राजनीति की स्त्रीविरोधी वर्णमाला-नीलिमा चौहान

बिहार चुनाव में महिला मतदाताओं की उल्लेखनीय भागीदारी, बल्कि पुरुष मतदाताओं से ज्यादा महिला मतदाताओं के मतदान करने की खबरें सुर्खियों का हिस्सा थीं. महिला मतदाता के रूप एक नागरिक के रूप में कुल नागरिक संख्या में आधे की हिस्सेदार हैं, लेकिन अभी तक राजनीति अपनी भाषा के स्तर पर भी उनके प्रति संवेदनशील नहीं हो पाई है.सबलोग के ' स्त्रीकाल' कॉलम के लिए इसी विषय पर युवा आलोचक नीलिमा चौहान का यह विचार-आलेख. 
यह महज संयोग नहीं है कि देश की राजनीति में महत्त्वपूर्ण पदों पर बैठे हुए राजनेताओं द्वारा जनमंचों के जरिए लगातार स्त्री विरोधी टिप्पणियां की  जा रही हैं। और यह भी महज संयोग नहीं है कि देश की जनता और उस जनता की आधी आबादी बिना किसी प्रकार का संज्ञान लिए इन टिप्पणियों को अनदेखा करती आई है। हाल ही में देश के संस्कृति मंत्री द्वारा दी गई टिप्पणी के स्त्री विरोधी स्वर को लेकर सोशल मीडिया में थोड़े - बहुत हंगामें के साथ ही लोगों ने हालिया अतीत के उन सभी स्त्री विरोधी प्रसंगों को याद तो अवश्य किया परंतु उसके बाद यह बात सदा की तरह आई गई हो गई। दरअसल राजनीतिक सामाजिक मसलों पर समय- समय पर दी गई स्त्री विरोधी टिप्पणियों में राजनेताओं द्वारा इस्तेमाल की गई भाषा ही वह आवरण है, जिसके कारण नेताओं का पितृसत्तात्मक अवचेतन अभिव्यक्त होकर भी आमजन के संज्ञान में नहीं आ सका और उस बयान की अपराधिकता और उस अपराधिकता की गंभीरता के प्रति आम राय अलग अलग होकर रह गई  ।

मुलायम सिंह यादव , नरेंद्र मोदी जैसे सामंती अभिवृत्ति के नेताओं से लेकर अपेक्षाकृत कहीं उदार व समझदार माने जाने वाले नेता अरविंद केजरीवाल तक,  सभी नेताओं ने,  विभिन्न अवसरों पर जाने- अनजाने स्त्री विरोधी भाषा का इस्तेमाल करते हुए यह सिद्ध किया है कि भारतीय राजनीति का तेवर पूरी तरह पुरुषवादी विचार से आक्रांत है. स्त्री के प्रति हिंसा के तमाम रूपों के बारे में अपनी राय जाहिर करते हुए ये राजनेता सामंती समाजीकरण के वशीभूत होकर  बलात्कार को लड़कों की माफी योग्य गलती बताते हैं, तो बलात्कार के विरोध और अपने हकों के लिए आंदोलनरत स्त्रियों को डेंटिड पेंटिड स्त्रियों का टाइम पास घोषित कर देते हैं। और यदि उन्मादी भीड़ किसी युवती को हिंसा का शिकार बनाए बिना छोड़ देती है, तो यह भीड़ की सदाशयता , भलनमसाहत और उदारता की कोटि का उल्लेखनीय कर्म हो जाता है । यदि स्त्री की प्रंशसा करनी हो तो उसे त्याग और सहनशीलता की देवी की पदवी देकर समता के दावों को खारिज कर दिया जाता है ।


देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा बांग़्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की प्रशंसा में की गई टिप्पणी कि ‘ महिला होने के वाबजूद वे आतंकवाद के खिलाफ लड़ रही हैं,’ उतनी ही खतरनाक है जितनी कि इंदिरा गांधी के लिए लिए की जाने वाली प्रशंसात्मक टिप्पणी "ओनली मैन इन द कैबिनेट’’ है ।इस तरह के तमाम तर्कों के पीछे वक्ता की गहरी जेंडर भेदकारी मानसिकता लक्षित होती है। मोदी द्वारा बोले गए इस सामान्य व समाज-सम्मत प्रतीत होने वाले इस वक्तव्य की भाससिक निर्मिति के पीछे स्त्री के लिए चुनौतीपूर्ण व विरोधात्मक सामाजिक वातावरण है । पुरुषों द्वारा अधिशासित दुनिया में एक स्त्री के द्वारा अपना महत्त्व सिद्ध किए जाने पर उस सफलता के लिए पुरुष होने से तुलना किया जाना वस्तुत: उसकी उपलब्धि को कमतर कर देना है और यह तुलना स्त्री के लिए उतनी ही अपमानजनक हो सकती है,  जितना किसी पुरुष के किसी व्यवहार के लिए  " चूड़ियां पहन रखीं हैं " और “स्त्रियों की तरह रोता और डरता है”, जैसी अभिव्यक्तियां. ये अभिव्यक्तियाँ पुरुष को अपने पौरुष का अपमान लगती आई हैं । पुरुषों के लिए जो जेंडर से बद्ध शब्दावली अपमान किए जाने का हेतु बनती है वही जेंडर पोषित शब्दावली स्त्री के लिए सम्मान या प्रशंसा का कारण कैसे हो सकती है ।

