मौलाना आज़ाद ने खुद ‘आज़ाद’ नाम रखकर ज़ाहिर किया वो रूढ़िवादी परंपरा के गुलाम नहीं-प्रत्युष प्रशांत















आज ही के दिन में मक्का शहर में पैदा हुए, मौलान अबुल कलाम आज़ाद अपने आज़ाद और अलहंदा ख्याल पसंद के कारण पिता मौलाना सैयद मुहम्मद ख़ैरुद्दीन बिन अहमद के पुकारू नाम फ़िरोज़ बख़्त के नाम के साये में कैद होकर नहीं रहे। अपने पिता से शुरूआती धार्मिक तालीम लेने के बाद आज़ाद मिश्र की शिक्षा संस्थान जामिया अज़हर से प्राच्य शिक्षा की तालीम हासिल की।15 साल के उम्र में अपने मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ख्याली पसंद के कारण मौलाना ने 'आज़ाद' नाम रखकर यह जाहिर कर दिया कि उनको परंपरा में जो विश्वास, मान्यताएं तथा मूल्य मिले थे, वे अब उनसे बंधे हुए नहीं रहे हैं। यही कारण था कि उन्होंने अपने पिता की तरह पीरी-मुरीदी का सिलसिला जारी रखने से परहेज किया। पिता के तमाम बंदिशों के बाद भी उन्होंने अंग्रेजी तालीम भी हासिल की वो भी बाइबिल के अंग्रेजी से उर्दू अनुवाद पढ़कर सीखा।
मौलाना आधुनिक शिक्षा के सर सैयद के विचारों से सहमत थे परंतु, सियासत के उनके विचारों से अलहदा रहे। उनका मानना था कि हिंदू-मुस्लिम के साथ मिलकर आजादी के लिए संघर्ष करना चाहिए। इसीतरह मौलाना आधुनिक शिक्षा को सबों के जरूरी मानते है। मौलाना आज़ाद लिखते हैं- 'मजहब इंसान को उसकी खानदानी विरासत के साथ मिलता है। मुझे भी मिला परंतु मैं परंपरागत विश्वास की विरासत पर कायम न रह सका। मेरी प्यास उससे कहीं ज्यादा निकली जितनी वह प्यास बुझा सकते थे। लिहाजा मुझे पुरानी राहों से निकलकर नई राहें ढूंढनी पड़ीं। मजहब की सार्वभौमिकता ने मुझे हैरानी, हैरानगी से शक तक तथा शक से इंकार तक पहुंचा दिया। फिर इसके बाद मजहब और इल्म के बाहरी आडंबर प्रकट हुए तो उनसे मैंने रहा-सहा विश्वास ही खो दिया।' उनके आज़ाद ख़्याल उनके अख़बार “अल हिलाल” और “अल बलाग़” में दिखता है जो अपने समया का पहला सचित्र राजनैतिक साप्ताहिक था। जाहिर है कि मौलाना एक उम्दा पत्रकार भी थे।
निजी तौर पर मौलाना आजाद़ को जानते-समझते समय उनकी दो-तीन बातें मुझे उनके काफी करीब ले जाती है और उनका मुरीद हुए बिना नहीं रहने देती है।
पहला, वो ऐतिहासिक भाषण जो उन्होंने जामा मस्जिद के चबूतरे से भारत-पाकिस्तान के बंटवारे पर दी थी, जो बंटवारे के खिलाफ थे और उनके भाषण ने लाखों लोग जो पाकिस्तान कूच कर रहे थे वह उनका भाषण सुनकर रुक गए और यही पर सुकून से रहना पसंद किया। वहीं मौलाना आजाद हिंदुस्तान के अंदर हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्ष में थे।
