टीपू सुल्तान: इतिहास क्या है इस सवाल को जनभावना के नाम पर सड़कों पर तय नहीं किया जा सकता( आभार, द वायर) - सौरभ बाजपेयी

टीपू सुल्तान 
पहली किस्त ‘प्रत्येक इतिहास समसामयिक इतिहास है’-यह इतिहास लेखन का एक बुनियादी उसूल है. इसीलिए इतिहास को समझने के लिए हर युग अपना एक नजरिया बनाता है. यहां तक कि एक ही वक्त में कई तरह के नजरिये इतिहास को अपने-अपने ढंग से देखने की कोशिश करते हैं.
हर नजरिया अपने खास चश्मे से इतिहास के तथ्य चुनता और उनकी व्याख्या करता है. लेकिन इतिहास की यह बहस इतिहास लेखन के दायरों में रहकर विकसित होती है. इतिहास क्या है इस सवाल को जनभावनाओं के नाम पर सड़कों पर उतारकर तय नहीं किया जा सकता.
इसलिए टीपू सुल्तान के नाम पर चल रहे हालिया विवाद ने एक नहीं बल्कि दो यक्षप्रश्न खड़े किए हैं.
पहला, टीपू सुल्तान को कैसे याद किया जाना चाहिए. शेर-ए-मैसूर के नाम से जिसने भेड़ों की तरह सौ साल जीने के बजाय शेर की तरह एक दिन जीने का रास्ता चुना या हिंदुओं और ईसाइयों पर जुल्म ढाने वाले क्रूर मुस्लिम शासक की तरह.
दरअसल, टीपू सुल्तान पर आज जो भी विवाद है उसकी जड़ में साम्राज्यवादी इतिहास लेखन है जिसने टीपू को एक खलनायक के तौर पर पेश करने की कोशिश की. टीपू सुल्तान को एक कट्टर और धर्मांध ‘मुस्लिम’ शासक के तौर पर सबसे पहले अंग्रेजों ने प्रचारित किया था.
18वीं सदी के मैसूर ने दक्षिण भारत में ब्रिटिश विस्तारवाद को सबसे कठिन चुनौती दी थी. पहले हैदर अली और उसके बाद टीपू सुल्तान ने मद्रास की ब्रिटिश फैक्ट्री को बार-बार हराया था. उनके अन्य समकालीन हैदराबाद के निजाम और मराठों के विपरीत टीपू ने कभी अंग्रेजों के साथ कोई गठबंधन नहीं किया.
वो हमेशा अंग्रेजी कंपनी के इरादों के प्रति सशंकित रहा और उनको रोकने के लिए हरसंभव प्रयास किए. कहा जा सकता है कि टीपू के भीतर साम्राज्यवाद की एक आदिम समझ विद्यमान थी.
उसे देशी और विदेशी में फर्क करना आता था. यह एक ऐसी बात थी जो अंग्रेजों को हमेशा अखरती रही. इसलिए टीपू जैसे नायक की छवि को धूमिल करने के लिए उन्होंने एक क्रूर और अत्याचारी टीपू का मिथ रचा.
इस मिथ के बारे में प्रख्यात इतिहासकार प्रो बीएन पांडे का एक अनुभव बहुत महत्वपूर्ण है. जब वो इलाहाबाद में रहकर टीपू सुल्तान के बारे में शोध कर रहे थे उस समय कुछ छात्र एंग्लो-बंगाली कॉलेज की इतिहास परिषद का उदघाटन करने का आग्रह लेकर उनके पास आये.
उन लड़कों के हाथ में इतिहास की उनकी पाठ्यपुस्तक थी जिसे प्रोफेसर साहब ने देखने का आग्रह किया. उस किताब में टीपू का अध्याय खोलने पर उनके आश्चर्य की कोई सीमा न रही. उसमें लिखा था कि टीपू एक धर्मांध मुस्लिम शासक था जिसके राज्य में तीन हजार ब्राह्मणों ने आत्महत्या कर ली थी क्योंकि टीपू उन्हें जबरदस्ती मुसलमान बनाना चाहता था.
चूंकि प्रोफेसर पांडे खुद ही उन दिनों टीपू पर काम रहे थे, सहज रूप से वो इस तथ्य का स्रोत जानने के लिए बेचैन हो उठे. उन्हें तब तक किसी स्रोत से टीपू के बारे में इस तरह के तथ्य नहीं मिले थे. इस अध्याय के लेखक कोई इतिहासकार नहीं थे बल्कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में संस्कृत के विभागाध्यक्ष महामहोपाध्याय डॉ० परप्रसाद शास्त्री थे.
