क्या SC-ST एक्ट में बदलाव सामाजिक न्याय के खिलाफ नहीं है?- प्रत्युष प्रशांत


भारतीय समाज में सामाजिक और जातीय समस्याओं का विद्रूप रूप देखते हुए सरकारों ने कानूनों की मदद से उसके निदान का रास्ता खोजा। साथ ही साथ सामाज की मानसिकता में बदलाव के लिए सांंस्कृतिक बदलावों की तरफदारी भी की गई। ज़ाहिर है कानून निर्माताओं को यह इहलाम पहले से ही था कि सामाजिक समस्याओं को दुरुस्त करने के लिए नियम-कायदों से ज़्यादा समाज को सशक्त बनाने की ज़रूरत अधिक है। उनका विश्वास था कि जितना अधिक समाज जागरूक होगा, सामाजिक कुरीतियां दम तोड़ देंगी।
बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर भारत के जातिगत विषमता के उतार-चढ़ाव से वाकिफ थे, इसलिए 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए गए अपने भाषण में कहा था “भारत में जातियां है, जातियां राष्ट्रविरोधी होती हैं, क्योंकि सबसे पहले ये सामाजिक जीवन में विघटन लाती है।” ज़ाहिर है किसी भी समाज में जब तक बहुसंख्यको के मन में दूसरे समुदाय के प्रति मानवता की ज़िम्मेदारी का विकास नहीं होगा, तब तक मानव कल्याण के प्रति कोई भी कानून सफल सिद्ध नहीं हो सकता है।
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट के दुरुपयोग रोकने के लिए जो व्यवस्था दी है, उसमें यह कहा है कि एससी-एसटी कानून के तहत प्रताड़ना की शिकायत पर तत्काल प्राथमिकी दर्ज नहीं होगी। पहले डीएसपी शिकायत की जांच करेंगें कि मामला फर्ज़ी है या किसी दुर्भावना से प्रेरित तो नहीं है, क्योंकि कानून का तकाज़ा है कि सौ गुनाहकार बच जाए, लेकिन एक निर्दोष को सज़ा ना हो।
इस नई व्यवस्था के आलोक में एससी-एसटी कानून के तहत कुल मामलों में जितने भी मामले खारिज़ हुए हैं उनके अनुपात से यह कहीं से भी सिद्ध नहीं होता है कि समाज में इन जातियों का उत्पीड़न है ही नहीं, वह पहले की तरह ही मौजूद है।
कुछ समय पहले सामाजिक न्याय एंव अधिकारिता राज्यमंत्री रामदास अठावले ने सदन में बताया था कि 2015 के मुकाबले 2016 में जातिगत भेदभाव के मामलों में बढ़ोतरी हुई है। परंतु, पिछले दिनों एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून में कुछ प्रावधानों को निरस्त कर इस कानून के नाखून और दांत को तोड़ दिया गया है। इसको लेकर राजनीतिक समाजिक हलकों में बैचैनी की स्थिति बनी हुई है। यह बैचेनी इस कदर है कि मौजूदा सरकार के घटक दल भी इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जाने का मन बना चुके हैं।
गौरतलब है कि एससी-एसटी एक्ट कानून एक खास ज़रूरतों के कारण बनाया गया था, 1955 के प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स के बाद भी ना तो देश में छूआछूत का अंत हुआ और ना ही दलितों पर अत्याचार कम हुए। समानता और स्वतंत्रता के वादे भी खोखले सिद्ध हुए। देश की चौथाई आबादी होने के बाद भी इनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। इसलिए 1989 में एससी-एसटी एक्ट इन खामियों को दूर करने और समुदाय के लोगों को अत्याचार से बचाने के मकसद में इसे लाया गया था। मौजूदा सरकार भी सत्ता में आने के बाद इस कानून को सख्त बनाने की पैरवी करती रही। जिसके तहत विशेष कोर्ट और समय सीमा के अंदर सुनवाई करने के प्रावधान जोड़े गए जिसे 2016 में जोड़ा भी गया।
इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि किसी भी समाज में यह स्थापित सत्य है कि जबसे कोई भी कानून बने हैं तबसे उसका प्रयोग लोगों के हितों में और हितों के खिलाफ होता रहा है। कानूनों को नखविहीन या दंतविहीन कर क्या संदेश देने का प्रयास हो रहा है? वास्तव में एससी-एसटी अत्याचार निरोधक कानून और इसतरह के कई कानून इसलिए हैं कि संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक न्याय, लैंगिंक समानता और स्वतंत्रता के वादे को ज़मीन पर उतारा जा सका है।
ज़ाहिर है कि सामाजिक समस्याएं सख्त कानूनों की मांग करती है। इसका दुरूपयोग ना हो, इसके लिए संतुलन की ज़रूरत भी है। परंतु, समाज को भी इन कुरितियों के खिलाफ कदमताल करने की ज़रूरत है तभी संतुलन कायम किया जा सकेगा। आज भी संविधान में बराबरी का दर्जा मिलने के बाद एक इंसान जातिगत कारणों से अपमान का शिकार हो रहा है। पढ़े-लिखे समाज में अब तक जाति व्यवस्था का खात्मा हो जाना चाहिए था पर हो नहीं पाया है। आज जनभावना के अभाव में सामाजिक कदम और कानून दोनों ही दम तोड़ देते है।
ज़रूरत इस बात की भी अधिक है कि सामाजिक उलझनों को समाज में दूर किया जाए। जबतक बहुसंख्यक समाज के लोग दूसरों के कल्याण के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझेंगे, तब तक किसी भी तरह का सामाजिक न्याय या सामाजिक समता हासिल नहीं किया जा सकता है। ज़ाहिर है कि आज़ादी के बाद लंबे लोकतांत्रिक अनुभवों में हमने कठोर कानून बनाकर अपनी सामाजिक दायित्व का निर्वाह नहीं किया है। हम कठोर कानूनों के क्रियान्वन और सामाजिक ज़िम्मेदारीयां दोनों ही मोर्चों पर असफल रहे हैं इसलिए भारतीय समाज में तमाम विषमताएं जड़ जमाए हुए हैं।
स्थापित सत्य यह भी है कि जैसे-जैसे भारतीय समाज में आधुनिकता के प्रवेश से नई-नई संस्थाओं में उत्पीड़ित जातियों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है इन जातियों के साथ शोषण और अत्याचार के मामलों में नई तरीके विकसित हुए है। लोगों को कामकाज में दलित सहकर्मी मंज़ूर है पर दलित अफसर मंज़ूर नहीं है, उनको थर्ड क्लास से पास हुआ दलित स्वीकार्य है पर दलित टॉपर से उनको समस्या है। उन्हें साइकिल पर सवार दलित के साथ वह सहज है पर बुलेट पर सवार दलित से समस्या है। कई जगहों पर समस्या दलितों के मूंछ रखने से भी है और शादी में घोड़ी चढ़ने से भी है।
इसलिए अधिक ज़रूरी यह है कि सामाजिक न्याय के लिए संघर्षरत रहते हुए एससी एसटी एक्ट पर दी गई नई व्यवस्था पर पुर्नविचार की याचिका दायर हो क्योंकि समाजिक न्याय के अभाव में हर आज़ादी अधूरी ही है।
(आभार: यूथ की आवाज, लेख मूल रूप से यूथ की आवाज के लिए लिखा गया है।https://www.youthkiawaaz.com/2018/03/change-in-sc-st-act-by-supreme-court-of-india/)

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