पुरुषों को भी समझना होगा कि सैनिटरी पैड पर नीला रंग, लाल क्यों नहीं हो सका?- Jasvir Mehlu

टीवी पर आने वाले सैनेटरी पैड के ऐड में नीले रंग के साथ प्रयोग करते हुए दिखाया जाता है। उनका ऐसा करना हमारी आज की तथाकथित ‘विकसित’ (या कहें संकुचित) सोच को दिखाता है। इनमें वो लाल रंग नहीं दिखता जो असल में होता है, पता नहीं वो किस चीज़ से डरते हैं? उनमें इतना साहस क्यों नहीं है कि उसे सीधा दिखा सकें? मासिकधर्म जैसी प्राकृतिक शारीरिक प्रक्रिया को अप्रत्यक्ष रूप से क्यूं समझाया जाता है?  इस विषय पर गुप्त रूप से बात रखी जाती है, कई बार इस विषय पर बात करना भी हमारे लिए एक समस्या बन जाता है।
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मेरे साथ तो कुछ ऐसा हुआ था कि जब मैं टीवी पर ‘व्हिस्पर’ का ऐड देखता था तो समझ नहीं आता था कि ये किस चीज़ का ऐड था। फिर मन कहां रुकने वाला था, मैंने अपने मन में इस ऐड की गलत ढंग से व्याख्या करनी शुरू कर दी। उसमें दिखाते हैं कि कैसे पैड नीला रंग सोखता है और मैं उसे कुछ और ही समझने लगा।
मैं सोचता था कि यह शायद जूतों के अंदर डालने की कोई चीज़ है, क्योंकि उसका आकार जूते के अंदरूनी हिस्से के हिसाब से ठीक लगता था। फिर मन बार-बार ये सोचता कि यह शायद पैरों में आने वाले पसीने को सोखने की चीज़ है। फिर ये भी खयाल आता कि मैंने आज तक ऐसी चीज़ें किसी के जूतों में नहीं देखी। शायद गांव मे लोग इसका प्रयोग न करते हों, केवल शहर वाले ही करते हों।
समय के साथ मुझे कॉलेज के दूसरे वर्ष में किसी शहरी दोस्त से पता चला इस ‘रहस्य’ के बारे में। कभी-कभी यह सोचकर मुझे हैरानी होती है कि जब एक ‘शिक्षित पुरुष’ यानि कि मुझे यह जानकरी इतनी देर से पता चली तो फिर गांव की लड़कियों और अनपढ़ लोगों (महिला और पुरुष दोनों ही) का क्या?
भारत मे अधिकांश महिलाएं सैनेटरी पैड का इस्तेमाल नहीं करती हैं। जो करती हैं उनमे भी बड़ा तबका आर्थिक रूप से सम्पन्न और जागरूक शहरी महिलाओं का ही है। दूसरी तरफ सरकार सैनेटरी पैड पर टैक्स लगा रही है। ये तो औरतों की बुनियादी ज़रूरत है, कोई ऐशो-आराम की वस्तु नहीं। इसको तो टैक्स फ्री करना चाहिए और इस पर सब्सिडी दी जानी चाहिए। हमारे स्कूलों में 9वीं क्लास में जीव विज्ञान में प्रजनन का जो एक अध्याय आता है उसको भी हमारे ‘पढ़े-लिखे’ गुरुजी ये कह कर छोड़ दिया करते थे कि ये पढ़ाने लायक चीज़ नहीं है। इतना बोलकर वह आगे बढ़ जाते थे और अपने आप पढ़ लेना का बहाना बनाके बच निकलते थे।
आज के पूंजीवादी दौर में इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास तो बहुत हो चुका है लेकिन अब सामाजिक विकास की ज़रूरत है। आज 21वीं सदी में भी हम इन विषयों पर बात करने से कतराते हैं, जबकि ‘पैडमैन’ जैसी बड़ी कमर्शियल फिल्में बन रही हैं। अब इन फिल्मों से लोग कितना सीखेंगे, पता नहीं।
अब समय है कि हम उन विषयों पर खुलकर बात करें, जो आज तक छिपाए गए हैं। एक अच्छा स्वस्थ माहौल बनाने की सख्त ज़रूरत है, जिससे पुरुष भी महिलाओं के मुद्दों को अच्छे से समझ सकें। महिलाओं की मानसिक और शारीरिक समस्याओं को जानेंगे तो मीडिया को भी लाल रंग की जगह नीला रंग दिखाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।
(आभार: यूथ की आवाज, लेख मूल रूप से यूथ की आवाज के लिए लिखा गया है)

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