उनको कई पत्र लिखने के बाद उन्होंने बताया कि उन्हें यह तथ्य ‘मैसूर गजेटियर’ से मिला है. मैसूर विश्वविद्यालय के अपने मित्रों की मदद से प्रो पांडे ने प्रो मंतैय्या से संपर्क साधा जोकि उन दिनों ‘मैसूर गजेटियर’ का नया संस्करण तैयार कर रहे थे. उन्होंने काफी छानबीन करके बताया कि ‘मैसूर गजेटियर’ में इस बात का कहीं उल्लेख नहीं है.
वो स्वयं भी मैसूर के इतिहास के प्रकांड अध्येता थे. इस लिहाज से उन्होंने इस घटना के कभी होने पर भी संदेह जताया. साथ ही उन्होंने कहा कि जरूर इस तरह की मनगढ़ंत घटना का जिक्र कर्नल माइल्स की किताब ‘हिस्ट्री ऑफ़ मैसूर’ में किया गया होगा.
माइल्स का दावा था कि उन्होंने इस किताब को एक प्राचीन फारसी पांडुलिपि से अनुवादित किया है जो महारानी विक्टोरिया की व्यक्तिगत लाइब्रेरी में उपलब्ध है. जब इस बाबत जानकारी की गयी तो पता चला कि ऐसी कोई पांडुलिपि वहां भी उपलब्ध नहीं है.
यानी यह किताब टीपू के बारे में मनगढ़ंत किस्सों का एक झूठा पुलिंदा थी. जाहिर है इसके पीछे किसका हाथ था- यह उन अंगरेजी रणनीतिकारों की साजिश थी जो टीपू को हिंदुओं के बीच बदनाम करके अलोकप्रिय बनाना चाहते थे.
खास बात थी कि कर्नल माइल्स को आधार बनाकर लिखी गयी यह किताब न केवल उत्तर प्रदेश बल्कि पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी पढ़ाई जा रही थी.
टीपू के संबंध में इतिहास की यह विकृत चेतना इस और इस तरह की अन्य किताबों के मार्फत पैदा की गई है. यही नहीं, एक समकालीन द्वारा लिखी गयी यह किताब टीपू के बारे में एक विश्वसनीय स्रोत मान ली गई.
इस तरह की चालबाजियों के पीछे एक सोची- समझी साम्राज्यी रणनीति थी जो आगे चलकर बेहद प्रभावी हो गयी. यह रणनीति थी ‘डिवाइड एट एम्पेरा’ या ‘बांटो और राज्य करो’ की नीति. और इस नीति का मूलमंत्र था- भारतीय इतिहास के मार्फ़त समाज को बांट दो.
इसीलिए जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास को जिन तीन कालखंडों में विभाजित किया था, वे थे-हिंदू युग, मुस्लिम युग और ब्रिटिश युग. जाहिर है उनकी समझ थी कि अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ किसी भी संगठित प्रतिरोध को तोड़ने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में बांटना जरूरी है. इसीलिए उस युग को हिंदू कहा गया जब कि हिंदू शब्द प्रचलित भी नहीं था. क्योंकि हिंदू शब्द की उत्पत्ति सिंधु नदी के अपभ्रंश से हुयी है और यह शब्द सबसे पहले अरबों ने उन लोगों के लिए प्रयोग किया है जो सिंधु नदी के इस पार बसते थे.
दूसरे, मुस्लिम युग के दौरान मुस्लिम शासकों के धर्म के आधार पर काल का निर्धारण कर दिया गया. परन्तु अंग्रेजों ने अपने शासन काल को ईसाई युग कहने के बजाय उसे ब्रिटिश काल कहा. यह भारतीय इतिहास के सांप्रदायिक काल निर्धारण की शुरुआत थी. कर्नल माइल्स की यह किताब भी बेशक उसी प्रोजेक्ट का पूर्ववर्ती हिस्सा बन गयी.
टीपू सुल्तान पर आधिकारिक ज्ञान रखने वाली केट ब्रिटिलबैंक इसके पीछे की एक कहानी बताती हैं. जब 1798 में कलकत्ता एक नए गवर्नर जनरल अर्ल ऑफ़ मॉर्निंगटन की नियुक्ति के बाद टीपू सेरिन्गापट्टनम में शहीद कर दिया गया, ब्रिटेन में इस पर सवाल खड़े किए जाने लगे.