बीते अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर अरविंद केजरीवाल का मंचीय भाषण स्त्री विमर्शकारों के द्वारा की गई कटु आअलोचना का शिकार बना । स्त्री की सहनशीलता के लिए चट्टानी ताकत और उफ्फ तक न करने की बात से और अपने परिवार की दो स्त्रियों को अपनी सफलता का श्रेय देकर वे दरअसल स्त्री समाज के प्रति अपनी संवेदनशीलता का परिचय देना चाहते थे.  अरविंद ने जिस प्राकृतिक सहनशीलता की बात की वह दरअसल समाजीकरण के जरिए स्त्री में जबरन आरोपित गुणावली का हिस्सा मात्र है, जिसे उन्होंने सहज मान लिया,  वह गुण वस्तुत: स्त्री पर आरोपित वंचनापूर्ण परिस्थितियों का नतीजा है ; यह  बहुत बारीक व परिपक्व समझ से ही जाना जा सकने वाला सत्य है। अपने परिवार की स्त्रियों  को अपने हिस्से आई शोहरत और कामयाबी  का श्रेय देकर वे नरेंद्र मोदी के द्वारा स्थापित मूल्यों को विस्थापित करना चाह रहे थे, किंतु स्त्रियों पर आरोपित इस महानता के बोझ के निहितार्थ स्त्री के विकास में कितने बड़े बाधक हैं,  यह महीन समझ एक जननेता में नहीं थी। आशय सकारात्मक होते हुए भी अपरिपक्व भाषिक अभिव्यक्ति के कारण एक शिक्षित व समतापूर्ण विचारों के धारक वाली छवि के बावजूद उन्हें स्त्री अस्मिता के प्रति असंवेदनशील होने का दोषी पाया गया ।

वास्तव में स्त्री के प्रति हिंसा और अनुदारता को समाज में स्वीकृत कर्म माना गया है और उसके बरक्स स्त्री के प्रति की गई अहिंसा और ज़रा सी भी उदारता को प्रशंसा की कोटि में रखा जाता  है । किंतु इन परम्परा सम्मत भाषिक संरचनाओं से, यहां तक कि स्त्री की प्रशंसा के लिए प्रयुक्त अभिव्यक्तियां भी एक प्रकार की मेलोड्रामात्मक चेष्टा की प्रतीत होती है। भाषा के ये अर्थ विचलन ही स्त्री की सामाजिक स्थिति की दयनीयता प्रकट करते हैं। राजनीतिज्ञों द्वारा इस तरह के भाषिक छ्लावे के पीछे उनकी अपरिपक्व भाषिक योग्यता के साथ-साथ उनका यह विश्वास भी काम कर रहा होता है कि जनता में भी भाषा को डिकोडीकृत करने की योग्यता नहीं है । इस तरह की अभिव्यक्तियां करते हुए जननेता अपनी सामाजिक छवि व लोकप्रियता की हानि होने की आशंका से मुक्त क्योंकर दिखाई देते हैं। संभवत: इसका कारण यही है स्त्रियों की आबादी को स्वतंत्र राय वाला वोटर समझा ही नहीं जाता,  साथ ही उन्हें यह आश्वस्ति भी होती है उनके द्वारा बोले गए समाज सम्मत और साधारण से लगने वाले कथनों के पीछे की स्त्री विरोधी मानसिकता की भयानकता को समझने लायक योग्यता उन वोटरों में नहीं होगी । संभवत: यह सभी कथन इस आश्वस्ति का भी परिणाम होते होंग़े कि राजनीति पर अंतत: पुरुष समाज काबिज है और उसकी मानसिक संरचना के अनुरूप इस्तेमाल की गई भाषिक अभिव्यक्तियां उनके पुरुषत्व का पुनर्बलन करेगी और अंतत: उन नेताओं को एक सामाजिक स्वीकृति दिलाने का महत कार्य करेंग़ीं ।
जननेताओं द्वारा बलात्कार को लड़कों की भूल मानकर क्षम्य अपराध माने जाने की सलाहियत देते सामंती नेता स्त्री के वस्त्रों और चाल-चलन को अपराध के लिए आमंत्रण का दोषी मानकर पुरुष समाज की यौन हिंसा के कुकृत्यों को स्वाभाविक घोषित करते हैं। बलात्कार से बचने के लिए लड़कियों को रात में घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए ,व मातापिता के नियंत्रण में रहना चाहिए,  जैसे उपदेश जारी करने वाले नेता दरअसल पितृसत्ता को शाश्वत मानकर स्त्री को सदैव निचले पायदान पर रहने वाला प्राणी घोषित कर रहे होते हैं । इस मर्दवादी संरचना में इस सत्ता को काबिज रखने में हर मर्द दूसरे मर्द के साथ है और स्त्री के खिलाफ है । और अपनी भाषा को लेकर इसलिए बेपरवाह है,  क्योंकि उनके द्वारा की गईं इन अभिव्यक्तियों का उनके राजनीतिक कैरियर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है । आज तक के इतिहास में ऎसा नहीं हुआ है कि ,अपनी स्त्री विरोधी टिप्पणियों के कारण किसी नेता को अपने कार्यक्षेत्र में कोई खामियाजा भुगतना पड़ा हो । और न ही कभी स्त्रियों ने अपनी वोट शक्ति के बल पर किसी स्त्री की समता के समर्थक समझदार नेता को चयनित करने की पहल की हो । हमारे देश में धार्मिक , भाषिक , सांस्कृतिक अस्मिताओं पर  बंटे हुए वोट बैंक अवश्य हैं किंतु स्त्री की अस्मिता के आधार पर किसी मत शक्ति का कोई वजूद नहीं है । यही कारण है कि राजनेता मंचों के माध्यम से स्त्री के सम्मान व अस्मिता का दमन करने वाले बयान जारी कर पाते हैं और बिना किसी विरोध या नुकसान को  भुगते अपना राजनीति कैरियर जारी रख पाते हैं ।

