ग्रामीण इलाकों की सवर्ण स्त्रियों का स्याह पक्ष- धीरेन्द्र प्रताप सिंह

Picture Credit- Twitter

सभी स्त्रियों की दु:ख, परेशानी और उत्पीड़न कमोबेश एक जैसी ही होती है। फिर भी यह प्रश्न उन स्त्रियों के लिए अधिक विचारणीय है, जहां की स्त्रियां गांवों में रहती हैं। गांव की इन स्त्रियों में सवर्ण परिवारों की स्त्रियां और भी ज्यादा मानसिक उत्पीड़न, सामाजिक दवाब, नियम-कानून एवं सामंती पुरुषवादी दंभ का शिकार होती हैं।
जहाँ दलित या पिछड़े परिवार की स्त्रियां बाज़ार-हाट बेरोक-टोक जा सकती हैं। खेतों में काम कर सकती हैं। गांवों में एक समूह के साथ हँस-बोल सकती हैं। अपना दुःख-सुख सुना सकती हैं। खेती-मजदूरी भी कर सकती है। अपने पति, श्वसुर, देवर और अन्य पुरुष द्वारा ढाए जा रहे अत्याचार, अपमान और यौन शोषण का प्रतिवाद कर सकती हैं।
वहीं सवर्ण परिवार की स्त्रियों का इन सभी आयामों से कोई सरोकार नही होता है।
इसको दूसरे शब्दों में इस प्रकार कह सकते हैं कि मानसिक और सामाजिक जकड़बन्दियों में ग्रामीण सवर्ण परिवार की महिलाएं बुरी तरह जकड़ी और एक तरह से गुलामी की यातना झेलती हैं।
मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश (पूर्वांचल) से आता हूँ। कम से कम वहां की स्थितियों से तो मैं ख़ूब वाकिफ़ हूँ। मैं वहां सवर्ण और दलित/पिछड़े जाति की स्त्रियों का अंतर महसूस करता हूँ।
पूर्वांचल के ज्यादातर गांवों में अलग-अलग जातियों की छोटी-छोटी बस्तियां बसी हुई हैं। जिनमें हरिजन बस्ती अलग, ब्राह्मण बस्ती अलग, ठाकुर बस्ती अलग। इन्ही बस्तियों के बीच-बीच में अन्य दलित और पिछड़ी जातियां भी बसी हुई हैं।
गांवों में प्रायः यह देखने को मिलता है कि दलित और पिछड़ी जाति की महिलाएं घरों में चूल्हा-चौका और बर्तन मांजने के साथ खेतों में काम करती हैं, दुकान चलाती हैं, बाज़ार जाती हैं, सोसायटी (खाद-बीज भंडार) जाती हैं, समूह में गपशप करती हैं। हालांकि यह सब काम श्रम साध्य जरूर हैं, लेकिन उन महिलाओं को खुले में सांस लेने की आज़ादी तो है। एक समूह के साथ आपस मे हँसती-बोलती और अपना दुःख- सुख साझा तो कर लेती हैं। इसी बहाने दुनिया के दुःख-सुख को भी महसूस करती हैं।
और हां, इस बात से इंकार नही किया जा सकता है कि आज भी दलित और पिछड़ी जाति की महिलाएं ही यौन शोषण/यौन हिंसा से अभिशप्त हैं। जिसका एक बड़ा कारण उनकी आर्थिक और सामाजिक हैसियत की कमजोरी होती है।
लेकिन वहीं सवर्ण परिवार की महिलाएं इन सब से वंचित होती हैं। बाजार-हाट उनका जाना मना है। खेती करने की कोई ज़रूरत नही है। खाद-बीज लाने की आवश्यकता नही है। साल में एक दो बार मेले ठेले में जाती भी हैं तो घूंघट इतना बड़ा की बस पूछिये मत! इज्ज़त का इतना बड़ा बोझ की वो स्त्रियां उसी तले दबे रहती हैं। और बड़े आश्चर्य की बात है कि इसी झूठी शान-शौकत को अपनी नियति मान लेती हैं।
एक दिन मैंने अपने गांव में रहने वाली भाभी से पूछा कि आप लोगों का मन घर से बाहर निकलने का नही होता है क्या…? या अपनी तरह की स्त्रियों से बात करने, मिलने जुलने, घूमने-फिरने की..?
उन्होंने कहा कि आपके भैया, चाचा या घर के किसी भी मर्द को यह सब पसन्द नही। जब कोई भी आदमी ठकुराने या पंडिताने से अपनी घर की महिलाओं को नही निकलने देता तो हम कहाँ की रानी हैं..??
आगे उन्होंने कहा कि हमें वैसे भी फ़ुर्सत कहाँ होती है…?
Picture Credit- Pinterest
