आमिर खान और उनकी बेटी का अपमान: सिलसिला पुराना है, ट्रॉल्स नये हैं- ज्योति प्रसाद

शाहजहाँ-जहांआरा से लेकर आमिर खान और उनकी बेटी तक बाप-बेटी के सहज रिश्तों को लेकर ट्रॉल्स समाज में हमेशा रहे हैं. अभी सोशल मीडिया पर उन्हें एक स्पेस है. ऐश्वर्या राय भी अपनी बेटी को लिप किस के लिए ट्रोल हुई हैं. नेहरू को लेकर तो उनके परिवार के रिश्तेदारों के साथ सहज रिश्तों का भी मजाक उड़ाया है देश के कथित सबसे बड़ी पार्टी के आईटी सेल ने. प्रधानमंत्री खुद ऐसे लोगों को फॉलो करते हैं, ऐसे कार्टूनिस्टों के कार्टून रिट्वीट करते हैं. ज्योति प्रसाद का समसामयिक लेख: 
ऐसी बात नहीं है कि आज के समय में ही ट्रॉल्स की पैदाइश हुई है। ये लोग पुराने जमाने से ही जोंक की तरह दूसरों का खून पीकर जीवित होते रहे हैं। आज जब हमारी दुनिया इंटरनेट से गहराई से जुड़ी है तब भी इन लोगों ने चारपाई के खटमल की तरह आभासी दुनिया में जगह बनाई हुई है। किसी ने कोई फोटो या अपने विचार साझा किए नहीं कि ये लोग तुरंत गंदे शब्दों की बारिश करने पहुँच जाते हैं।

एक बार की बात है। हम काफी छोटे थे। बिजली के गुल हो जाने पर रात के समय आपस में जुड़ती हुई छतों पर अपनी-अपनी उम्र के मुताबिक़ मोहल्ले के बड़े और बच्चे अपने समूह बनाकर अंताक्षरी जैसे खेल खेलते थे या फिर देश दुनिया की खबरों पर बड़े बहस किया करते थे। एक दिलचस्प समूह ऐसा भी था जो गांधीजी के बारे में तमाम तरह के विचार रखता था। ऐसे ही किसी समूह में किसी पुराने जमाने के ट्रोलर ने गांधी जी के लिए कुछ ऐसा कहा जिससे उसी रात में झगड़े की स्थिति पैदा हो गई। उस व्यक्ति को गांधीजी का दो लड़कियों के कंधों के सहारे चलना पसंद नहीं था और उसी को निशाने पर लेकर वह जब तब इस बात को कह दिया करता था। ऐसा ही एक रोज़ उसने फिर से कहा। उसे बीच में ही डांटते हुए एक अंकल जो काफी पढे लिखे भी थे बोले- “जुबान पर लगाम रखो। बहन बेटियों के कंधों का सहारा लेकर चलने में क्या दिक्कत है? बहन और बेटियों को अगर अलग-थलग रखोगे तब ज़िंदगी में सोच के स्तर पर पीछे ही रहोगे। समझे! आगे से याद रखना जो इस तरह की बात मुंह पर कभी लाये।” उसके बाद कभी इस तरह की जुबान का इस्तेमाल करते हुए उस व्यक्ति को नहीं सुना। कम से कम वह सबके बीच अब यह बात नहीं कहता था। यह तब की बात है जब ट्वीटर, फेसबुक या अन्य तकनीक जगत नहीं थे।

कॉपी कैट हैं ट्रॉल्स 
हाल ही में जब मार्क जुकरबर्ग को अमरीकी सीनेट में डेटा लीक के मामले में तलब किया गया था तब वहाँ मौजूद लगभग बहुत से सीनेट्स ने सवाल जवाब करते हुए मार्क जुकरबर्ग को गजब की लताड़ लगाई थी। एक शब्दावली (टर्म) का बार-बार इस्तेमाल किया गया था- ‘औसत अमरीकन’ (एवरेज अमेरिकन)। सीनेट के सदस्यों का कहना था कि बहुत सी तकनीक की पेचिदगियाँ एक औसत अमरीकन को समझ नहीं आ सकतीं। और आप इस चीज का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। ख़ैर यहाँ औसत होना एक अलग संदर्भ है। लेकिन एक महीन धागा इन तकनीकी ट्रॉल्स से भी जुड़ा है जो औसत दर्जे में भी नहीं हैं। समझ और जुबान के मामले में कम-से -कम वे औसत भारतीय नहीं दिखते। करीना कपूर के कपड़ों के बारे में यह कहना कि अब वे माँ हैं और उन्हें ऐसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए, जैसी बात करने वाले क्या औसत समझ के व्यक्ति हैं?