कंपनी द्वारा भारत के विजय अभियान में किसी शासक को इस तरह मौत के घाट उतारना एक आम नीति नहीं थी. इस हालत में गवर्नर जनरल और उनके साथियों ने टीपू की मौत को सही करार देने के लिए टीपू को एक बर्बर, अत्याचारी और क्रूर शासक की तरह चित्रित करना शुरू कर दिया.
वो बताती हैं कि कई बार इसे सिद्ध करने के लिए लिखित प्रमाणों का दावा भी किया गया. कर्नल फुल्लार्टन, जो मंगलोर में ब्रिटिश फौजों के इंचार्ज थे, ने टीपू के 1783 में पालघाट के किले पर अभियान को बेहद सांप्रदायिक ढंग से चित्रित किया. कहा गया कि इस अभियान के दौरान उसने क्रूरताओं की सारी हदें पार कर दीं और उसके सैनिकों ने ब्राह्मणों के सिरों की नुमाइश करके लोगों में खौफ भर दिया.
इसी तरह की बातें उसके मालाबार अभियान को भी लेकर लिखी गयीं. टीपू के कुर्ग अभियान के वक़्त तकरीबन एक हजार हिंदुओं को जबरन इस्लाम में धर्मान्तरित करने का किस्सा भी विलियम लोगान की किताब ‘वॉयजेज़ ऑफ़ द ईस्ट’ में मिलता है.
कहते हैं सेरिन्गापट्टनम में कैद ये हिंदू टीपू के मरने के बाद अंग्रेजों द्वारा आज़ाद किये गए. इस तरह देखें तो अंग्रेज मैसूर के राज्य में हिंदुओं के प्राणदाता और मुक्तिदाता के तौर पर पहुंचे थे, न कि एक विदेशी कंपनी के औपनिवेशिक शोषणकारी के रूप में.
इसी तरह लेविस बी बाउरी ने टीपू के राज्य में हिंदुओं पर ढाए गए जुल्मों की तुलना महमूद गज़नी और नादिरशाह की क्रूरताओं के साथ की.
गौरतलब है कि आरएसएस की पत्रिका पाञ्चजन्य ने हाल ही में टीपू को ‘दक्षिण भारत का औरंगजेब’ कहा है, जिसने ‘लाखों’ हिंदुओं को जबरदस्ती।
दूसरी किस्त 

जब टीपू सुल्तान ने शंकराचार्य को लिखा, ‘आप विश्व के गुरु हैं’-सौरभ वाजपेयी

फोटो सभार : विकीपीडिया 
अंग्रेजी राज के शुरुआती दिनों से ही टीपू सुल्तान को लेकर एक मिथ के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो गई. बाद के काल में भी यह प्रक्रिया बदस्तूर जारी रही क्योंकि जनमानस में टीपू एक नायक की तरह गहरे तक पैठा हुआ था और लोग उसे अंग्रेजों के खिलाफ लोहा लेने वाला एक वीर सिपाही मानते थे.
टीपू बहुत साहसी था और उसे युद्ध की रणनीति बनाने में जबरदस्त महारत हासिल थी. उसने 17 साल की उम्र में अंग्रेजों के खिलाफ अपने पिता हैदर अली की अगुवाई में पहला युद्ध लड़ा था.
द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध के दौरान जब हैदर अली की मृत्यु हो गई तो 1782 में टीपू ने मैसूर की गद्दी संभाली. इस युद्ध की समाप्ति पर टीपू ने अंग्रेजों को एक अपमानजनक संधि पर राजी करने को मजबूर किया.
टीपू ने अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए अपनी सेनाओं को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित करवाया और भारत की पहली आधुनिक नौसेना की नींव रखी. टीपू ने अपने समय के धुरंधर सेनापतियों (कार्नवालिस और वेलेजली) की आंखों की नींद उड़ा दी थी.
उसने अंग्रेजों को घेरने के उद्देश्य से फ्रांस से नजदीकियां बढ़ाईं और एक अंतरराष्ट्रीय गठबंधन बनाने के प्रयास भी किए. इस तरह, टीपू अंग्रेजी राज के विरुद्ध लड़ने के लिए भारतीयों का हौसला था. वह ऐसा महानायक था जिसे अंग्रेज फूटी आंख नहीं देखना चाहते थे.
टीपू की इस छवि को विखंडित करने के लिए इतिहास को विकृत करना जरूरी था. चूंकि टीपू धर्म से एक मुस्लिम शासक था, साम्राज्यवादी इतिहासकारों की यह व्याख्या सांप्रदायिक इतिहास लेखन परंपरा में जिंदा रही क्योंकि आरएसएस सरीखे संगठनों ने इसे आगे बढ़ाया.