जाहिर है कि मौलाना आज़ाद बंटवारे के नाजुक दौर में भी हिंदू-मुस्लिम कौमी एकता के पैरोकार बनकर सामने आते है और उसकी खुदमुख्तारी भी करते है। जिस दौर में राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक पहचान को धर्म के साथ जोड़कर देखा जा रहा था, उस समय मौलाना आज़ाद उस राष्ट्र की परिकल्पना कर रहे थे जहां धर्म, जाति, सम्प्रदाय और लिंग किसी के अधिकारों के आड़े न आने पाए।
दूसरा, उनकी चाय-नौशी का शौक, जो बेहद निराला था। चाय हम लोग रोज ही पीते है,दोस्तों के महफिलों और घर-परिवार के लोगों के साथ पीते है। मौलाना साहब को चाय से ईश्क सा था, उन्होंने अपने चाय-नोशी के बारे में लिखा है कि - आपको मालूम है कि मैं चाय के लिए रूसी फिंजान को काम में लाता हूं। ये चाय की मामूली प्यालियां से बहुत छोटे होते हैं। अगर बे-जौंक के साथ पी जाए तो दो घूंट में ख़त्म हो जाए। मैं ठहर-ठहर कर पियूंगा और छोटे-छोटे घूंट लूंगा। फिर जब पहला फिंजान ख़त्म हो जाएगा तो कुछ देर के लिए रुक जाऊंगा। इस दरमयानी मुद्दत को इम्तादाद-ए-कैफ़(आनंद) की लिए जितना तूल दे सकता हूं, तूल दूंगा। फिर दूसरे और तीसरे के लिए हाथ बढ़ाऊंगा। दुनिया को और इसके सारे सूद ज़ियां(नफा-नुक़सान) को यकक़लम(बिल्कुल) फ़रामोश कर दूंगा। उनकी चाय-नौशी का शौंक आम चाय खौरों से अलग किस्म की थी, जो चाय हम लोग रोज पीते और पिलाते हैं इसको मौलाना आजाद़ चाय नहीं मानते थे।
वो बताते है कि “मैं चाय को चाय के लिए पीता हूं, लोग शकर और दूध के लिए पीते हैं। लोग चाय की जगह एक स्याल(द्र्व) हलवा बनाते हैं और खाने की जगह पीते हैं, और ख़ुश होते हैं कि हमने चाय पी ली। इन नादानों को कौन कहें हाय कम्बख़्त तू ने पी ही नहीं।”
तीसरा, उन्होंने आजादी के बाद किसी ओहदे को लेने से इंकार कर दिया। परंतु, गांधीजी के कहने पर देश के पहले शिक्षा मंत्री का पद स्वीकार किया, इसलिए उनके जन्मदिन के दिन शिक्षा दिवस के रूप में मनाजा जाता है। शिक्षा मंत्री के रूप में उनकी भूमिका अलग तरह की दिखती है।
आज विश्विद्यालय अनुदान आयोग और दूसरे तकनीकी, अनुसंधात्मक और सांस्कृतिक संस्थाएं उन्हीं की देन हैं। मौलाना आज़ाद अपने शिक्षा नीति के जरिए ऐसे आर्दश कि संरचना करना चाह रहे थे, जो कि नागरिकता से थोड़ा ऊपर हो, जो मनुष्यता के नाते सोचना सिखाये और जो नागरिकता के जरिए बनने वाले राष्ट्र-राज्यों के बंधनों में भी हमारे संवेदना को जीवित रखे, उन्होंने इंसान में तमाम खूबियों से तालीम को जोड़ने की कोशिश की।
आज कि स्थिति में हम मौलान अबुल कलाम आज़ाद के विचार और शिक्षा नीति को नाकाफी इंतजाम मान सकते है। पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज़ाद भारत में वो मौलान अबुल कलाम आज़ाद ही थे जिन्होंने एक खुदमुख्तार मुल्क के नौजवानों को देश का नया इतिहास बनाने का जोश भरा, जिसके रास्ते पर चलकर हम आज यहां तक का सफ़र तय कर सके है।




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