ठीक इसी तरह से ट्रॉल्स में इतनी समझ नहीं होती कि वे तथ्यों और बातों, रिश्तों आदि को गहराई से समझे। वे अमूमन एक ही धारा में एक दूसरे को देखकर ट्वीट या फेसबुक पर कमेंट्स करते जाते हैं। वे एक तरह के कॉपी कैट हैं। इसलिए जब भी कोई उनके पसंद के और गैर-पसंद के जाने पहचाने चेहरे कोई भी फोटो साझा करते हैं या पोस्ट लिखते हैं तब पहले से तैयार बैठे ट्रॉल्स सही गलत का रुख तय कर देते हैं। आमिर खान ने जब अपनी बेटी के साथ की तस्वीर फेसबुक पर साझा की तब उस तस्वीर में मौजूद पिता बेटी के बीच की केमिस्ट्री को न देखकर उन्हें ट्रोल करने की तैयारी कर के मैदान में एक साथ बहुत से लोग मैदान में उतर गए। एक बाद एक कमेंट दिये गए। और हर टिप्पणी पहले वाली नफरत से भरी टिप्पणी की कड़ी ही नज़र आई। मतलब की एक का विचार किसी दूसरे ने बिना सोचे समझे लिया और अपनी राय किसी दूसरे व्यक्ति की राय पर बनाई।  
सस्ती सोच के मालिक हैं.

अमूमन ट्रॉल्स के सोशल मीडिया अकाउंट्स पर मौजूदा काम, नाम और तस्वीर पर निगाह डाली जाये तो पता चलता है कि तस्वीर तो सुसंस्कारी चिपकाते हैं और पर लफ़्फ़ाज़ी में दो-टकिये से ज़्यादा कुछ नहीं होते। सवाल यह भी है कि इस तरह की चरसी जुबान वे पाते कहाँ से हैं? इतिहास में इनकी खोज की जाये तब भी इनके पूर्वज वहाँ मिल जाएँगे। मुग़ल साम्राज्य के बादशाह शाहजहाँ की बड़ी बेटी जहाँआरा बेगम का शासन में पर्याप्त सहयोग और दखल था। खुद उसका रूतबा भी बड़ा था और वे कई अहम फैसले भी लिया करती थी। बादशाह उसे कई मसलों पर मशविरा लेते थे। कट्टर माने जाने वाला औरंगजेब भी उसे सम्मान देता था। वह शाहजहाँ की प्रिय संतान थी और अंत तक उसने बादशाह की सेवा भी की। लेकिन यह तस्वीर का एक पहलू है। इसके उलट पीठ पीछे उसे और शाहजहाँ को लेकर फब्तियाँ भी कसी जाती थीं। हालांकि जहांआरा के बारे में पढ़कर पता चलता है कि वह काफी खुद्दार और बुद्धिमान बेटी थी जिसने लेखन के जगत में भी अपना सहयोग दिया।
पिता और बेटी के बीच के रिश्ता.

सोशल मीडिया पर ही एक तस्वीर बहुत तेज़ी से वायरल हो रही है। तस्वीर में एक बच्ची सिर पर दुपट्टा ओढ़े बेलन से चपाती बेलती हुई दिख रही है और बगल में लिखा है कि नहीं रहेंगी बेटियाँ तो कैसे खाओगे उनके हाथ की रोटियाँ। हमारे आसपास इस तरह की तरस खा जाने वाली सोच है कि आप दो पल को माथा पकड़ कर बैठ जायेंगे कि क्या पागलों का शहर है! हाल ही में ‘राज़ी’ फिल्म आई है। लोगों के रुझान के मुताबिक़ फिल्म काफी अच्छी है। मैंने यह फिल्म अभी तक नहीं देखी। लेकिन फिल्म का एक गाना बड़े ज़ोरों से लोगों में लोकप्रिय हुआ है। ‘मुड़कर न देखो दिलबरों,...फसलें जो काटी जाएँ उगती नहीं हैं, बेटियाँ जो बिहाई जाएँ मुड़ती नहीं हैं...! ऐसी ही फिल्म ‘जॉनी मेरा नाम’ में जब हेमा मालिनी ‘बाबुल प्यारे गीत’ पर नाचती हैं तब कितने ही लोग रोने लगते हैं। ‘साडा चिड़िया द चंबा वे, बाबुल अस्सी उड़ जाना…! इसी तरह एक गाना और याद आ रहा है,‘लिखने वालों ने लिख डाले मिलन के साथ बिछोड़े अस्सा हुन्ण टुर जाणा ए दिन रह गए थोड़े...! ऐसे ही मेरे पड़ोस में रक्षाबंधन में एक गीत बजाया जाता है जिसमें एक लड़की महिला गीतकार गाती है- ‘कितने दिन और कितनी रैने इस आँगन में रहना है मैंने, परदेसी होती हैं बहनें...! कुल मिलाकर यही छवि है। ये सभी गीत बहुत ही सुरीले हैं। अच्छे लगते हैं। कई लोगों की प्ले लिस्ट में भी होंगे। पर दिमाग पर ज़ोर डालकर सोचिए क्या हमने कभी ऐसे गीत सुने जिसमें कोई पिता गा रहा हो- ‘मेरा नाम करेगी रोशन, जग में मेरी राज दुलारी!’ पराई अमानत है। दूसरों के घर का धन है। (इंसान भी नहीं है) कन्यादान करना पुण्य का काम है। हमारे घर की इज्जत है।
आज भी हालात इन सब से बहुत अलग तो नहीं हैं। कुछ इस तरह की सोच ही दिखती है। हमारे घरों में हज़ार बार सुनने को मिल ही जाता है- ‘तुझे तो दूसरे के घर जाना है!’ मामूली सा वाक्य है पर गौर से देखिये। कुछ मिनट निहार कर सोचिए कि हमने अपनी खुद की बेटियों को किस तरह बांध कर रखा है। एक छवि और अनुमानित व्यवहार की ही अपेक्षा में हम मरे जाते हैं। लड़की जरा सी हिली नहीं कि हाय-तौबा मच जाती है। अपनी बेटियों और बहनों के लिए हमारे मापदंड आज भी बेहद कठोर हैं। बचपन से यह तय किया जाता है कि जब बाप-भाई घर में हों तब चुन्नी की जगह क्या हो, व्यवहार क्या हो...सब कितना सलीके से इंजेक्ट किया जाता है! यही वजह है कि आमिर और उनकी बेटी की तस्वीर शूल की तरह चुभ रही है।

