महिला स्वास्थ्य और शौच को शर्म से नहीं समस्या से जोड़िए -प्रत्युष प्रशांत
आजादी के बाद भी, आधुनिक और सुपर पावर बनने के रेस में होने के बाद भी आज भी
भारत में महिलाओं के जुड़े विषयों पर बात करना शर्म की ही बात है, इस पर बात करना
सम्मान का विषय नहीं है। इस तरह के विषय एक नहीं कई है जिसपर बात करना ग्रामीण
इलाकों में ही नहीं शहरी इलाकों में लोगों को शर्मशार कर देता है, जिसके चलते महिलाओं
को निजी और सार्वजनिक जीवन में कई बीमारियों, यातनाओं और कभी-कभी शारीरिक, मानसिक
शोषण से गुजरना पड़ता है। इस विषय पर बड़े-बुर्जुग ही नहीं, युवा भी कतरारे है और आंखे कभी जमीन में गांड देते है, कभी आसमान देखने लगते है तो कभी इधर-उधर देखने लगते है। इन विषयों पर बात भी करना "शर्मनाक" हो जाता है।
मसलन, भारत के कई गांव, शहर और महानगरों के घरों की छत पर महिलाएं अपने
अंडरगार्मेंट्स चोरी-छुपे कुछ इस तरह सुखाती हैं कि कोई अनचाहा अपराध कर रही हो,
किसी की नज़र ना पड़ जाए, ब्लाउज़ या पैटिकोट के नीचे और कई बार बाथरूम के दरवाजे के
पीछे टंगे रहने या सूखने वाली इसी मानसिकता को “शर्म” कहते हैं जो एक हद तक
शर्मनाक हो जाती है कि जाने-अनजाने इससे महिलाओं के स्वास्थय पर गहरा असर पड़ता है।
भारत की महिलाओं में स्वास्थ्य-संबधी समस्या को लेकर “शर्म” तो है गंभीरता
बिल्कुल नहीं है। जैसे कि स्त्री रोगों के जानकार बताते है कि ठीक से धूप में ना
सुखाए गए हल्के गीले अंडरगारमेंट्स को पहनने से फंगल इन्फेक्शन का खतरा बढ़ जाता है
जो भारतीय महिलाओं में आम बात मानी जाती है। ऐसी आदतों से महिला को अपने जीवन में कम से कम दो तीन बार तो इस तरह के
इन्फेक्शन होते ही है पर “शर्म” है की जाती ही नहीं।
इसीतरह, भारतीय समाज जो सावले, काले रंग के कारण शर्म के साथ हीन-भावना को
विकसित कर पाया, जो लड़कियों के साथ-साथ लड़कों के दिमाग में भी जगह बना चुका है।लड़कियों
को फेयर, सौम्य,सूंदर दिखना है तो लड़कों को हैडसम, कूल दिखना है। जहां ग्रामीण और
शहरी इलालों के दुकानों में चेहरे में निखार लाने के क्रीम फ़ेयरनेस ट्रीटमेंट के
नाम पर गर्व के साथ बेचा-खरीदा जाता है। उसी भारतीय समाज का एक सच काली पालीथीन या
पेपर में बांध कर, इशारे से कोने में बुलाकर बेचा जाता है। क्योंकि बेचने वालों को
और खरीदने वालों को सैनिटरी नैपकिन देना अजीब लगता है और शर्म आती है। ये
सार्वजनिक शर्म की वो आदत है जो भारत की महिलाओं के मासिकधर्म के विषय पर सीधे तौर
पर जुड़े मिथ्यों और बिमारियों को बढ़ावा देती है। इस दिशा में सरकारी योजनाओं के
माध्यम से और सैनिटरी नैककिन के इस्तेमाल के प्रचार भी किये जाते रहे है। परंतु,
इस विषय पर जागरूकता, झिझक और इच्छाशक्ति की कमी के कारण ये आधी आबादी के चेहरे पर
