वेश्यावृत्ति को गाली देना ही समाज का शुद्धिकरण है? Swati Singh
फ़ोटो साभार: frostbitevip blogspot |
बारिश के बाद खिलने वाली धूप के साथ आकाश में खिलता इन्द्रधनुष हर किसी के मन को मोह लेता है| कुदरत के इस नज़ारे का दीदार करने का मौका कुछ खास मौसमों में ही नसीब होता है| पर एक इन्द्रधनुष हमारे समाज का भी है जो हर मौसम में स्थायी रहता है| क्योंकि यह कुदरत की देन नहीं बल्कि हमारे समाज की देन है| इस इन्द्रधनुष के दो सिरे है – पहला, अमीरी और दूसरा,गरीबी। और इसके दो सिरों के बीच होती है – एक गहरी खाई| इस खाई में झांककर हम अपने समाज के कई कड़वे सच्च की परछाईयों को देख सकते है|
वैसे तो इस इन्द्रधनुष के दो सिरे अपने बीच की गहरी खाई की वजह से आपस में कभी नहीं मिलते है| पर इसकी सतरंगी चमक अक्सर अमीरी के सिरे से अपने स्वार्थों को लिए गरीबों की अँधेरी गलियों में गुम होती दिखाई है। गरीबी की इन गलियों में से एक है – वो बदनाम गली। यह वो गलियाँ है, जो सदियों से तथाकथित अमीर समाज की पैदाइश रहे ‘वहशी मर्दों’ की हवस भरी ज़रूरतों का बोझ अपने सिर लिए अपने जिंदगी काटने को मजबूर है।
वेश्या मतलब ‘समाज का सुरक्षा बल्व’
कहते है कि हमारे समाज में वेश्याओं की आवश्यकता सुरक्षा बल्व की तरह पड़ती है जो पुरुषों की कामप्रवृति का भार वहन करती है।अगर इनका अस्तित्व न हो तो अवश्य ही अबोध स्त्रियों से बलात्कार किया जाएगा। इस संदर्भ में वेश्यावृति सामाजिक बुराई से प्रशंसनीय समाज सेवा में बदल जाती है। नतीजतन इन गलियों के खरीददार वहशी मर्द, औरतों के शोषकों की बजाय ज़िम्मेदार नागरिकों के सम्मान से सम्मानित कर दिए जाते है| और हमेशा की तरह औरतों के हिस्से आती है – भद्दी गालियाँ और तिरस्कार|
पितृसत्तात्मक समाज का किस्सा भी बेहद अज़ीब है| यहां स्त्री-पुरुष के जिस रिश्ते को सबसे पवित्र बताया जाता है| उसी रिश्ते को दूसरे ही पल भद्दी गाली में तब्दील कर पितृसत्ता का रौब जमाया जाता है|
मांग वेश्यावृत्ति को अन्य रोजगार की तरह देखने की
आज हमारे भारत को, एशिया में इन बदनाम गलियों के लिए भी खूब जाना जाता है| देश में इसका मुख्य केंद्र है – मुंबई। मानवाधिकार की रिपोर्ट के अनुसार, यह एशिया की सबसे बड़ी सेक्स इंडस्ट्री है, जहाँ 2 लाख से ज्यादा सेक्स वर्कर है।पर यह सिर्फ दिल्ली, मुंबई या कलकत्ता जैसे महानगरों तक ही सीमित नहीं है| बल्कि आगरा का कश्मीरी मार्केट, पुणे का बुधवर पेर और वाराणसी का मड़ुआडीह जैसे देश के हर छोटे-बड़े कोने में सालों से अपने व्यापार का जाल फैलाए हुए है। आज देश के हर कोने-कोने में शिक्षा व स्वास्थ्य की सुविधायें हो न हो पर इन बदनाम गलियों का बाज़ार ज़रूर होता है, जहां पर औरतें सभ्य समाज के मर्दों से अपना शरीर नोचवा कर अपना पेट पालती है।
यों तो वेश्यावृत्ति को भी अन्य रोजगार की तरह देखने की मांग सालों से उठती रही है, जो अपने आप में बड़ी बहस का हिस्सा है| हाल ही में एक ट्रेनिंग से दौरान मुझे वेश्यावृत्ति से जुड़ी कार्यकर्ती से अनुभव जानने का मौका मिला| वे बीते कई सालों से वेश्याओं के अधिकारों के लिए काम रही है| उनकी मांग यह है कि और रोजगार की तरह वेश्यावृत्ति को भी देखा जाना चाहिए| साथ ही, वे मानव तस्करी के माध्यम से जबरन वेश्यावृत्ति में महिलाओं को धकेले जाने के खिलाफ भी काम कर रही है|
समाज की नज़र में वेश्यावृत्ति से जुड़ी महिला को इंसान समझा ही नहीं जाता, जिसके अपने अधिकार भी हो सकते है और वो भी समाज में सामान्य जीवन जीने के लायक है|
उन्होंने अपने जीवन के कई भेदभावपूर्ण अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि किस तरह इस धंधे से जुड़े होने के कारण उन्हें समाज से तिरस्कृत होना पड़ता है| इतना ही नहीं, उन्हें स्वास्थ्य और सुरक्षा से जुड़ी सरकारी सेवाओं से भी वंचित किया जाता है| ट्रेनिंग में उन्होंने ये सवाल उठाया कि ‘जो डॉक्टर हमलोगों के बीमार होने पर हमारी बिना किसी जांच के दवाइयां लिखता (क्योंकि वो मानता है कि अगर उसने वेश्या को छुआ तो वो अशुद्ध हो जायेगा)| वहीं शाम ढलते ही हमारी इन्हीं बदनाम गलियों में अपनी हवस मिटाने आता है, आखिर ऐसा दोहरापन क्यों?
