गर्भपात पर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला महिलाओं को एक अहम बुनियादी हक देता है- गायत्री आर्य (आभार- सत्याग्रह)

गर्भपात को लेकर दोगला रवैया रखने वाला हमारा समाज एक तरफ गर्भपात को पाप कहता है और दूसरी तरफ मादा भ्रूण के गर्भपात पर शर्मनाक हद तक मौन सहमति देता है


हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा है, कि गर्भपात कराने के लिए महिला को पति की मंजूरी की जरूरत नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट के एक फैसले को बरकरार रखते हुए यह बात कही. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय बेंच ने कहा कि पति अपनी पत्नी पर अनचाहे गर्भधारण के लिए दबाव नहीं बना सकता. शीर्ष अदालत के मुताबिक गर्भपात के लिए केवल महिला की सहमति ही पर्याप्त है.
भारत में गर्भपात के लिए मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेनसी एक्ट 1971 में बनाया गया था. इस कानून के तहत 12 से 20 सप्ताह तक ही गर्भपात की अनुमति थी. ऐसे गर्भपात भी तब कराए जा सकते थे जब मां की जान को खतरा हो, या मां के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को खतरा हो या फिर गर्भ बलात्कार के कारण ठहरा हो. भ्रूण का उचित विकास न होने और उसके विकलांग पैदा होने की स्थिति में भी गर्भपात कराया जा सकता था. समय-समय पर इस कानून में संशोधन होते रहे हैं. 2014 में हुए संशोधन के अनुसार यदि महिला के स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान होने की संभावना हो, तो 24 हफ्ते के भ्रूण का गर्भपात भी कराया जा सकता है.
गर्भपात को लेकर हमारे समाज में काफी दोगला व्यवहार दिखता है. एक तरफ गर्भपात को पाप समझा जाता है, दूसरी तरफ मादा भ्रूण के गर्भपात को लेकर पूरे समाज में शर्मनाक हद तक मौन सहमति है. एक अनुमान के मुताबिक भारत में हर साल एक करोड़ महिलाएं गुप्त रूप से गर्भपात कराती हैं और इनमें ज्यादा संख्या मादा भ्रूण के गर्भपात की होती है. गुप्त रूप से मुख्यतः दो तरह के गर्भपात होते हैं. एक जो अविवाहित लड़कियां कराती हैं. बलात बने या फिर सहमति से बनाए गए संबंधों के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में वे गुप्त रूप से गर्भपात कराती हैं. भारत में अविवाहित लड़कियों के लिए गर्भपात और भी ज्यादा शर्मनाक माना जाता है, खासतौर से यदि वह प्रेम संबंधों का परिणाम हो तो. इस कारण इस बारे में कोई सही-सही आंकड़े भी हमारे पास नहीं हैं, कि सालाना कितनी अविवाहित लड़कियां गर्भपात कराती हैं.
दूसरा, लिंग आधारित गर्भपात भी गुप्त रूप से ही कराए जाते हैं. हमारे देश में लिंग के आधार पर गर्भपात कराना कानूनन जुर्म है. इसके बावजूद यह धड़ल्ले से होता है. हमारे समाज में महिलाओं पर बेटे को जन्म देने का हद से ज्यादा दबाव है. महिलाओं के स्वास्थ्य को पूरी तरह अनदेखा करके अक्सर ही परिवारों में एक बेटी के जन्म के बाद मादा भ्रूण का लगातार गर्भपात कराया जाता है. साथ ही बेटे का जन्म होने तक महिलाओं को बार-बार प्रसव से गुजरने के लिए बाध्य किया जाता है.
बच्चे के जन्म और शुरुआती पोषण की जिम्मेदारी पूरी तरह मां की होती है. उसके बावजूद हमारे समाज में महिलाओं को यह बुनियादी आजादी भी नहीं है, कि वे कब और कितने बच्चों की मां बनना चाहती हैं, या फिर बनना भी चाहती हैं या नहीं. इसलिए गर्भपात का सवाल महिलाओं के स्वास्थ्य से जुड़ा एक बेहद अहम मुद्दा है. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला महिलाओं के मातृत्व संबंधी अधिकार को मजबूती देता नजर आता है.
हालांकि ऐसा नहीं लगता कि एक परिवार में रहते हुए, महिलाएं व्यवहार में इस फैसले का बहुत ज्यादा प्रयोग कर पाएंगी. क्योंकि गर्भपात का निर्णय अकेले लेने के मसले पर घर में काफी क्लेश हो सकता है. ऐसे में अशांति से बचने के लिए महिलाएं परिवार की सहमति से ही गर्भपात या गर्भधारण जैसे फैसले लेंगी. लेकिन जो महिलाएं मानसिक रूप से इतनी सशक्त हैं कि वे स्वेच्छा से यह निर्णय लेना चाहती हैं, तो उनके लिए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला काफी सहयोगी और राहत भरा साबित हो सकता है(आभार : लेख मूल रूप से सत्याग्रह के लिए लिखा गया है)

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