क्या महिला कर्मचारियों को रोज़गार से ज़्यादा शोषण के लिए तैयार किया जाता है ?- नीतिश के.एस.


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सिनारिओ 1 :
साल था 2003 … हमारी इंग्लिश और साइंस की टीचर्स अलग-अलग कारणों से जॉब छोड़कर चली गयी थीं। उनकी जगह दो कम उम्र की टीचर्स को एडहॉक पर रखा गया। दसवीं के बच्चे इतने तीखे तो होते ही हैं कि किसी को परेशान कर सकें। उन दोनों टीचर्स ने दो महीने के अंदर जॉब छोड़ दी। वजह सिर्फ इतनी थी कि लड़के पढ़ते कम थे और उनके कपड़ो और बर्ताव को लेकर टीका टिपण्णी और बेज़ा सवालात करते थे। सीनियर्स से शिकायत की भी तो टका सा जवाब मिल गया कि कितने बच्चों को समझाया जायेगा। यहां तो झेल नहीं पा रही हो, अभी चार दिन हुए नहीं नौकरी शुरू किये, पता नहीं बाद में कैसे संभालोगी।
एक फीमेल फ्रेंड है, मीडिया में नौकरी करती है, दीन-दुनिया की अच्छी समझ है, उसे मुद्दों की भी अच्छी खबर है। एक दिन पता चला कि नौकरी में बहुत परेशान है। वजह पता चली कि ऑफिस में बहुत हैरस(उत्पीड़न) किया जाता है। कभी काम के नाम पर ताने, कभी निजी ज़िंदगी के नाम पर, तो कभी व्यक्तिगत टीका टिपण्णी। कभी गैर वाजिब मांगे, कभी इशारे। काफी समझदार होने के बावजूद उसे पता नहीं था कि इसकी शिकायत भी की जा सकती है। घर वाले और सीनियर्स ये कह कर चुप करवा देते कि कौन से वर्क प्लेस पर ये नहीं होता, और तुम कौन सी प्रेसिडेंट हो जो तुमको स्पेशल ट्रीटमेंट मिलेगा।
मेरे दफ्तर में बहुत सी फीमेल कलीग्स में से ज़्यादातर 22-25 की उम्र की हैं। एक अलग हैं, सिंगल मदर, 30 के लगभग उम्र। सब उसे भाभी कह कर चिढ़ाते हैं। कभी उसकी निजी ज़िन्दगी को ले कर ताने देते हैं, तो कभी उसके सिंगल मदर होने पर। उसे भी वही तर्क दिया गया – तुम कौन सी स्पेशल हो जो स्पेशल ट्रीटमेंट मिलेगा। तुम्हें तो वैसे भी ज़रूरत है, चुपचाप काम कर लो , बेवजह का बतंगड़ क्या बनाना। ये सब तो हर जगह होता रहता है।
ऐसे हज़ारों मामले मेरी और आपकी ज़िंदगी में हवा की तरह बह कर चले गए होंगे और हमने रत्ती भर भी ध्यान नहीं दिया होगा।
सिनारिओ 2:
“अच्छा सुन आकाश, 6 बज गए, मैं जा रही हूं। अखिल को लौटने में देर हो जाएगी और आते ही खाना मांगेंगे। रचित का होमवर्क भी करवाना  है।”
“क्या यार दीप्ति, इतना काम पेंडिंग है। मैं तुझे ड्रॉप कर दूंगा। ”
“रहने दे, वैसे भी 9 घंटे से एक मिनट ज़्यादा नहीं देने वाली मैं इस कम्पनी को। हार्डकोर प्रोफेशनलिज़्म यू नो।”

“देखो बेटा, नौकरी कहीं भी कर लो, घर 7 बजे तक आ जाना है तुमको। अगर नहीं हो पायेगा तो नौकरी मत करो। ”
“नहीं पापा, मैं खुद ही इस बात का खयाल रखूंगी। मुझे भइया की तरह मज़दूरी नहीं करनी। प्रोफेशनल होना काफी है, करियर ओरिएंटेड नहीं बनना। ”

