचारों को भांजने का अखाड़ा बना, पर राजनीतिक लड़ाइयाँ वैचारिक रहीं, मार-पीट, हाथापाई तक नहीं पहुंचीं, यहाँ तक कि छात्र राजनीति का संचालन और प्रबंधन भी छात्र समुदाय ही करता है।
JNU में हमेशा से विचारों के साथ खिलवाड़ करने की अदभुद परंपरा रही है जो यहाँ की छात्र राजनीति को अलहदा बनाती है। जो विचार और चालचलन साधारणत: समाज में छुपा लिए जाते हैं, यहा आसानी से अभिव्यक्ति पाते रहते है। जब पूरे देश में शैक्षणिक कैंपस में सिगरेट पीने पर प्रतिबंध लगा तो यहाँ ही सिगरेट पीने की परंपरा निर्बाध चलती रही। जब देश महिलाओं के लिए सामाजिक न्याय की बहस को निरर्थक बहस कह रहा था लिंगदोह सिफारिश के बाद के हर छात्रसंघ के चुनाव में JNU ने महिला उम्मीदवारों को मंच ही नहीं प्रदान किया, परिसर में स्वछंद रहने और काम करने की आज़ादी भी कायम रखी।
यही वज़ह है कि जब पूरे देश में समलैंगिकता और धारा-377 को लेकर तर्कों-कुतर्कों का दौर गर्म है JNU कैपस उन बिरले परिसरों में है जहाँ इसके बारे में लोगों के बीच कोई समान्य बहस नहीं है। गोया, इस बार के छात्र संघ के चुनाव में JNU ने LGBTQ  समुदाय के स्नेहाशीष को काउंसलर पद का उम्मीदवार बना कर इस समुदाय के समस्याओं को JNU कैंपस के केंद्र में लाने की कोशिश की है। यह इसलिए और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि देश या समाज ही नहीं, देश के शिक्षण संस्थान भी LGBTQ समुदाय के समस्याओं से रू-बरू होना ज़रूरी है और JNU के छात्र राजनीति ने इसकी शुरूआत करने की कोशिश तो की ही है।
अफ़सोस यह है, खुद को लोकतांत्रिक बताने वाली मुख्यधारा की मीडिया ने इस ख़बर को मुख्य ख़बर बनाना ज़रूरी तक नहीं समझा। भविष्य में LGBTQ  समुदाय के लोगों की मीडिया में सहभागिता शायद नई तस्वीर पेश कर सके.
JNU कैपस में 2014 में अस्तित्व में आई बापसा यानी बिरसा अंबेडकर फुले स्टूडेंट एसोसिएशन 2015 में चुनाव में पहली बार उतरी थी। इसबार बापसा की तरफ से SSS (स्कूल फांर सोशल साइंस) में स्नेहाशीष दास काउंसलर के लिए उम्मीदवार है। JNU से स्नेहाशीष समाजशास्त्र में मास्टर्स की पढाई कर रहे हैं। उड़ीसा के पुरी से आई स्नेहाशीष दास पिछड़ा समुदाय से है खुद को क्वीर कहलाना पसंद करती है। बचपन से ही खुद को दूसरों से अलग महसूस किया उनका लगाव मेकअप और साड़ी पहनने के तरफ अधिक होता था। पर किसी को अपनी पसंद-नापसंद बताते में मुश्किल महसूस होता था। स्नेहाशीष JNU आकर खुश है क्योंकि यहीं उन्होंने खुद के अस्तित्व और अपने पसंद को स्वीकार किया और JNU में लोगों ने भी उनको स्वीकार किया। सप्रीम कोर्ट से धारा 377 की कानूनी वैध्यता के फैसले से वह खुश है। इस फैसले से यह समझाना आसान होगा कि LGBTQ समुदाय का होना गुनाह नहीं है।
स्नेहाशीष जब अपनी समस्याओं को डर के साथ जोड़ते हुए बताते है कि टांयलेट और जातिय भेदभाव का डर उनको हमेशा परेशान करता है। उनके अनुसार टांयलेट एक ऐसी जगह है जहाँ उन्हें सबसे ज़्यादा शर्मिदगी होती है, डर लगता है कि मेरे साथ वहाँ ग़लत हो जाए. स्नेहाशीष की समस्या और उससे जुड़ा हुआ डर बताता है कि देश और समाज को इस दिशा में कितना लंबा सफ़र तय करना है अभी तो पहला ही कदम न्यायपालिका ने बढ़ाया है, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका को बड़े फैसले लेने होगे, साथ ही साथ समाज को भी मानवीय आधार विकसित करना होगा।
चुनाव में कैंपेनिंग के दौरान सभी पार्टी के उम्मीदवारों के अलग-अलग वादे हैं, स्नेहाशीष के वादे सबों से अलग है, वह LGBTQ समुदाय के सहज महौल देने के विषय पर काम करना चाह रहे है। स्नेहाशीष उस रूढ़िवादी महौल को तोड़ना चाह रहे है जो केवल महिला-पुरुषों के लिए बात करते हैं, जो थर्ड जेंडर के है उनके लिए बाथरूम-हास्टल की सुविधा जिसमें उनकी मूलभूत सुविधा मिल सके जैसे सवालों के साथ काम करना चाहते है।
जाहिर है, यह JNU कैपस के लिए भी एक नई शुरूआत है, पर खुशी इस बात कि है JNU कैपस की छात्र राजनीति ने इसकी शुरूआत तो कर दी है, यही शुरूआत आने वाले दिनों में JNU कैपस में LGBTQ समुदाय के लिए आज़ाद महौल की इबारत भी लिखेगा।

टिप्पणियाँ