वेश्यावृत्ति को गाली देना ही समाज का शुद्धिकरण है?
यूँ तो वेश्यावृति से जुड़ी अनेक किताबें, शोध-रिपोर्ट, लेख और आकड़े सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं ने इक्कठे किये गए है। और यह सभी भारत में वेश्यावृति के इस बढ़ते व्यापार के कई चौका देने वाले सच को भी हमारे सामने रखते है। पर यहां विचारणीय यह है कि इस बढ़ते व्यापार की दुकान और समान के बारे में तो बड़ी आसानी से जानकारियां बटोर ली जाती है| पर इनके ग्राहकों के बारे में कोई-भी तथ्यात्मक जानकारियों को बटोरने का प्रयास क्यों नहीं किया जाता है? वेश्याओं को बनाने वाले और अपने दिए पैसे से पाल कर इनका व्यापार बढ़ाने वालों की,मानसिकता और उनके वहशी बनने के कारण; जैसे तमाम जरुरी तथ्यों पर ना तो कोई शोध किए जाते है और ना इनसे सम्बन्धित आकड़ों को संकलित किया जाता है।
पितृसत्तात्मक समाज का किस्सा भी बेहद अज़ीब है| यहां स्त्री-पुरुष के जिस रिश्ते को सबसे पवित्र बताया जाता है| उसी रिश्ते को दूसरे ही पल भद्दी गाली में तब्दील कर पितृसत्ता का रौब जमाया जाता है|
इतना ही नहीं, हमारे आकड़ों में वेश्यावृत्ति से जुड़ी महिलाओं के मानवाधिकार-हनन की भी कोई जानकारी, रिपोर्ट या शोध उपलब्ध नहीं होती, क्योंकि समाज की नज़र में वेश्यावृत्ति से जुड़ी महिला को इंसान समझा ही नहीं जाता, जिसके अपने अधिकार भी हो सकते है और वो भी समाज में सामान्य जीवन जीने के लायक है|
कब तक ज़ारी रहेगा शुद्धिकरण का दौर?
हमारे समाज में वेश्याओं के लिए अनेक भद्दे शब्दों का प्रयोग करके सभ्य लोग अपना शुद्धिकरण तो कर लेते है। इसके साथ ही तकनीकी-युग का लाभ उठाते हुए सोशल मीडिया में भी इन गम्भीर मुद्दों पर अपनी भद्दी सोच लिए बहस करने से पीछे नहीं रहते| और अपने संकीर्ण कुतर्कों से हिंसा की परिभाषा महिलाओं के माथे मढ़कर सदियों से चली आ रही इस सामाजिक बुराई का बीज रोपना भी नहीं भूलते। ये हमारी सड़ी सोच का नतीजा है कि हम भद्दी गाली से वेश्यावृत्ति को संबोधित कर महिलाओं के वाजिब मुद्दों को दरकिनार कर देती है| ऐसे में सवाल ये है कि आखिर कब तक समाज अपने शुद्धिकरण के चलते महिलाओं के अधिकारों को दरकिनार करते रहेंगें?
(आभार- feminisminindia.com, लेख मूल रूप से feminisminindia.com के लिए लिखा गया है।)
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