मुहब्बत का तेज़ाब और चाकू से कत्ल करने वाला कैसा मुल्क है हमारा- प्रत्युष प्रशांत

इश्क, मुहब्बत और प्रेम जैसे शब्द जितना अधिक रोमांचित करते हैं, गुदगुदाते हैं और कभी-कभी असहज भी करते हैं, वो सामाजिक निगरानी के कारण और अधिक दुरूह भी हो जाते हैं। मुझे लगता है कि मीठा सा एहसास जगाने वाला यह भाव भारतीय समाज में जीवन जीने के सलीकों से जुदा रह जाता है। शायद इसीलिए मुहब्बत कभी तेज़ाबी हमलों में झुलस जाती है तो कभी प्रेम करने वालों के जीवन, अस्तित्व और अस्मिता को तार-तार कर दिया जाता है।



कभी प्रेम को लव जेहाद का नाम दिया जाता है तो कभी यह ऑनर किलिंग की वजह बन जाता है। खाप पंचायतों के लिए यह प्रेम ‘इज्ज़त’ का सवाल बन जाता है और उसे कुंठित मानसिकताओं की सूली पर चढ़ा दिया जाता है।
होश संभालने के कई दिनों बाद तक मैं यही मानता रहा कि प्रेम दो लोगों का निजी मामला है, पर प्रेम पर सामाजिक निगरानियों ने मेरी इस धारणा को तोड़ दिया। लगातार ऑनर किलिंग और कथित ‘लव जेहाद’ के कई मामलों ने यह साबित कर दिया है कि दो व्यक्तियों का प्रेम एक सामाजिक मामला है जिस पर राजनीतिक माइलेज भी लिया जाता रहा है। किसी कविता की शैली में या जर्मन विचारक एरिक फ्रॉम के शब्दों में- “प्रेम दो व्यक्तियों के बीच का मामला है।” पर मसला यह है कि हमारा समाज दो व्यक्तियों के प्रेम को वैयक्तिकता का निर्माण करने ही नहीं देता है।
ऑनर किलिंग या तथाकथित लव जेहाद के इन मामलों ने किसी हादिया या अंकित सक्सेना को नहीं, बल्कि कई लड़के और लड़कियों के परिवार वालों और सामाजिक उपद्रवियों को एक ही कटघरे में ला खड़ा किया है। हमारे सामने रिज़वानुर रहमान मर्डर केस, भावना-अभिषेक हत्याकांड, मनोज-बबली हत्या का मामला, नितीश कटारा हत्याकांड, निधि-धर्मेंद्र मर्डर केस जैसे कई मामले हैं जो साबित करते हैं कि कविताओं, किस्से-कहानियों और सिनेमा के पर्दे पर गुनगुनाने वाला सतरंगी प्यार, सामाजिक जीवन की चुनौतियों के सामने ठिठक जाता है। ये प्यार खामोशी से अपने जीवन में वापस हो जाता है या खत्म हो जाता है।
भले ही लिखा और कहा जाता रहा हो कि प्रेम जाति, धर्म, ऊंच-नीच, भेदभाव या परंपरा नहीं देखता, लेकिन प्रेम के हवाले से उठता हुआ हर सवाल समाजिक चौहद्दियों के सामने जवाब की आस में बस बैठा ही रह जाता है। भले ही आर्थिक और तकनीकी बदलावों ने प्रेम का स्वरूप बदला दिया हो, लेकिन प्रेम पर आज भी कई मुगलेआज़मों की निगहबानी जारी है। अगर आंकड़ों को देखें, तो एक भयावह तस्वीर उभरती है-
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार साल 2014 में ऑनर किलिंग के 28, 2015 में 192 और 2016 में 68 मामले सामने आए। 2015 और 2016 के बीच गैर-इरादतन हत्या के 65 ऐसे मामले सामने आए जिनमे ऑनर किलिंग उद्देश्य था। इसके अलावा कथित अवैध प्रेम संबंधों को लेकर भी हत्याओं का आंकड़ा भयावह है। 2015 में उत्तर प्रदेश में 383, तमिलनाडु में 175, बिहार में 140 और गुजरात में 122 ऐसे आपराधिक मामले दर्ज हुए थे जो प्रेम संबंधों से जुड़े थे।
ये तमाम आंकड़े समाज की लोकतांत्रिक कही जाने वाली संस्थाओं के सामने भी कई सवालों को उठाते हैं, जिनसे आंख चुराकर हम हिंसक समाज की तरफ ही बढ़ रहे हैं। सवाल है कि लोगों को प्रेम करने से कौन रोक रहा है?
कौन है जो लव जैसे खूबसूरत शब्द में जिहाद जैसा शब्द जोड़ रहा है? वो कौन है जो एक बालिग से अपने पसंद का लड़का या लड़की चुनने का अधिकार छीन रहा है? कौन है जो मरने वाले को धर्म से जोड़कर देखता है? और सबसे ज़रूरी सवाल कि कौन सी सामाजिक मनोवृत्ति इसको बढ़ावा दे रही है?
क्या मान लिया जाए कि प्रेम, ऑनर किलिंग या लव जेहाद के तमाम मामलों में, दो हिस्सों में बंटता हुआ समाज ही आखरी सच है? क्योंकि इन मामलों में सर्वण, पिछड़े, दलित होने या कम पढ़े-लिखे होने या कम आर्थिक क्षमता के होने की दलील ठहरती नहीं है।
ज़ाहिर है कि समाज की मानसिकता में बदलाव के लिए और अपराधियों को राजनीतिक या सामाजिक संरक्षण न मिले, इसके लिए ऑनर किलिंग या लव जेहाद के मामलों के निपटारे के लिए अलग से कानून बनाया जाना ज़रूरी है। यह भी ज़रूरी है कि इस तरह की घटनाओं के समय वहां मौजूद और वहां से गुज़रते हुए लोगों में भी सामाजिक ज़िम्मेदारी को मज़बूत किया जाए। अन्यथा अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होकर हम सिर्फ तालिबानी संस्कृति की तरफ ही बढ़ रहे हैं। कहीं ऐसा ना हो कि सिनेमाई प्रेम कहानियों पर हम चिप्स के पैकट फाड़ते रह जाएं और हमारे अंदर के प्रेम को कभी मज़हबी, कभी जातीय तो कभी जेहादी बना दिया जाए।
(आभार: यूथ की आवाज, लेख मूल रूप से यूथ की आवाज के लिए लिखा गया है)

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