दूध पिलाती महिलाओं को देखकर हमारा समाज असहज क्यों हो जाता है?-प्रत्युष प्रशांत


मां का दूध नवजात बच्चे के लिए सर्वोतम आहार है इसका विज्ञापन तमाम स्वास्थ्य केद्रों पर लगा होता है। परंतु, एक महिला निजी ही नहीं, सार्वजनिक जगहों पर बच्चे को स्तनपान कराने में कितनी शर्मिदर्गी से घिरी होती है, भले ही ग्रामीण समाज में महिलाओं के स्तनपान को लेकर कोई संकोच या आपत्ति नहीं होती पर शहरी समाज में इसको लेकर दुविधापूर्ण स्थिति महिलाओं में होती है।





“माएं केरल से कह रही हैं-घूरो मत, हम स्तनपान कराना चाहती हैं”

संदेश के साथ केरल में प्रकाशित गृहलक्ष्मी पत्रिका का कवर पेज, जिसमें मॉडल गिलु जोसफ़ की बच्चे को छाती से लगाए हुई तस्वीर है। सोसल मीडिया सार्वजनिक जगहों पर स्तनपान के लिए जागरूकता के बजाय सोसल बुलिंग के कारण चर्चा में है। चूंकि मॉडल गिलु जोसफ़ ख़ुद मां नहीं है, इस बात ने असहज स्थिति पैदा कर दी है और सोसल बुलिंग जोरों पर है।

सार्वजनिक जगहों पर स्तनपान को कराने को लेकर गलत नजर से देखे जाने की चुनौति और मांओं की असहजता का सवाल धीरे-धीरे सस्ती सनसनी, शोषण और नग्नता को लेकर बहसों के केंद्र में है। तमाम आलोचनाओं के बीच में केरल के जाने-माने लेखक ने इसे “पाथ-ब्रेकिंग क़दम” बताया है। क्योंकि इसके पहले किसी भारतीय पत्रिका ने महिला की स्तनपान की तस्वीर को कवरफोटों नहीं बनाया और न ही सार्वजनिक जगहों पर स्तनपान के विषय पर बहस की शुरूआत की। हालांकि महिलाओं के लिए निकलने वाली पत्रिकाओं में भीतर के पन्नों पर कभी-कभी रेखाचित्र तो कभी तस्वीरे रहती है।

इसके पहले अमरीका से प्रकाशित होने वाली पत्रिका “टाइम” के कवर पर प्रकाशित तस्वीर ने भी दुनिया भर में विवाद खड़ा कर दिया था। जिसमें एक तीन बरस के बच्चे को अपनी मां को स्तनपान करते हुए दिखाया गया था। इसको लेकर भी तारीफ़ और आलोचना दोनों हो रहे थे। टाइम पत्रिका के कवर पर प्रकाशित तस्वीर ने बच्चों के लालन पालन के परंपरागत तरीकों और अति लगाव वाले तरीकों के बीच मतभेद को उजागर कर दिया था।

सार्वजनिक जगहों पर स्तनपान दुनिया भर में एक विवादास्पद मुद्दा रहा है। कई सर्वे में यह बताया है कि सार्वजनिक जगहों पर स्थनपान महिलाओं के लिए असहज स्थिति है। कई देशों में स्तनपान एक संवैधानिक अधिकार भी है, जिसके तहत महिलाएं सार्वजनिक जगहों पर बच्चे को दूध पिला सकती है। बीते साल लंदन के एक म्यूज़ियम में एक महिला ने जैसे ही अपने 1 साल के बेटे को दूध पिलाने के लिए अपने कपड़े हटाए, उसे म्यूज़ियम के एक स्टाफ़ ने खुद को ढकने के लिए कह दिया, उसके बाद सोसल मीडिया पर स्तनपान कराती हुई कई महिलाओं की तस्वीर वायरल हुई जिसमें बताया कि स्तनपान के प्रति जागरूकता की भावना ठीक विपरीत है। कई लोगों ने महिला शरीर को लेकर प्रचलित सामाजिक मानसिकता पर विरोध करने के लिए तारीफ़ की थी।

विकसित देशों में स्तनपान कराना महिलाओं का अधिकार है पर भारत में इस संबंध में कोई कानूनी व्याख्या अभी तक नहीं है।

अन्य देशों के तरह भारत में भी महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर या सफ़र करते समय, लोगों की घूरती निगाहों के बीच शिशु को स्तनपान कराने में शर्म का सामना करना पड़ता है। कुछ लोग बच्चों को रोता देख दूसरी ओर हट जाते हैं पर बहुत से भी हैं जो घूरने लगते है। यह स्थिति किसी एक महिला की नहीं तमाम दूध पिलाती मांओं की है। महिलाएं बताती हैं कि
“लोग घूर कर देखते हैं तो अपने आप को पूरी तरह ढ़क लेना होता है या फिर अपने बच्चे को भूखे रहने देना होता है।”


देश में जयपुर पहली जगह है जहां मेट्रों स्टेशन पर इस समस्या से महिलाओं को निजात दिलाने के लिए, दूध पिताने के लिए अलग कमरे बनवाए हैं जिनको अमृत कक्ष कहा जाता है। साथ ही साथ पहले और आख़री कोच में गर्भवती महिलाओं और दूध पिलाती माताओं के लिए दो-दो सीटें भी अरक्षित की गई है।

अगर कोई महिला अपने बच्चे को दूध पिलाती है तो इसमें शर्मिदा होने जैसी कोई बात नहीं है, इसे यौन के नजरिए से देखना, देखने वालों की समस्या है। इस सोच के साथ शुरू हुआ गृहलक्ष्मी पत्रिका का अभियान आलोचना के निशाने पर है। जबकि स्तनपान नवजात बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़ा एक गंभीर विषय है जो हमेशा एक गंभीरता और जागरूकता की मांग करता है। यह उस नवजात शिशु का मूल अधिकार के साथ-साथ एक मां का विशेषाधिकार है। समाज को यह पता होना चाहिए यह बहुत ही प्राकृतिक है और जैविक रूप से समान्य बात है। परंतु, गृहलक्ष्मी पत्रिका पर कवर फोटो पर मौजूदा बहस सार्वजनिक ज़गहों पर स्तनपान से अधिक मॉडल के फिचर पर जाकर अटक गया है। फिलहाल इस तस्‍वीर के खिलाफ स्‍थानीय अधिवक्‍ता मैथ्‍यू विल्‍सन ने महिलाओं के अश्‍लील चित्रण कानून 1986 की धारा 3 और 4 के आरोप लगाया है कि तस्वीर महिलाओं को बेइज्जत करने के गलत मंशा से छापा गया है।

जरूरत इस बात कि है हम महिला शरीर को लेकर समाज अपनी पूर्वाग्रही धारणाओं से बाहर निकले। साथ ही साथ बच्चों के लालन-पालन के लिए महिलाओं के नैसर्गिक क्षमताओं को कानूनी सहायता देकर अधिक सशक्त बनाये, जिससे महिलाओं का शर्मिदगी नहीं सहजता महसूस हो। परंतु, क्या संवैधानिक अधिकार सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने में सहायक हो सकते है, यह एक यक्ष प्रश्न है?

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