राजनीतिक व्यक्तित्वों की भाषा में इस्तेमाल होने वाले उपमान प्राय: सेक्सिस्ट तेवर लिए हुए होते हैं । बीजेपी के नेता कैलाश विजयवर्गीय का यह कथन कि “ जब मर्यादा का उल्लंघन होता है तो सीताहरण होता ही है । औरतों को लक्षमण रेखा नहीं लांघनी चाहिए " जैसे कथनों में प्रयुक्त उपमान नेताओं की मध्यकालीन सामंती सोच को ही परिलक्षित करती है ।  धार्मिक वैमनस्य का निपटारा करने के लिए भी स्त्रियों की देह व सम्मान का हनन करने को सर्वाधिक संहारक नुस्खे के रूप में इस्तेमाल किए जाने की औपनिवेशिक सोच का ही परिणाम है कि आज भी स्त्री राजनीतिक हिंसा का निरीह शिकार बनाई जा रही है । खाप पंचायतों से लेकर राजनीतिक पार्टियों तक के सत्ताधीन स्त्री के प्रति हिंसा को प्रतिशोध व दंड का एक अचूक उपाय मानते हैं । टीएमसी नेता तापस लाल का कथन कि वे "अपने कार्यकर्ताओं को माकपा की महिलाओं के रेप करने के लिए भेजेंग़े " जैसी अभिव्यक्तियां दरअसल स्त्री के प्रति भाषिक हिंसा का उदाहरण है। अचरज है कि कार्यस्थलों पर यौनिक हिंसा को प्रतिबद्ध करने वाले कानूनों की सीमा में सत्तासीन व्यक्तियों के मुखारविंद से निःसृत होने वाली यह हिंसात्मक टिप्पणियां नहीं आती और बिना किसी कानूनी कार्यवाही के ऎसे बयान देने वाले नेता नि:शंक घूमा करते हैं । संसद में भी स्त्री सांसदों के लिए सेक्सिस्ट टिप्पणियों के लिए आजतक किसी नेता पर यौन हिंसा का मामला दायर करने का कोई उदाहरण महिला सांसदों ने भी पेश नहीं किया है ।

