अगर त्वचा गोरी नहीं है तो शर्म से मर जाइए- प्रत्युष प्रशांत
Pretty24 का दिखाया
जानेवाला विज्ञापन जो “रंग नहीं सोच
बदले” का संदेश देता है, चुपके से Pretty दिखने का अपना फर्मुला चस्पां कर देता है। अब तक काले या सांवले से गोरे
होने मे फंसे थे अब Pretty दिखने के मोहजाल
में फंसे जाओ. जाहिर है इसतरह के तमाम विज्ञापन
युवा शक्ति से लबरेज वाले देश में हीनभावना का गहरी ख़ुराक हर रोज बांट रहे है, जो
आत्मविश्वास डगमगाने के लिए काफी है। जबकि जरूरत इस बात कि है कि शरीर को सम्मान
मिले, स्वतंत्रता की पहचान हो, न की बाज़ार से हमारी मानसिकता तय हो, प्रत्येक व्यक्ति
की छवियां न ही परिवार तय कर सकता है न ही कोई तीसरा। सबसे जरूरी इंसानी श्रम की
पहचान हो।
मौजूदा
स्थिति उस देश में है जहां बहुसंख्यक आबादी राम से लेकर कृष्ण और शिव से लेकर
काली, श्याम वर्ण देवी-देवता है, उनकी अराधना भी होती है। विज्ञापनों की पूरी दुनिया
ने पहले महिलाओं के साथ रंगभेद के मिथक को गढ़ा था अब उसमें पुरुष भी शामिल है
फेयर, ग्लो और प्रीर्टी दिखना अब स्त्री-पुरुष दोनों के लिए अहम जरूरत बना दी गई
है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि गोरेपन का मलाल लगभग हर दूसरे भारतीय
को है इसमें लड़कियां नहीं लड़के भी कुंठित है, विज्ञापनों ने इस भावना को तेजी से
हवा दी है। फिल्म समीक्षक/ लेखक सुधीश पचौरी बताते है “यह एक किस्म की जकड़बंदी
है, जो कहीं लिखी नहीं गई है, न ही कानून में इसका जिक्र है.फिर भी यह हमारे दिलो
दिमाग में हावी रहती है कि अगर आप काले/सावंले है तो आप चलन में नहीं है, यानी आप
अनफिट है। इससे फेयननेस प्रांडक्ट्स की मांग बढ़ती है, फलस्वरूप मार्केट चढ़ता है,
खरबों रुपयों की ब्यूटी इंडस्ट्री चलती है और बाजार को फायदा होता है, यह एक बड़ी एस्थेटिक
शिफ्ट है जिसे मीडिया और मार्केट ने खड़ा किया है।”
द गार्डियन अख़बार की रिपोर्ट बताती है भारत में त्वचा को
निखारने का बाजार 43 करोड़ डालर
का है जो करीब 18 फीसदी की दर से हर साल बढ़ रहा है। नुकसान हमारा और फल-फूल रहे है
फेयर/ग्लो/प्रीर्टी दिखाने वालों का बाज़ार।
जबकि
इस तरह की भावना के खिलाफ सरकारी दिशा निर्देश में स्पष्ट किया हुआ है विज्ञापन
में त्वचा के रंग के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव नहीं दिखाना चाहिए। विज्ञापन
में क्रीम के इस्तेमाल के बाद त्वचा पर आये बदलाव को दिखाने के लिए मांडल के चेहरे
पर किसी तरह के स्पेशल इफेक्ट का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। विज्ञापनों में
गहरे रंग की त्वचा को आर्थिक स्तर पर या किसी जाति, धर्म और समुदाय विशेष से जोड़कर
दिखाने की कोशिश नहीं होनी चाहिए।
क्या गोरेपन से मिलनेवाली सुंदरता कोई ऐसी चीज है, जिसे
कोई क्रिम या साबुन दे सकता है? पिछले वर्ष एक टीवी शो में किसी अभिनेत्री के सांवले रंग
पर टिप्पणी के बाद, अभिनेता अभय देओल ने सोसल मीडिया पर गोरेपन से जुड़े उत्पाद के विज्ञापन
करने वाले सितारों पर तल्ख टिप्पणी कर इस बहस को खड़ा कर दिया था।
बाज़ार
के माध्यम से खड़ा हुआ भ्रमजाल और गोरे, सावले या काले रंग को लेकर समाज की बनी
धारणाओं के बीच हमें यह समझना होगा कि सुंदरता का रंग से कोई रिश्ता-नाता नहीं
होता है। हर देश, भौगोलिक क्षेत्र का मौसम और वहां के खानपान के आदतों पर निर्भर
करता है। बाज़ार ने गोरे रंग और निखरे रंग को ही सुदरंता का पर्याय बनाकर पेश किया
है। अपने उत्पादों के माध्यम से बाज़ार के जरिए आर्थिक दोहन और रंगों के आधार पर
विभाजन कर मुनाफाई लूट का महल खड़ा किया है। इससे बाहर निकलने की जरूरत किसी भी
समाज में हर किसी को है क्योंकि बाज़ार आधारित इन विज्ञापनों ने हमारे समाज के
वास्तविक प्रोजेक्शन को छिपाते हुए स्त्री और पुरुष दोनों ही वर्गों में
गैर-बराबरी को ही खड़ा किया है। वह भी इस कदर कि हम अपने यहां काम करने वाली
नौकरानी तक को सजी हुई वस्तु के रूप में ही देखना चाहते है। हमें सोचना होगा,
क्यों?
चेहरा
और शरीर हमेशा जवां और सुंदर दिखे लोगों के अंदर यह ययाति इच्छा(पौराणिक
कहानियों में एक प्रतापी राजा थे जिन्होंने अपने पुत्र से अपनी उम्र बदल की थी।
राजा ययाति की जीवन और यौवन भोगने की इच्छा पूर्ण नहीं हुई थी, एक शाप के कारण
उन्हें असमय बुढ़ापे ने आ घेरा था) बाज़ार ने खड़ी की है समाज ने इसे
दुविधाग्रस्त परिस्थितियों में स्वीकार कर लिया है। हमें यह समझना ही होगा कि
बाजार आधारित रंगभेद एक मानसिक समस्या पैदा कर रही है जिसे मुक्त हुए बिना हमारा
और समाज का समग्र विकास संभव नहीं हो सकता है।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
Thank you for comment