सेल्फी विद डॉटर वाले देश में 
पिछले साल ही‘सेल्फी विद डॉटर’ नाम का एक अभियान प्रकाश में आया था। तमाम तरह के जाने पहचाने चेहरों ने अपनी-अपनी बेटियों के साथ फोटो खींचकर सोशल मीडिया पर साझा की थीं। देश में पहले से ही चल रहे ‘बेटी बचाओ अभियान’ के एक अंग के रूप में इसे देखा गया था। तब इस अभियान की काफी तारीफ और चर्चा हुई थी। इतना ही नहीं पिछले साल ही जून के महीने में पूर्व राष्ट्रपति ने सेल्फी विद डॉटर एप का औपचारिक उद्घाटन भी किया था। इन्हीं ट्रॉल्स ने तब इसे हाथों हाथ लिया था और तारीफ में शब्दों की झड़ी ही लगा दी थी। फिर अचानक आमिर और उनकी बेटी के फन टाइम तस्वीर को लेकर इतना हल्ला क्यों है, समझ नहीं आता। आमिर खान और उनकी बेटी की फोटो तो और बेहतरीन है। फिर इस बार ट्रॉल्स को इस फोटो से क्या परेशानी है? यह दोहरा रवैया है। क्या आमिर के नाम के पीछे लगा अधिनाम इसकी वजह है? इस बात पर भी गौर किया जाना चाहिए। पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने इंस्टाग्राम के अकाउंट पर खुद का परिचय लिखते हुए सबसे पहले ‘पिता, पति, राष्ट्रपति और नागरिक’ (Dad, husband, President, citizen.) लिखते हैं।क्या इससे अच्छा परिचय कहीं और मिलेगा? क्या बेटियों के साथ वक़्त गुजारना निशाने पर आना है?

रमजान के दिन अपने आप में ही समर्पण और त्याग के दिन माने जाते हैं। व्यक्ति से सद्व्यवहार की अपेक्षा रहती है। यह तो कहीं नहीं लिखा कि अपने बच्चों के साथ सुखमय पल बिताना मना है। दूसरों के लिए गलत ज़ुबान का इस्तेमाल और उनके जीवन में दखलंदाज़ी गलत ही मानी जाती है। यह विवाद यह भी बताता है कि समाज और व्यक्ति की सोच के स्तर पर हम विकसित नहीं हो पाये हैं। हमलावर भाषा की ईजाद हो चुकी है और और की-बोर्ड के सहारे किसी दूसरे के चरित्र और उसके मापदंड को तय किए जा रहे हैं। हाल ही में कान फिल्म उत्सव के दौरान ऐश्वर्या राय और उनकी बेटी की किस करते हुए फोटो पर यह कहा गया कि यह गलत है। बेटी के होंठों पर किस नहीं किया जाता। हालांकि अपने बच्चे को प्यार करना नितांत प्राकृतिक है। माँ अपने बच्चे को जब तब चूमती ही है। यह प्यार का एक रूप है।

मुद्दा तो यह होना चाहिए था कि लड़कियों की सुरक्षा, शिक्षा, हर क्षेत्र में पर्याप्त अवसर और भागीदारी, समान व्यवहार, कुपोषण आदि मुख्य विषयों पर समुचित चर्चा हो पर हम और आप एक प्यारी सी तस्वीर के बचाव में कलम चला रहे हैं। यही वे आमिर खान हैं, जिनकी पिछले साल की ‘दंगल’फिल्म पर हम सब वारे-न्यारे जा रहे थे। बार बार फिल्म की चर्चा कर रहे थे। विदेशों में भी इस फिल्म की चर्चा और कमाई बेमिसाल रही थी। अपनी बेटियों को कुश्ती सिखाते हुए यही आमिर उर्फ महावीर सिंह फोगट हमें अच्छे लग रहे थे पर यही आमिर अपनी बेटी के साथ की एक तस्वीर में बुरे लग रहे हैं। यही दोहरापन है हमारे समाज और उसकी सोच का।
(आभार: स्त्रीकाल, लेख मूल रूप से स्त्रीकाल के लिए लिखा गया है)

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