पितृसत्ता स्त्री को ही स्त्री के खिलाफ इस्तेमाल करती है । जैसे औपनिवेशिक दासता को पुखता करने में स्वजातीय लोगों का और दलित उत्पीड़न में दलित को ही एक आसान और सस्ते टूल की तरह इस्तेमाल किया जाता है । पितृसत्ता की कोई भी इकाई को ले लीजिए , सबमें स्त्री को ही शोषण  का माध्यम और उपकरण दोनों ही बनाया जाता है।जिस भाषिक संरचना के जरिए पितृसत्ता का आधिपत्य बना हुआ है वह वस्तुत: माओं की गोद के माध्यम से संतानों के बहुत भीतर तक प्रवाहित कर दी गई  है। स्त्री को ही पितृसत्ता का सहज माध्यम बनाकर पोषित किए गए संस्कारों का ही नतीजा है कि प्राय: स्त्री ही स्त्री के विरुद्ध पितृसत्ता की वकालत करती पाई जाती है। यही कारण है कि ममता बनर्जी जैसी नेता भी अपने प्रदेश की बलात्कृत स्त्री को यौन कर्मी बताकर उसके खिलाफ हुए अत्याचार की भयावहता को कम आंकती पाई जाती हैं । दमन के दुष्चक्र में फंसी स्त्री के पास अपने तात्कालिक बचाव के लिए किसी झूठे दिलासे में फंसने के उपाय के सिवाय जब कोई विकल्प व कोई सूझ नहीं होती तब वह पितृसत्ता के द्वारा इस्तेमाल किए जाने के लिए सबसे भरोसे का औजार मात्र होकर रह जाती है । वाले भाषा व भावों के मर्मज्ञ विद्वत जगत में भी इस तरह की बयानबाजी को डीकोड करने की क्षमता नहीं पाई जाती विरोध की बात तो बहुत दूर की बात है ।

जब मुरली मनोहर जोशी कहते हैं कि ‘ रेप के लिए वेस्ट्रन कल्चर दोषी है । भारतीय संस्कृति तो महान है .’  तब वे यह जानते हैं कि उनकी अपने वक्तव्य के प्रति कोई जवाबदेही नहीं बनती और जनता उनसे यह नहीं पूछेगी कि फिर यह महान संस्कृति पुरुषों को बलात्कार करने से रोक क्यों नहीं पाती? नेताओं की इस दुराव भरी मर्दवादी भाषिक अभिव्यक्तियों का राजनीति से कोई लेना देना नहीं है, यह राजनेता भलीभांति जानते हैं, इसलिए उनके वक्तव्यों और खाप पंचायतों की निरंकुशता में कोई अंतर नहीं है । हमारे देश की जनता धार्मिक वैमनस्य वाली शब्दावली के प्रति जितनी संवेदनशील है, उतनी ही संवेदनहीन वह स्त्री विरोधी शब्दावली के लिए है,  इसलिए भारतीय सत्ता में केवल पुरुष या पुरुष प्रधानता दिखाई देती है और स्त्री को आरक्षण दिए जाने संबंधी विधेयक कई वर्षों से लम्बित है और स्त्री की राजनीति में सहभागिता का प्रश्न बना हुआ है ।
किसी भी व्यवस्था की स्वीकृत भाषिक संरचना उस व्यवस्था के द्वारा स्वीकृत मूल्य चेतना का ही प्रतिफल होती है। इसलिए यह दावा करना कि किसी प्रकार का स्त्री विरोधी कथन केवल नेताओं की जिह्वा का विचलन मात्र है,  पूर्ण सत्य नहीं हो सकता। भाषा के जरिए अभिव्यक्त होने वाली व्यवहार सरणियां वक्ता के अवचेतन का प्रकटन करती हैं। इसलिए नेताओं द्वारा कथित स्त्री विरोधी टिप्पणियों के निहितार्थों को गंभीरता से लिया जाना और इस तरह की मानसिकता के सुधार के लिए उपचारात्मक और निदानात्मक प्रक्रियाओं को दुरुस्त किया जाना चाहिए। स्त्री की सत्ता में सहभागिता का दिवास्वप्न यथार्थ में परिवर्तित हो जाने के लिए यह सवार्धिक आवयक है कि मंचस्थ होकर सार्वजनिक रूप से कही गई स्त्री विरोधी टिप्पणियों के लिए नेताओं को जिम्मेदार ठहराए जाने के लिए कोई वैधानिक कार्यवाही का प्रावधान हो । यह भी आवश्यक है कि नेताओं के लिए सीमांतीय अस्मिताओं के प्रति संवेदनशीलता की पैदाइश करने के मकसद से जेंडर संवेदनशीलता की कार्यशाला आयोजित की जाएं। विद्वत स्त्री समाज का यह विशेष दायित्व बनता है कि सोशल मीडिया जैसे मंचों पर इस तरह के मुद्दों की गंभीरता के प्रति संवेदनशीलता पैदा की जाए । शिक्षा के मौलिक प्रारूप में बालिकाओं को अपनी अस्मिता की पहचान और उसके दमन का विरोध करने की चेतना पैदा करने की फौरी पहल की जानी चाहिए ।
(आभार: पेशे से प्राध्यापक नीलिमा 'आँख की किरकिरी ब्लॉग का संचालन करती हैं. संपादित पुस्तक 'बेदाद ए इश्क' प्रकाशित संपर्क : neelimasayshi@gmail.com, यह लेख मूल रूप से स्त्रीकाल, स्त्री के समय का सच, के लिए लिखा गया है।
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