बिहार की शिक्षा व्यवस्था को चाणक्य की तलाश है-2- प्रत्युष प्रशांत


बिहार देश का शायद पहला राज्य होगा जहां के गांवों में जो बच्चा सबसे अधिक शिक्षित है वह मात्र छठीं जमात पास है। बिहार के ज्यादातर इलाकों, विशेषकर ग्रामीण इलाकों  में अशिक्षा का साम्राज्य फैला हुआ है l बिहार में अधिकतर प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की संरचनाएँ अपनी बदहाली की व्यथा बयां कर रही हैं।


यह स्थिति तब है जब सुशासन कुमार के नाम से मशहूर मुख्यमंत्री नीतिश कुमार कमोबेश 2000 से निश्चित अंतराल के बाद बिहार के शीर्ष पद पर विराजमान है। उन्होंने प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्थ करने के लिए बड़े पैमाने पर शिक्षा मित्रों और संविदा पर उन शिक्षकों की नियुक्ति की, जिनमें अधिकांश अयोग्य थे।
माध्यमिक शिक्षा की बदहाल स्थिति को तो खुद बिहार सरकार के आँकड़े साबित करते हैं l अनुमानित आँकड़ों के अनुसार 5500 ग्राम पंचायतों में अब भी एक भी माध्यमिक स्कूल नहीं है। राज्य में 8400 से अधिक ग्राम पंचायत है, जिनमें से 5500 में एक भी माध्यमिक स्कूल (सेकेंडरी) नहीं है। यानि कि 65 प्रतिशत से भी ज्यादा पंचायतों में एक भी माध्यमिक स्कूल नहीं है।
आज यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है कि आज सरकारी प्राथमिक/माध्यमिक विद्यालय केवल दोपहर के भोजन देने का केन्द्र बनकर रह गए हैं। केन्द्र सरकार सर्वशिक्षा अभियान और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (आरएमएसए) के तहत हजारों करोड़ रुपये राज्यों को मुहैया कराती है। आरएमएसए के तहत 949 मध्य विद्यालयों को उन्नत किया जाना है। केंद्र ने आरएमएसए के तहत पांच किलोमीटर की परिधि में कम से कम एक माध्यमिक स्कूल खोलने का लक्ष्य रखा है। बिहार इन लक्ष्यों की प्राप्ति से कोसों दूर है l
प्राथमिक शिक्षा की इस दयनीय स्थिति के बारे में ग्रामीण इलाकों के लोग कहते हैं कि सरकार चाहे किसी की भी हो, लालू-राबड़ी की या नीतिश कुमार की , किसी ने भी प्राथमिक शिक्षा की स्थिति सुधारने की तरफ ध्यान नहीं दिया। हमें अब किसी सरकार से कोई उम्मीद नहीं है कि कोई इधर ध्यान देगा! हमारे यहाँ सही मायनों में प्राथमिक शिक्षा नाम की कोई चीज नहीं है। इसीलिए हमारे बच्चे अभी भी मजदूरी करने या गाय-गोरू चराने के लिए विवश हैं प्राथमिक शिक्षा की तरफ सरकार की ओर से ध्यान दिया जाता तो हालात कुछ अलग होते|”
इस बात से समस्त बिहार भली-भाँति परिचित है कि आज बिहार में सर्व शिक्षा अभियान अपने लक्ष्य से भटक चुका है। इस भटकाव मे में भ्रष्टाचार की कितनी भूमिका है यह शायद बिहार के शीर्ष-सत्ता से छुपा हुआ नहीं होगा !
नॉबेल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री श्री अमर्त्य सेन द्वारा पटना में प्रस्तुत एक सर्वेक्षण -रिपोर्ट के मुताबिक चार मुख्य बातें कही गईं थीं :
1.पहली ये कि सरकारी प्राथमिक/माध्यमिक विद्यालयों में इन्फ्रास्ट्रकचर यानी बुनियादी ज़रूरतों वाले ढाँचे का घोर अभाव यहाँ स्कूली शिक्षा की स्थिति को कमज़ोर बनाए हुए है
2.दूसरी बात ये कि शिक्षकों और ख़ासकर योग्य शिक्षकों की अभी भी भारी कमी हैl जो शिक्षक हैं भी, उनमें से अधिकांश स्कूल से अक्सर अनुपस्थित पाए जाते हैं
3.निरीक्षण करने वाले सरकारी तंत्र और निगरानी करने वाली विद्यालय शिक्षा समिति के निष्क्रिय रहने को इस बदहाल शिक्षा-व्यवस्था का तीसरा कारण माना गया है
4.चौथी महत्वपूर्ण बात ये है कि बिहार के स्कूलों में शिक्षकों के पढ़ाने और बच्चों के सीखने का स्तर, गुणवत्ता के लिहाज़ से बहुत नीचे है
बिहार सरकार वयस्क साक्षरता, ख़ासकर स्त्री-साक्षरता बढ़ाकर प्राथमिक/माध्यमिक शिक्षा के प्रति ग्रामीण जनमानस में रूझान बढ़ा सकती है विगत वर्ष ही बिहार को लेकर जारी एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार करीब 96.4 प्रतिशत विद्यालयों में शिक्षक-छात्र अनुपात ठीक नहीं है। 52.3 प्रतिशत विद्यालयों में शिक्षक-क्लास रूम का अनुपात ठीक नहीं है। 37 प्रतिशत विद्यालयों में अलग से शौचालय की व्यवस्था नहीं है। 40 प्रतिशत विद्यालयों में पुस्तकालय नहीं है। बच्चों की उपस्थिति में लगातार गिरावट आ रही है। लडकियों की उपस्थिति कम होती जा रही है, क्योंकि न तो विद्यालयों में शौचालय की व्यवस्था है और न पढाई लिखाई को लेकर ही संतोषजनक माहौल है रिपोर्ट के प्रस्तुतिकरण को एक साल से ज्यादा हो गए लेकिन प्रदेश की सरकार की तरफ़ से इस में सुझाए गए उपायों पर अमल करने की अब तक कोई पहल नहीं हुई है
एक तरफ़ बिहार का गौरवशाली शैक्षणिक अतीत है और दूसरी तरफ़ आज इस राज्य का शैक्षणिक पिछड़ापन. ये सचमुच बहुत कचोटने वाला विरोधाभास है। राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के आँकड़ों के मुताबिक बिहार में साक्षरता का प्रतिशत 63.8 तक ही पहुँच पाया है, जो देश के अन्य राज्यों की तुलना में काफ़ी कम है।

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