असंवेदनहीन हो रहे समाज का समाधान क्या है? -प्रत्युष प्रशांत



रोजाना मेरे वाट्स-अप और सोसल मीडिया ग्रुप में इसतरह के तस्वीरे और वीडियो शेयर होते रहते है, जिनको देख कर दिलो-दिमाग सुन्न हो जाता है। कमोबेश छह महीने से इस प्लेटफार्म में आने वाली तस्वीरों और वीडियो को देखना छोड़ दिया है। एक इंसान के सिर पर रातों रात संवेदनहीनता और गंभीरता का बोझ कैसे लाद सकते है...एक समान्य इंसान मशीनों के तरह असंवेदनसील ढांचा नहीं हो सकता है, वह इन चीजों से प्रभावित भी होता है और अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त करता है, जो जरूरी नहीं है कि हमेशा लोकतांत्रिक ही हो, वह स्वयं के साथ-साथ आस पास के लोगों को भी प्रभावित करता है।
पत्रकारिता की क्लास में व्यावसायिकता के दौर में पत्रकार को कितना संवेदनशील होना चाहिए। इस संदर्भ में सुरेंद्र प्रताप सिंह(एसपी) के बारे में अक्सर बताया जाता है। दिल्ली के उपहार सिनेमा हादसे की रिपोर्टिग करते समय वह काफी भावुक हो गये थे, इस हादसे का तनाव इतना अधिक हावी रहा कि अगले दिन ब्रेन हैमरेज से उनकी मृत्यु हो गई। सुरेंद्र प्रताप सिंह(एसपी) के साथ वहीं हुआ, वो हादसों के रिपोर्टो से समान्य नहीं रह पाए।
सत्तर के दशक के करीब नारीवादी महिलाओं के समूह ने अपने निजी अनुभवों और समस्याओं के जरिए निजी जीवन ही नहीं सामाजिक जीवन का सरोकार बनाने के लिए व्‍यक्तिगत ही राजनीतिक है का नारा कैरोल हैनिच के लेख से प्रसिद्ध हुआ। अन्य नारीवादी/ गैरनारीवादी समूहों में तमाम आलोचना के बाद भी यह नारा घर के अंदर और घर के बाहर की संरचना में निहित जेंडर उत्‍पीड़न के अंतरसंबंध की पड़ताल करने में सहायक सिद्ध हुआ। परंतु, मौजूदा समय में समाज का सामाजिक व्यवहार लोगों को असंवेसनशील अधिक बना रहा है, जिससे निजी और सार्वजनिक जीवन के सरोकारों की समझ कम और विकसीत हो रही है व्यक्ति हठधर्मी अधिक बनता जा रहा है। जरूरत ऐस किसी नये थ्योरी की है जिससे असंवेदनहीन हो रहे समाज को मानवीय बना सके।
साईबर स्पेस के मौजूदा दौर में लाईक, शेयर, कमेंट, सस्क्राईब और वीडियो वायरल के चलन ने एक नई प्रवृत्ति को जन्म दिया है, जिसने हमारी समाजिकता में एक बहुत बड़ा बदलाव किया है। पहले लोग कहते थे “अपना काम देखो, दूसरों से क्या मतलब है|”  मौजूदा दौर में अब ये है कि हमको मतलब भी नहीं हैं, लेकिन हम वीडियो बनाएंगे, ताकि अपने दोस्तों को दिखा सकें कि लोगों ने इसतरह पीटाई की। आज किसी की पिटाई और अपमान जैसी चीजें लोग मजे से देख रहे हैं और लाईक शेयर कर रहे हैं। तस्वीरें या वीडियो अपने सोसल मीडिया एकाउंट पर डालकर लाइक बटोरने के इस प्रवृत्ति ने हमारे अंदर के सामाजिकता के भाव का दमन कर रही है।
मामला केवल वीडियो के बनाने और वायरल करने तक ही सीमित नहीं है इसने अपना एक अर्थशास्त्र भी विकसित किया है। यह केवल कुछ लोगों के मंनोरजन का जरिया नहीं है, कई लोगों के लिए यह फेम पाने और पैसा कमाने का जरिया भी है। जब कोई विडियों यू-टयूब चैनल पर वायरल हो रहा होता है तो उसको आपको अपने अकांउट से लिंक करना होता है, फिर इन वीडियो से कमाई होने लगी है। इस तरह के वीडियो ज्यादा से ज्यादा हिट्स और व्यूज़ जुटाने से ज्यादा से ज्यादा कमाई है। इस नये चलन में एक नये महौल को जन्म दिया जो धीरे-धीरे खतरनाक प्रवृत्ति में तब्दील हो रही है। यह प्रवृत्ति हमारे अंदर की सामाजिकता और सामाजिक जिम्मेदारी का लगातार दमन कर रही है। इसके एक नहीं सैकड़ों उदाहरण रोज सामने आ रहे है।

फतेहपुर सीकरी में भारत घूमने आए विदेशी जोड़े ने स्थानीय लोगों के हाय हैलो का जवाब नहीं दिया, तो लफगों ने उसकी पिटाई कर दी। तमाशबीनों ने उनकी मदद करने के बजाय वायरल बनाने के लिए वीडियो बनाना ज्यादा जरूरी समझा। “अतिथी देवो भव:” के स्लोगन से पर्यटकों को लुभाने वाले देश को “न आना मेरे देश में” के स्लोगन की जरूरत है। ये केवल एक मामला नहीं है, रेयान स्कूल में बच्चे की हत्या के बाद खून से लथपथ उस जगह का वीडियो वायरल हुआ। भीड़ ने स्कूल के करीब शराब की दुकान में तोड़-फोड़ कर की, तो लोगों ने वीडियो वायरल कर दिया। इसीतरह विशाखापटनम में सरेआम एक दिमागी रूप से बीमार महिला के साथ बलात्कार हो रहा था, तो किसी ने उसके मदद की जहमत नहीं उठाई। उल्टे एक आंटो ड्राइवर ने वीडियो बनाकर उसे वायरल कर दिया। यह एक ऐसी सामाजिक विकृत समस्या है जो ये दर्शाता है कि हमारा सामाजिक विकास कितना अधूरा है और समाज के प्रति अपनत्व खत्म करता जा रहा है।
कानून के धाराओं की व्याख्या के अनुसार इस तरह के वीडियो जो क्राईम के दायरे में या किसी के प्राइवेसी में दखलअंदाजी करते है या जबर्दस्ती बनाए जाते है तो सजा के प्रावधान है। हालांकि इसमें अभी वायरल वीडियो को शामिल नहीं किया गया है, यह तभी कानून के दायरे में आ सकता है जब उस वीडियो में कुछ सेक्सुअल है या किसी की प्राइवेसी भंग हो रही हो। पर इस तरह की तमाम कानूनी धाराएं व्यावहार में प्रभावी रूप से काम नहीं करती है। कानून और प्रावधानों से मौजूदा समस्या का समाधान दूर की कौड़ी लाने के बराबर है।
मौजूदा दौर में हमने बहुत कुछ हासिल कर लिया है, दुनिया का एक छोर दूसरे छोर से जुड़ा हुआ है लेकिन अगर कुछ खो रहा है तो वो है उपभोक्तावाद और बाजारवाद के दौर में अपनी संवेदनहीनता और अमानवीय चेहरा। इससे संभलने के जरूरत हमें और समाज दोनों को है नहीं तो कभी हम भी किसी रोज किसी हादसे का शिकार होगे और मदद के लिए लोग सामने नहीं होगे....हम भी लाईक, व्यूज़, शेयर और कमेंट का हिस्सा बनकर रह जायगे।



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