रात में ग्यारह- बारह बजे तक सोना। सुबह चार बजे उठना। फिर चूल्हा-चौका की साफ़ सफ़ाई। आँगन में झाड़ू लगाना। बर्तन धूलना। यदि आँगन में सरसों, चना या अरहर रखा है तो उसे पीटना-पछोरना। बोरी में चावल रखा है तो उसे साफ करना। ऐसे ही हर फ़सल में अलग-अलग काम। फिर यही सब करते 6 बज जाता है। यदि एक भी दिन उठने में लेट हुआ तो सासु मां की गालियां सुनो। ससुर के ताने सुनो। देवर की डांट सुनो। इन सबसे (सासू माँ की गाली, कलह और शोर शराबे आदि-आदि) से आज़िज कर आये दिन पति जो पीट देते हैं, सो अलग।
छ: बजे से सबके लिए नाश्ता बनाना-खिलाना। फिर बच्चों को तैयार करना, स्कूल भेजना। फ़िर सबके लिए खाना बनाना-खिलाना। दो बजे तक यह सिलसिला चलता है। फिर कुछ न कुछ घरेलू काम। फिर शाम से वही बनाने- खिलाने का उपक्रम शुरू। बिल्कुल समय नही मिलता।
कभी हम कहते भी हैं कि मुझे फलाने सामान की ज़रूरत है। मुझे जाकर लेना, देखना या पसन्द करना है। तुरंत सास-ससुर बोलते हैं, अब यही सब देखना बाक़ी है। बहु-बेटियाँ घर से बाहर बाज़ार जाए। नान्ह जाति (छोटी जाति) की तरह घूमें। दुनिया भर की नसीहतें।
देवर बोलता है भाभी बोलिये न क्या चाहिए हम लेते आएंगे। पति बोलते हैं जब हम हैं तो तुम्हे बाहर जाने की क्या ज़रूरत।?
हम लोग चाह के भी कहीं बाहर बैठने, घूमने और जाने की सोच भी नही सकते।
इसी घर मे पड़े-पड़े अपना दिन काटते हैं।
प्रख्यात कथाकार शिवमूर्ति अपनी कहानी ‘बनाना रिपब्लिक’ में लिखते हैं कि-
‘पिछड़ी या दलित औरतें तो सभा, जुलूस या मेले-ठेले में चली भी जाती है, सवर्ण औरतों की बड़ी आबादी अभी भी गांव के बाहर नही निकलती। मायके से विदा हुई तो ससुराल में समा गईं। ससुराल से निकलती हैं तो सीधे श्मशान के लिए। देवी के थान पर लपसी, सोहारी चढ़ाने के लिए जाना ही उनकी तीर्थयात्रा या पिकनिक है।’
ऐसे में ग्रामीण इलाकों की ख़ासकर सवर्ण महिलाओं की स्थिति और तकलीफ़ हम सहज ही अनुमान लगा सकते हैं।
आख़िर में एक बात यह कि हम महिला दिवस का नारा चाहे जितना जोर से लगा लें। यदि उसकी गूंज विशेषकर ग्रामीण महिलाओं को यदि सामान्य दिनचर्या से इतर मानसिक गुलामी से आज़ादी नही दिला सकी तो यह नारा केवल आवाज भर होगा। उस आवाज से कोई जादू नही हो सकता।
8 मार्च को ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस,’ सवर्ण होने का दम्भ भरने वाले पुरुषों से यह अपेक्षा रखता है कि वो अपने घरों की स्त्रियों को भी खुले हवा में सांस लेने, विचारों को पर देने एवं दुनिया के सुख-दुःख से रु-ब-रु होने की आज़ादी दे। और केवल सवर्ण ही नही बल्कि पिछड़े और दलित समाज के पुरुष भी यदि अपने घर की स्त्री को वीरांगना देखना चाहते हैं, तो उन्हें अपने घर की महिलाओं को रानी लक्ष्मी बाई की भांति शस्त्र और शास्त्र के ज्ञान लेने की खुली छूट देनी चाहिए। यदि वो अपने घर की स्त्री को इंदिरा गांधी, प्रतिभा पाटिल, मेनका गांधी जैसी सशक्त राजनीतिक व्यक्तित्व निर्मित करना चाहते हैं तो उन्हें राजनीति के गुर भी सिखाने होंगे। यदि वो कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स जैसे वैज्ञानिक बनाने चाहते हैं तो उन्हें अपनी घर की बहन- बेटियों को बेटों की भांति पढ़ने और बढ़ने का समान अवसर देना होगा।
तब कहीं जाकर स्त्री की संपूर्णता आकार लेगी। अन्यथा महिला दिवस, महिला संगोष्ठी या स्त्री सम्मेलन/अधिकार की बात केवल एक हॉल या कमरे तक ही सीमित होकर रह जायेगी।
(आभार: The Brown Page, लेख  The Brown Page से लिय़ा गया है।)

टिप्पणियाँ