“क्या यार तुम भी ना, बच्चों जैसी बातें मत करो। तुम्हारी कम्पनी तुम्हें एक्स्ट्रा नहीं देने वाली, ये दो घंटे, ढाई घंटे रोज़ लेट आने की हैबिट छोड़ दो। मेरी बराबरी मत करो, मैं लेट आता हूं क्योंकि मेरे पास ऑफिस में ज़िम्मेदारियां हैं। तुम तो सिर्फ एक टीम कोऑर्डिनेटर हो, कितना काम हो सकता है तुम्हारे पास? नौकरी कर रही हो, यही क्या कम है। घर भी तो संभालना है तुमको। यू नो, ओनली यू कैन डू इट, मुझसे तो होगा नहीं ये सब। ”
ऊपर की दो स्थितियों में दो बातें हैं। पहली ये कि यहां सिर्फ उन फीमेल्स की बात की गयी है जो पढ़ी लिखी हैं, नौकरीशुदा हैं। इन्हें प्रोफेशनल और निजी ज़िंदगी में क्या-क्या झेलना पड़ता है और इनका माइंडसेट किस तरह तैयार किया जाता है, ये समझना मुश्किल नहीं है। अपनी बेटी, अपनी बीवी को नौकरी के लिए सहमति देने वाले (इजाज़त देने वालों से एक स्टेप आगे लिबरल) लोग भी कितने प्रोग्रेसिव हैं समझना मुश्किल नहीं है।
पहले सिनारिओ में लड़कियां काम कर रही हैं, शोषित भी हो रही हैं। शोषण सिर्फ ज़मीनी स्तर का नहीं है बल्कि ऊपरी स्तर पर भी लीपापोती ही है। कहीं से भी सपोर्ट नहीं है। वो भी तब जब सुप्रीम कोर्ट से ले कर सरकारी नियमों तक में एक बड़ी फेहरिस्त है ऐसे प्रावधानों की जो फीमेल्स को वर्क प्लेस पर रेस्पेक्टफ़ुल माहौल देने के लिए बने हैं।
इन सबके बीच सबसे बुरी बात ये है कि हज़ार में से बमुश्किल दस महिलाओं को उनके वर्क प्लेस के अधिकार पता होते हैं। उन्हें पता ही नहीं होता कि किन मामलों की शिकायत की जा सकती है, कहाँ की जा सकती है और उनकी शिकायत पर क्या-क्या एक्शन लेने का प्रावधान है।
दूसरे सिनारिओ में फीमेल्स को महसूस करवाया जाता है कि उनकी नौकरी ही बहुत बड़ी चीज़ है। उनका करियर कोई मायने नहीं रखता , उनका करियर के प्रति प्राथमिकता रखना गुनाह है। भले ही वो नौकरी कर लें, उनकी प्राथमिकता घर परिवार ही होनी चाहिए।
कंपनी में नौकरी ज्वाइन करते वक्त तमाम जानकारियां दी जाती हैं, मसलन छुट्टी से जुड़ी, ज़िम्मेदारियों और रिपोर्टिंग से जुड़ी। तनख्वाह और खर्चों से जुड़ी। पे स्केल, पे बैंड, अप्रेज़ल और पे कमीशन तक की जानकारी दी जाती है। यहां तक कि ये भी बताया जाता है कि कम्पनी साल के किन-किन महीनों में चैरिटी करती है और कब कब स्टाफ को घुमाने ले जाती है। बकायदा इंडक्शन और प्रोडक्ट ट्रेनिंग होती है। प्रोसेस ट्रेनिंग होती है।
लेकिन कभी ये नहीं बताया जाता कि आपको कोई शिकायत करनी है तो किससे कर सकते हैं। ये भी नहीं बताया जाता कि कम्पनी में कोई वुमन सेल है या नहीं, जो कि नियमतः हर कम्पनी में होनी चाहिए। ये भी नहीं बताया जाता कि कम्पनी में वुमन वेलफेयर और स्टाफ इश्यूज़ के नाम पर कौन सी पॉलिसी फॉलो की जाती है। क्यों नहीं बताया जाता ये भी समझना कोई मुश्किल काम नहीं।
कॉलेजेस में करियर ओरिएंटेड कोर्स पढ़ाये जाते हैं। उनसे जुड़ी तमाम ट्रेनिंग्स दी जाती हैं। उन्हें उनकी भावी नियोक्ता कम्पनी के प्रति ईमानदार और कर्मठ होना सिखाया जाता है। गलतियां ना करना और बॉस इज़ ऑलवेज राइट को मानना सिखाया जाता है। संस्कृति की रक्षा करनी ज़रूरी है इसलिए तीन साल में एक बार पास करने वाला राष्ट्र गौरव टाइप का पेपर भी पढ़ाया जाता है। कैंपस प्लेसमेंट दिया जाता है। नौकरी और ऊंची तनख्वाह के आश्वासन दिए जाते हैं। कितना बड़ा दफ्तर और कितनी बड़ी कम्पनी है ये भी पढ़ाया जाता है।
लेकिन ये कभी नहीं पढ़ाया जाता कि वर्क प्लेस पर कोई शोषण हो तो कर्मचारी के पास कौन से कानूनी अधिकार हैं। ये करियर ओरिएंटेड सिलेबस का हिस्सा नहीं होता, क्यों नहीं होता ये भी समझना मुश्किल काम नहीं है।
साल 2014 में नॉएडा फिल्म सिटी में स्थित एक न्यूज़ चैनल की एंकर ने आत्महत्या की कोशिश की थी। सुसाइड नोट में दफ्तर में होने वाले शोषण का खुल कर ज़िक्र किया। विशाखा गाइडलाइन्स का भी ज़िक्र हुआ उस वक्त। लेकिन किसी टीवी मीडिया ने इस पर खबर नहीं चलाई। मामला दबा दिया गया।
हम सभी कहते हैं कि वीमेन एम्पावरमेंट औरतों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बना कर ही सफल होगा। लेकिन हम कभी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो रही औरतों को जागरूक करने की कोशिश नहीं करते। हम उनके लिए पिंक जैसी फिल्मों का इंतज़ार करते हैं। हम उसके लिए किसी टीवी चैनल में डिबेट का इंतज़ार करते हैं। हम कोर्ट में मुकदमे किये जाने का इंतज़ार करते हैं। हम शोषित हो कर नौकरी छोड़ने का इंतज़ार करते हैं। हम ट्रिब्यूनल और फास्ट ट्रैक कोर्ट्स का इंतज़ार करते हैं। हम सब कुछ दूसरों से करवाने का, पहल दूसरे पक्ष से होने का इंतज़ार करते हैं।
आखिर क्यों नहीं है कि हम करियर ओरिएंटेड कोर्सेज़ के सिलेबस में वर्क प्लेस राइट्स एंड अवेयरनेस जैसे मामले शामिल करते हैं ? हम कर्मचारियों को रोज़गार के लिए नहीं, शोषण के लिए क्यों तैयार करते हैं ? महिला रोज़गार बेहतर समाज की दिशा में एक अवश्यम्भावी कदम है और इसे सुनिश्चित करने के लिए वर्क प्लेस राइट्स के बारे में जागरूकता बहुत ज़रूरी है।
(आभार: यूथ की आवाज: लेख मूल रूप से यूथ के आवाज के लिए लिखा गया है)

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