सोनागाछी की महिला सेक्स वर्कर्स के लिए क्यों खास थी ये दुर्गा पूजा -प्रत्युष प्रशांत

नवरात्र शुरू होकर अपने अंतिम पड़ाव पर आ चुका है। हर पंडालो की सजावट अंतिम दौर में है और सोसल मीडिया पर दुर्गा प्रतिमाओं की तस्वीर और बधाईयां पहुंच रही है-हैप्पी विजयादशमी, हैप्पी दशहरा और हैप्पी विजया दशमी।
इस वर्ष के दुर्गापूजा की कई स्टोरी में इस बात को बहुत प्रमुखता से उठाया गया कि पूजा की मूर्तियां बनाने में कारीगर कई परंपराओं का पालन करते हैं, इनमें से एक है दुर्गा की मूर्ति बनाने के लिए वेश्यालयों से मिट्टी लेकर आना। जिसे देवदास फिल्मों में संजय लीला भंसाली ने बखूबी दिखाया जिसका अंत डोला-रे-डोला गाना के बाद हो गया। कमोबेश हर मीडिया रिपोर्ट में इस बात पर काफी चर्चा दिखती है कि देवी पूजा की नींव रखते समय समाज के कथित तौर पर सबसे घृणित पेशे की मदद से शुरूआत करना और जिस धर्म में लंबे समय से स्त्रियों को कई परंपराओं से दूर रखा जाता हो, जिस काल में सती प्रथा जैसी परंपरा है, वहां विधवा का जीवन नरक से कम न हो वहां इसकी रवायत कैसे पड़ी?
यह दुर्गापूजा से जुड़े परंपराओं के एक पक्ष का मूल्यांकन है। इसका एक दूसरा पक्ष यह भी है कि इसबार कई वर्षों के लंबे संघर्ष के बाद कोलकत्ता शहर में एशिया के सबसे बड़े रेड लाइट एरिया सोनागाछी कि सेक्स वर्कर महिलाओं को दूर्गापूजा के पंडाल संजाने और विविवध रूप से पूजा करने का अधिकार न्यायलय के फैसले के बाद मिला है और इसबार बड़े स्तर पर पूजा का आयोजन किया जा रहा है। कोलकाता में सेक्स वर्कर्स महिलाओं का यह एकमात्र दुर्गा पूजा है।
जिसकी चर्चा श्रुति सेनगुप्ता अपनी डाकेमेंट्री “six sacred Days” में करती है। सोनागाछी के सेक्स वर्कर महिलाओं ने 2013 में हाईकोर्ट में अपने दुर्गापूजा मनाने के अधिकार के लिए हलफनामा दायर किया। जिसमें सेक्स वर्कर महिलाएं दुर्गापूजा करने के अपने अधिकार की मांग कर रही थी। पूर्णिमा चटर्जी बताती है “सेक्स वर्कर महिलाओं ने जब यह याचिका दायर की तो कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। अपने क्षेत्र के राजनेताओं से बात करने पर भी सहायता नहीं मिली और अनुमति लेने के लिए एक जगह से दूसरे जगह घुमाया गया, और कही भी अनुमति नहीं मिली। तब इन महिलाओं ने हाईकोर्ट के तरफ रूख किया। पर हाईकोर्ट ने पूजा की अनुमति तो दी पर घर में ही पूजा करने का अधिकार मिला। फैसले के अनुसार उनका यह आयोजन एक छोटे सामुदायिक हांल तक में ही सीमित था।” सेक्स वर्कर महिलाओं ने सामुदायिक हांल में ही दूर्गा पूजा का आयोजन शुरू किया। जनसमान्य के लोगों ने इसमें अपनी सहभागिता भी दिखाई, जिसके बाद इन महिलओं ने खुले में पंडाल बनाने और पूजा करने के लिए प्रयास किये। दरबार महिला समन्वय समिति की सचिव काजोल बोस बताती है “हमने हर साल की तरह पिछले साल उच्च न्यायालय में अपील नहीं की थी इसलिए बीते साल पूजा में आयोजन नहीं किया जा सका था। इस बार उच्च न्यायालय ने हमारे पक्ष में फैसला सुनाया और हम बड़े स्तर पर पूजा का आयोजन कर रहे है।”
इस बार का दुर्गापूजा का आयोजन यहां कि सेक्स वर्कर महिलओं के लिए इसलिए भी खास है क्योंकि कुछ सेक्स वर्कर महिलाएं इस बार पंडाल में राज्य मत्स्य पालन विभाग और दरबार महिला समन्वय समिति की मदद से शेफ बन सभी को अपने हाथों से बना लजीज व्यंजन पकाकर खिलाएंगी। इस फैसले का महत्व उन महिलाओं के अधिक है जो सेक्स वर्कर की जिंदगी छोड़ना चाहती है।
भारतीय लोकतंत्र में विविधता का यह अजीबों गरीब विरोधाभास है जहां एक तरफ़ कुछ समुदाय के लोगों का विरोध सामने आ रहा है कि नवरात्र में रावण दहन पर रोक लगाई जाए। क्योकि रावण उस समुदाय के लिए अराध्य है और उनके दहन की परपंरा उनके लोकतांत्रिक आस्था के अधिकार को चोट पहुंचाती है। तो दूसरी तरफ़ दुर्गा पूजा के सार्वजनिक उत्सव के लिए सेक्स वर्कर महिलाओं को लंबा संघर्ष करना पड़ा है और यह आयोजन उनके सेक्स वर्क से उनकी मुक्ति का रास्ता भी खोल रहा है।
भारतीय लोकतंत्र की यह खूबी है कि वो विविधता में एकता को बनाये रखने के लिए संघर्षरत है और सांस्कृतिक विविधता के बीच एकता बनाये रखने के लिए लोगों में लोकतांत्रिक चेतना के विकास की कोशिशें निरंतर कर रहा है।

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