इसीलिए टीपू को सांप्रदायिक साहित्य में ठीक उसी तरह चित्रित किया गया जैसा अंग्रेजों ने किया था. इसीलिए जब कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने टीपू की जयंती मनाने की घोषणा की-आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद् और भाजपा को एक मनचाहा मुद्दा मिल गया.
साम्राज्यवाद के समर्थक इतिहासकारों, यात्रियों और लेखकों ने टीपू के इतिहास के जिस आयाम पर सबसे ज्यादा जोर दिया, वह था-टीपू का हिंदुओं पर जुल्म ढाना. लेकिन इसके उलट अगर हम हिंदुओं और हिंदू धर्म स्थानों के प्रति टीपू की नीति का मूल्यांकन करने के लिए तत्कालीन मैसूर संबंधित प्राथमिक स्रोतों को आधार बनाएं तो तस्वीर एकदम अलग हो जाती है.
मसलन यही टीपू हिंदू मंदिरों, संस्थाओं और तीर्थों के संरक्षक के रूप में सामने आता है. हिंदू मंदिरों को भेटें भेजता है और हिंदू मंदिरों में विभिन्न संप्रदायों के बीच चल रहे विवादों में मध्यस्थ की भूमिका भी निभाता है.
उसके राज्य में राज्य द्वारा संरक्षित मंदिरों की देखभाल के लिए एक पद सृजित है जिसे श्रीमतु देवास्थानादसिमे कहा जाता था. इसका प्रमुख कुप्पया नामक एक ब्राह्मण था.
एक बार मैसूर के मेलुकोटे मंदिर में की जाने वाली एक प्रार्थना के पुराने रूप का एक अंश एक संप्रदाय के दबाव में निकाल दिया गया. ऐसा मैसूर के राजा के आदेश से हुआ था और इसे लेकर शुद्धतावादी संप्रदाय में नाराजगी थी.
टीपू ने एक आदेश जारी करते हुए कुप्पया को दोनों समुदायों (वडगले और तेंगले) के साथ न्याय करने की हिदायत दी.
टीपू कई महत्वपूर्ण हिंदू मंदिरों को नियमित भेटें भेजता था और उनके पुजारी वर्ग को आदर के साथ संबोधित करता था. इस बात के कई प्रमाण मौजूद हैं. मैसूर के कम से कम चार बड़े मंदिरों के बारे में तो यह बात पूरे सबूत के साथ कही जा सकती है.
इन मंदिरों में सेरिन्गापट्टनम का रंगनाथ मंदिर, मेलुकोट का नरसिम्हा मंदिर, मेलुकोट का ही नारायणस्वामी मंदिर, कलाले का लक्ष्मीकांत मंदिर और नंजनगुड का श्रीकंतेश्वारा मंदिर उल्लेखनीय हैं.
इन मंदिरों को चांदी के बर्तन आदि भेंटस्वरूप भेजे जाते थे. कहा जा सकता है कि टीपू अपने राज्य में स्थित इन हिंदू धर्मस्थानों के प्रति अपने आदर से उनका विश्वास जीतना चाहता था. बल्कि यह नीति तो टीपू से पहले हैदर अली के समय ही शुरू हो गयी थी और हैदर अली ने मैसूर की जनता के बीच अपनी उदार छवि का निर्माण करने में सफलता हासिल की थी.

यह भी पढ़ें: इतिहास क्या है इस सवाल को जनभावना के नाम पर सड़कों पर तय नहीं किया जा सकता

टीपू द्वारा प्रख्यात श्रृंगेरी मठ को लिखे गए तकरीबन तीस पत्र इस बात की गवाही हैं कि टीपू को अपने राज्य की धार्मिक विविधता का अंदाजा था और वो सबका यकीन जीतने का हामी था.
एक पत्र में तो टीपू अपने राज्य पर तीन शत्रुओं (हैदराबाद के निजाम, अंग्रेज और मराठों) का हवाला देकर मठ के स्वामी से अनुरोध करता है कि वे राज्य की विजय कामना के साथ शत चंडी और सहस्त्र चंडी यज्ञ करें. जिसके लिए आवश्यक सामग्री का इंतजाम राज्य की देख-रेख में किया गया.
यह अनुष्ठान पूरे रीति-रिवाज के साथ संपन्न हुआ जिसमे ब्राह्मणों को उचित भेटें दी गईं और कई दिनों तक चलने वाले हवन में लगभग एक हजार ब्राह्मणों को प्रतिदिन भोजन कराया गया.
