सम्मान के साथ मेहनत को मान्यता मिले-प्रत्युष प्रशांत

अक्सर साईबर स्पेस पर एक स्लोगन लोग शेयर करते है, कभी-कभी मैं ने भी किया है “जिस दिन महिला अपने कामों का बहीखाता खोलेगी, समाज दिवालिया हो जायेगा। कुछ दिनों पहले मानुषी छिल्लर ने मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता के सवाल के जवाब में, वही विषय उठाया है, जिसने उनको हर दिल अजीज बना दिया है, जिसमें उन्होने कहा मेरा मानना है कि मां को सबसे ज्यादा सम्मान मिलना चाहिए। जब हम वेतन की बात करते हैं तो यह सिर्फ नगद नहीं होता हैजो कि हम किसी को देते हैं। मेरी मां हमेशा मेरी सबसे बड़ी प्रेरणा रही हैं। मांएं अपने बच्चों के लिए बहुत बलिदान करती हैं। इसलिए मां को सबसे ज्यादा सैलरी और सबसे ज्यादा प्यार और सम्मान मिलना चाहिए।
मानुषी के जबाव में भी केवल विवाहित महिलाएं ही शामिल दिखती है। सनद रहे महिलाओं की अपनी एक वर्गीकृत श्रेणी नहीं है, महिलाओं में भी वर्गीय विभाजन है, जिसको सिर्फ स्त्री-पुरुष वर्ग में विभाजित मानकर स्वीकार कर लिया जाता है। व्यक्तिगत रूप से मानुषी का यह जवाब इसलिए विशेष है क्योंकि राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मंचो पर घरेलू महिला के मेहनत ताने की बात छेड़ दी है। इस बात से कोई गुरेज नहीं है कि भारत जैसे देश घरेलू महिलाओं का सम्मान और मेहनत को मान्यता नहीं के बराबर है। महिलाओं का सम्मान आस्था के दायरे तक ही सीमित है,  देवी लक्ष्मी का सम्मान है, गृहलक्ष्मीयों का नहीं।
कमोबेश हर महिला के साथ घरेलू अवैतनिक कार्य एक कठोर सच्चाई है जिसका न ही कोई आर्थिक मूल्यांकन है, न ही भावानात्मक मूल्यांकन है। घरेलू कार्य का यह हिस्सा यह जरूर विश्वास जरूर दिलाता है कि वे घर में रहकर कुछ नहीं करती और लगभग अधिकांश घरेलू महिलाएं स्वीकार कर चुकी होती है कि वे कुछ नहीं कर सकती। लिंग और भेदभाव की दोहरी मार कई बार आत्महत्या के रूप में परिणत होती है। सामाजिक समाजीकरण से बचपन से पड़ा बोझ साठ साल के बाद भी कंधे से उतरता नहीं है। सामाजिक समाजीकरण का पाठ यह गहरे रूप से महिलाओं के अंदर बैठा दिया जाता है कि स्त्री का जन्म, सिर्फ सेवा कार्यों के लिए ही हुआ है।
आस-पास की महिलाओं के घरेलू कामों की आकंलन करे तो अहसास हो जाता है कि महिलाएं कुल काम के घंटों में से दो तिहाई घंटे काम ही करती रहती है लेकिन दस फीसदी ही आय अर्जित करती है। शहरी और ग्रामीण महिलाओ के घरेलू श्रम का आकंलन किया जाए तो काम के घंटों का प्रतिशत बढ़ सकता है। कामकाजी महिलाओं की समस्या पर समय-समय पर चर्चा होती है, शोध भी सामने आते रहते है। परंतु, घर के चारदीवारी के भीतर दिन-रात की परवाह किए बगैर खटती रहने वाली महिलाओं को लेकर चुप्पी तो है ही। घरेलू महिला घर और संबंधो को मधुर और प्रगाढ़ किसतरह से बनाये रखे, इसपर अख़बारों और पत्रिकाओं में भरमार तो है, पर घरेलू महिलाओं के सम्मान और मेहनत को मान्यता को लेकर कभी-कभार हल्की फुल्की बाते है जो हाउसवाईफ के दायरे में ट्रीटमेंट पा रही है।
घर में काम करती हुई महिला के साथ-साथ कामकाजी महिलाओं के मेहनत या मेहनताने के प्रति वो सम्मान नहीं है जिसकी उम्मीद कामकाजी या कारोबारी महिलाओं को होती है। असल में समाज ने  कामकाजी महिलाओं के प्रति भी कोई अनुकूल महौल ही नहीं बनाया है। समाज में किसी भी महिला के श्रम का कोई सम्मान नहीं दिया है।
पुरुषों में महिला प्रमुखों को लेकर पूर्वाग्रह बने हुए हैं, इसलिए कपंनियों हुनरमंद लोगों को लाना महिला कारोबारीयों के लिए बड़ी समस्या है। देश के कई प्रमुख बैंकों का नेतृत्व महिलाओं के हाथों में है, पर बैंक भी महिला नेतृत्व वाले संस्थानों में जोखिम लेना नहीं चाहता।
जाहिर है हम जिस लोकतांत्रिक देश में रह रहे है वहां लोकतंत्र सामाजिक से अधिक किताबी है क्योंकि लोकतांत्रिक समाज की पहली शर्त यही है कि वह देश के हर नागरिक के आत्मसम्मान का संरक्षण करे, जिसे समाज ने महिलाओं के विशेष संदर्भ में कभी नहीं किया है। इस संदर्भ में घरेलू महिलाओं के श्रम को कोई भी लोकतांत्रिक सम्मान नहीं दिया है. कामकाजी महिलाओं के श्रम को जीडीपी के जोड़-घटाव में सम्मान दिया है पर आत्मसम्मान अभी भी नहीं दे पा रहे है। मौजूदा समय में  जरूरत घर और बाहर की महिलाओं के सम्मान और मेहनत को मान्यता देने की है।

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