ऐप तो सही है लेकिन युवाओं की भागीदारी से ही मिटेंगी दहेज प्रथा जैसी कुरीतियां -प्रत्युष प्रशांत


सामाजिक कुरतियों के विरुद्ध संघर्ष के अपने अभियान में बिहार सरकार के हुक्मरान “शराबबंदी” के बाद “बंधन तोड़”प्स के जरिये “दहेज प्रथा” और “बाल विवाह” विरुद्ध जंग छेड़ने में जुटी है। जिसकी चर्चा अधिकांश मीडिया रिपोर्टों में में जोर-शोर से उत्साहवर्धक तरीके से हो रही है। ध्यान रहें “शराबबंदी” पर बिहार सरकार ने वाह-वाही कम और मीडिया बहसों में सुर्खिया अधिक बटोरी थी।
इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि बिहार ही नहीं देश में किसी भी हिस्से में “शराबबंदी”, “दहेज प्रथा” और “बाल विवाह” महिला सशक्तिकरण के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है। “शराबबंदी”, “दहेज प्रथा” और “बाल विवाह” इन समस्या के साथ समाज गुलामी के दिनों से ही संघर्ष कर रहा है तब इसका समाधान मानवतावादी नजरिये से कुछ कानून के बन जाने और महिलाओं के शिक्षित होने में खोजा गया था। मौजूदा समय में महिलाओं के शिक्षित होने का आकंड़ा उस दौर से बेहतर है। परंतु, जिन सामाजिक कुरतियों के खिलाफ इतने पुराने कानूनों ने कमोबेश दम तोड़ दिया है उस समस्या का समाधान “बंधन तोड़” प्स से कैसे होगा, यह विचारणीय सवाल है? क्योंकि इस तरह के कई प्स कई राज्यों ने लांच किए और वो बेअसर ही सिद्ध हुए है। उनकी सफलता को कोई तथ्यवार आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।



पटना विश्वविद्यालय की रिटायर्ड प्रोफेसर भारती एस.कुमार बताती हैं “इन कुरीतियों को सरकार और कानून के दम पर नहीं मिटाया जा सकता, इसके लिए आम लोगों को भी जागरूक होना होगा।” इन सामाजिक कुरतियों के विरुद्ध हल्ला बोलने से पहले समस्या के कई तहों को भी समझना जरूरी है कि “बाल विवाह” और “दहेज प्रथा” जैसी समस्या एक दूसरी से अलग नहीं है साथ ही साथ दोनों का स्वरूप अगल-अलग है। जहां एक तरफ़ समाज के एक हिस्से में “बाल विवाह” का कारण शैक्षणिक पिछड़ापन और आर्थिक जड़ता है, तो दूसरी तरफ “दहेज प्रथा” कमजोर तबकों के लिए मजबूरी तो धनायढ़ वर्ग के लोगों के आकांक्षा और सामाजिक प्रतिष्ठा का भी मामला है। हमें यह समझने की जरूरत है कि किसी भी समाज में विवाह का फैसला स्त्री-पुरुष का निजी फैसले से अधिक दो परिवारों का, समाज के नैतिक दवाबों का, किसी के सामाजिक प्रतिष्ठा और किसी के लिए आर्थिक समस्याओं का भी प्रश्न है। इसलिए जब बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार जब यह कहते है कि-“दहेज नहीं, तभी शादी में आऊंगा।” यह बयान सामाजिक कुरतियों के विरुद्ध कैंम्पेन में सहायक हो सकता है, समस्या के समाधान में नहीं, इसके लिए इन समस्याओं के अन्य पहलूओं को समझना होगा।
सामाजिक कुरतियों के विरुद्ध अभियान की सफलता के लिए जरूरी है कि शादी करने का फैसला लेने वाले लड़के लड़कियों के लिए सरकार अपनी मशीनरी में व्यापक स्तर पर सुधार करें।उन्हें प्रशिक्षित करने का इंतजाम करें।शादी ब्याह के लिए पंजीयन की एक अलग से व्यवस्था करें जहां का माहौल खुशनुमा हो। लड़के लड़कियों को इस तरह के फैसले लेने के बाद किस तरह अपने जीवन को व्यवस्थित करना चाहिए, इसका वहां उन्हें अनुभव प्राप्त हो सकें। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सदियों पुरानी रुढियों को तोड़ने वाली नई पीढ़ी को प्रोत्साहित करने का कार्यक्रम नहीं हो तो दहेज मुक्त और बाल विवाह मुक्त क्षेत्र बनाने की कल्पना कोरी बकवास होगी। इन अभियान में दहेज मुक्त और बाल विवाह के अभियान की भाषा केवल परिवार के मुखियाओं को संबोधित करने वाली है।नई पीढ़ी को संबोधित करने वाली भाषा का अभाव इस अभियान में दिख रहा है। आखिर हम किसे कह रहे हैं कि दहेज मुक्त और बाल मुक्त विवाह हो?
समाज में माता-पिता को यह समझना होगा कि जब लड़की आर्थिक रूप से सशक्त होगी, तो दहेज नहीं देना पड़ेगा। लड़के भी लान करें कि वो दहेज नहीं लेगे। इस तरह की समझ केवल भाषाई प्रचार से विकसित नहीं की जा सकती है। इसकी एक लंबी प्रक्रिया है जिसको गंभीरता से समझने की जरूरत है।
इस तथ्य से सहमति हो सकती है कि बिहार ही नहीं पूरे देश में स्मार्टफफोन य़ूजर की संख्या में बढ़ोतरी के आकंड़े चौकाने वाले है। पर जो समाज आर्थिक तंगी से जूझते हुए “बाल विवाह” को स्वीकार करने को मजबूर है वह स्मार्टफोन और इंटरनेट का इस्तेमाल कर “बंधन तोड़”प्स के जरिये शिकायत कर सकेगा। इसमें शक है क्योंकि प्प पर शिकायत दर्ज होने के बाद की कार्यवाही जिन अलमदारों को करना है,वो न ही इतनी चाक-चौबंद है और न ही वो इन समस्याओं के प्रति उस तरह से गंभीर और दूरदर्शी नहीं है। समाज और सरकार को समझना होगा कि किसी भी सामजिक समस्याओं से निपटने के लिए समाज और तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं को पूर्वाग्रही मानसिकताओं से निकलकर दूरदर्शी और लोकतांत्रिक होना होगा। नैतिक नियम और कानून बनाकर न ही समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है और न ही किसी समाज पर थोपा जा सकता है। विवाह की किसी भी संस्था में बदलाव की बात करते समय यह ध्यान में रखने की जरूरत है कि आपसी वफादारी के मानवीय मूल्यों को छोड़कर नहीं, बल्कि इसे अपनाकर और मजबूत बनाकर ही हम विवाह संस्था और  समाज को बेहतर बना सकते है।


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