हसरतों की राजनीति में न्यायपालिका का संतुलित होना ज़रूरी है- प्रत्युष प्रशांत

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कुछ महीने पहले आई फिल्म JOLLY LLB2 में अंत में एक छोटा सा दृश्य है, जो बहुत कुछ कहता है। उस दृश्य में जज सुंदर लाल त्रिपाठी कहता है “आज भी घरों में जायदाद के या निजी झगड़े होते हैं तो लोग एक-दूसरे से कहते हैं, ‘आई वील सी यू, इन कोर्ट’ क्यों कहते हैं, लोग सा? आज भी लोग भरोसा करते हैं, भरोसा करते हैं न्यायपालिका पर, उनको भरोसा होता है, अगर सरकार उनकी बात नहीं सुनेगी, प्रशासन उनकी बात नहीं सुनेगा, पुलिस उनकी बात नहीं सुनेगी, तो कोर्ट सुनेगा उनकी बात।”
नेताओं और नौकरशाहों से परेशान जनता का न्यायपालिका पर ही विश्वास टिका होता है। देश की न्यायपालिका पर भरोसा एक दिन में नहीं वर्षों के बाद स्थापित होता है, ज़रूरत है इस भरोसे को अधिक मज़बूत किया जाए।
किसी भी लोकतंत्र को मज़बूत रखने के लिए न्यायपूर्ण संस्थाओं की ज़रूरत सबसे अधिक होती है। बहुत सी संस्थाएं जो पहले के सरकारों के समय से ही कमज़ोर थी मौजूदा दौर में और कमज़ोर होती चली जा रही है। हाल के दिनों में कोई भी ऐसी संस्था नहीं है, जिसके बारे में कहा जाए कि उसकी आज़ादी बढ़ी है या उसकी साख में इज़ाफा हुआ है। कमोबेश सभी स्वतंत्र संस्थाओं पर किसी न किसी रूप में हमला बढ़ा है। लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण संस्था मीडिया को बारीकी से अपने आप को अनुकूल बना लिया है। लोकतंत्र का एक प्रमुख स्तंभ न्यायपालिका की व्यवस्था पर अब तक व्याख्या या समीक्षा होती थी, पर अब उसकी आलोचना भी हो रही है। मौजूदा स्थिति यह आशंका पैदा करती है कि कहीं इसका हाल भी भारत की विधायिका और कार्यपालिका जैसा नहीं हो जाएगा।
“पद्मावत” फिल्म की रिलीज़ का सवाल हो, अत्याचार निरोधक कानून पर नई व्यवस्था देने की बात हो, खाप पंचायत के अमानवीय फैसलों पर लगाम लगाने के फैसले हों, भष्ट्राचार के मामले में दोष सिद्ध होने और किसी पर भी दोष सिद्ध न होने के फैसले हों या दिल्ली हाई कोर्ट का AAP के विधायकों की अयोग्यता के फैसले को पलटना हो, एक नहीं कई मामलों में न्यायालय के फैसलों ने व्यापक असंतोष जनमानस में पैदा किया है। सुप्रीम कोर्ट भी इमरजेंसी के बाद पहली बार गंभीर संकट से गुज़र रहा है। संकट के कुछ बिंदु उसके खुद के पैदा किए हुए हैं, लेकिन राजनीतिक पक्षधरता के आरोप खुले तौर पर लग रहे हैं।
न्यायालयों को चाहिए कि वह देश के नागरिकों को वर्ग-आधारित न्याय की बजाए समानता आधारित न्याय उपलब्ध कराने में गंभीरता से अमल करे, क्योंकि संविधान में सभी नागरिकों को समान माना गया है। जब स्वतंत्र संस्थाओं के अस्तित्व को ही चुनौति मिलेगी तो स्वतंत्र संस्थाओं की अनुपस्थिति में संघर्षों में बंटे समाज में मध्यस्तता कौन करेगा? लोकतंत्र के लिए “सेफ्टी वॉल्व” का काम कौन करेगा? जिस समाज में संस्थाएं खोखली हो जाती हैं, वह नए-नए संघर्षों के लिए अभिशप्त होता है।
तमाम राजनीतिक पार्टियां चुनावी राजनीति के नये फॉर्मूले की खोज में अपनी पुरानी छवि से मुक्त होकर नई छवि बनाने की होड़ में है। परंतु उनकी यह चुनावी सोशल इंजीनियरिंग समाज में अलगाव को बढ़ाने का काम कर रही है। विडंबना यह है कि चुनावी रणनीति और उसकी शासन नीतियों के बीच जो खाई है, वह समाज के बीच की दरार कम करने के बजाए, उसको और अधिक चौड़ा कर रही है।
समस्या केवल समाज के नागरिकों के मध्य ही नहीं, राज्यों के मध्य भी है। मसलन आज़ादी के बाद पहली बार, भारतीय राजनीति में उत्तर-दक्षिण का विभाजन गहरा रहा है। एक हद तक दक्षिण की मुख्यधारा की पार्टियां खुद को पराया मान रही हैं। दक्षिण महसूस करता है कि उसने अच्छी प्रगति की है। उसकी वृद्धि दर बढ़ी है और जन्म दर घटी है। ध्यान रखना जरूरी है कि दक्षिण भारत में पराएपन की भावना के मूल में एक सूक्ष्म सांस्कृतिक तत्व भी मौजूद है। सास्कृतिक स्तर पर गौण होने की भावना भयानक अलगाव पैदा कर सकता है।
इन तमाम अलगावों की मौजूदा राजनीतिक दौर में न्यायालयों पर घटता विश्वास देश के लिए भयानक संकेत है। जिसको समय पर पाटना बहुत ज़रूरी है। क्या न्यायिक व्यवस्था केंद्र और राज्य सरकार एवं देश के निवासियों के मध्य लोकतांत्रिक दिशा-निर्देश जारी कर इसको संतुलित कर सकती है? क्या वह देश के नागरिकों को आश्वस्त कर सकती है कि वह न्याय के उच्च मानकों के लिए प्रतिबद्ध है, दोहरे मानदंडों के लिए नहीं? राजनीतिक महत्वकांक्षा की होड़ में हसरतों की राजनीति ने जाति और धर्म के आधार पर नागरिकों के मध्य जो विभेद पैदा किया है, उसको संतुलित करने में न्यायपालिका को तटस्थ होकर लोकतांत्रिक भूमिका का निर्वाह करना ही होगा।
(आभार : यूथ की आवाज. लेख मूल रूप से यूथ की आवाज के लिए लिखा गया है..
https://www.youthkiawaaz.com/2018/04/the-challenges-of-indian-judiciary-system-hindi-article/ )

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