अभी तक मुस्कान नहीं ला पाई है। मासिक धर्म के “शर्म” के कारण लड़किया स्कूल तक छोड़
देती है। कई रिपोर्ट में यह सूचीबद्ध किया गया है कि स्वछता और संरक्षण की कमी के
कारण लड़कियां महावारी के दौरान स्कूल नहीं जाती है।
महिलाओं के विषय में जिस विषय पर बात करना “शर्म” का विषय बन जाता
है उसमें शामिल है आधी आबादी के लिए शौच संबंधी सुविधा पर बात करना। यह उस शर्म और
झिझक का चित्रण है जिसको महिलाएं सार्वजनिक जीवन में हमेशा झेलती है पर ईशारे में
या धीमी जबान में कान के पास आकर बात करती है, अगर साथ में कोई महिला है तो साथ
चलती है और कोई पुरुष तो अपनी चलने की गति या तो धीमी कर देते है या आगे किसी मोड़
पर जाकर रूक जाते है। वजह महिलाओं के लिए सार्वजनिक शौचालयों की कमी और जो हैं वो
इस्तेमाल करने लायक नहीं है। संयुक्त राष्ट्र के आकंड़े बताते है कि भारत में
मोबाईल फोन ज़्यादा है और महिलाओं के शौचालय
कम है। कई ग्रामीण स्कूलों में बच्चियों के स्कूल ना जाने का कारण यह है कि वहां
शौचालय नहीं है। महिलाओं के इस शर्म के साथ उनके साथ कई बार शारीरिक शोषण की ख़बरें
आती रहती है। सुलभ इंटरनेशनल के प्रमुख बिंदेश्वरी पाठक बताते है कि “मुझे एक
महिला जिला क्लेक्टर ने बताया कि वो दिन भर पेशाब रोकर गांवों का दौरा करती हैं
क्योंकि कहीं कोई सही जगह नहीं मिल पाती जहां वो टायलेट कर सकें।” ये भारत की एक ऐसी समस्या है जिससे अस्सी फीसदी महिलाएं जूझती है। महिला
रोगों के जानकार बताते है कि लगातार पेशाब रोकने से मूत्र की थैली में इंफेक्शन हो
सकता है।
भारत सरकार ने समग्र स्वच्छता अभियान के तहत शौचालय निमार्ण के प्रयास होते
रहे है, किसी अन्य योजनाओं के तरह ही अनियमितताओं से घिरा होने के कारण ये दौ कौड़ी
के ही सिद्ध हुए है। कई रिपोर्ट बताते है कि भारत के छियासठ प्रतिशत ग्रामीण भारत
में और उन्नीस प्रतिशत शहरी भारत में शौचालय के मूलभूत सुविधा से वंचित है।
रूढ़िवादी मान्यताओं वाले देश भारत में जहां “शर्म” को औरत का गहना और “कष्ट”
को औरत की नियती मान लिया जाता है। वहां महिलाओं को इस शर्म से मुक्ति कब मिलेगी,
पर इसके लिए ईमानदार कोशिशें लगातार करनी ही पड़ेगी।
जरा सोचिए समान्य दिनों में ये हाल है तो प्राकृतिक आपदाओं के समय क्या स्थिति
बनती होगी। क्योंकि ये समान्य मानवीय प्रक्रिया प्राकॄतिक आपदाओं में रूक तो सकती
नहीं है।
स्वच्छ भारत के अभियान में समाज के इस “शर्म” को “सम्मान” से जोड़ने की कोशिश
करने की जरूरत सबसे अधिक है। इससे आधी आबादी के एक बड़ी समस्या का समाधान उनके
चेहरे पर मुस्कान ला सकती है जिसकी वो हकदार है। स्वच्छ भारत अभियान को तभी सफल
माना जाना चाहिए जब वो आस-पास फैली गंदगी के साथ-साथ समाज के लोगों के दिमाग में
जमी हुई मैल या काई को साफ कर सके।
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