यही नहीं श्रृंगेरी मठ पर मराठा हमले के वक़्त टीपू हिंदू धर्म के रक्षक के तौर पर सामने आया. टीपू ने मराठा हमले से क्षतिग्रस्त मठ की मरम्मत कराई जिसमें शारदा देवी की मूर्ति भी शामिल थी.
गौरतलब है कि मराठा सेनानायक परशुरामभाऊ को न ही मैसूर की हिंदू जनता और न ही हिंदू ज्ञान के महान केंद्र श्रृंगेरी के स्वामी ने हिंदू धर्मोद्धारक के रूप में देखा. ऐसे मौके पर उनकी नज़र अपने शासक सुल्तान टीपू की ओर थीं जिसने उन्हें निराश नहीं किया.
यहां सुलतान द्वारा मठ के स्वामी को लिखे एक पत्र से उसके हिंदू धर्म और उसके धार्मिक संस्थानों के प्रति रुख का पता चलता है. 1793 के एक पत्र में टीपू लिखता है,
आप जगद्गुरु हैं, विश्व के गुरु. आपने सदैव समस्त विश्व की भलाई के लिए और इसलिए कि लोग सुख से जी सकें कष्ट उठाए हैं. कृपया ईश्वर से हमारी समृद्धि की कामना करें. जिस किसी भी देश में आप जैसी पवित्र आत्माएं निवास करेंगी, अच्छी बारिश और फसल से देश की समृद्धि होगी.
यहां एक बात स्पष्ट कर देना जरूरी है. आम मध्यकालीन या पूर्व-आधुनिक शासकों की तरह टीपू को न सिर्फ अपने राज्य की सुरक्षा करनी थी बल्कि उसका विस्तार करना भी उसकी प्राथमिकता था. इसलिए उसने मैसूर के आस-पास के इलाकों पर हमले किए और उनका मैसूर में विलय किया.
हैदर अली ने मालाबार, कोझीकोड, कोडगू, त्रिचूर और कोच्चि को जीत लिया था. अंग्रेजों और मराठों से युद्धों के क्रम में टीपू को कोडगू और कोच्चि पर फिर हमले किए.
इन दोनों इलाकों और मालाबार और कोझीकोड पर नियंत्रण बनाये रखने के क्रम में एक मध्ययुगीन शासक की तरह उसने गांव के गांव जलवा दिए और सामूहिक दंड निश्चित किये. और इसी क्रम में मंदिरों और चर्चों को भी नष्ट किया. लेकिन किसी भी शासक की धार्मिक नीति का मूल्यांकन उसके युद्ध-कार्यों के आधार पर नहीं किया जाता. बल्कि उसकी घरेलू नीति के आधार पर किया जाता है.
टीपू के लिए कोडगु पर कब्जा मंगलोर बंदरगाह पर नियंत्रण रखने के लिए जरूरी था. क्योंकि अंग्रेज दकन और कर्नाटक के तटों पर कब्ज़ा करके अपने लिए नियंत्रणमुक्त व्यापार के रास्ते खोलना चाहते थे. इसलिए कोडगु को उसने हर हाल में मैसूर के कब्जे में रखना चाहा. इसीलिए आज भी कोडगु के इलाके में टीपू एक शासक की तरह नहीं एक आक्रांता की तरह देख जाता है.
यानी कि टीपू का इतिहास दो भिन्न स्रोतों के आधार पर लिखा जा सकता है-औपनिवेशिक स्रोतों के आधार पर और भारतीय स्रोतों के आधार पर. जिन्हें पहली तरह के स्रोत ज्यादा विश्वसनीय लगते हैं या वे उनकी राजनीति के लिए मुफीद हैं, वो टीपू सुल्तान को खलनायक मानने के लिए स्वतंत्र हैं.
जिन्हें इतिहास और इतिहासलेखन की समझ है वो टीपू सुलतान को उसके परिप्रेक्ष्य में रखकर मूल्यांकित करने की कोशिश करेंगे. और, जो लोग ऐसा करेंगे वो टीपू की औपनिवेशिक व्याख्या को अन्य स्रोतों के साथ रखकर जाचेंगे.
और भीड़ के विवेक से परे हटकर जब भी टीपू सुल्तान का मूल्यांकन किया जाएगा, वो अंग्रेजी राज के खतरे को पहचानने और उसके खिलाफ लड़कर शहीद होने वाले शासक की तौर पर याद रखा जाएगा.
(लेखक राष्ट्रीय आंदोलन फ्रंट नामक संगठन के राष्ट्रीय संयोजक हैं.)

टिप्पणियाँ