जब खेती का ज्यादातर काम महिलाएं करती हैं तो किसान का मतलब सिर्फ पुरुष क्यों है? प्रदीपिका सारस्वत (आभार- सत्याग्रह)

15 अक्टूबर को पहली बार भारत महिला किसान दिवस मना रहा है. लेकिन क्या सिर्फ सांकेतिक रूप से एक दिवस बना लेने से देश की महिला किसानों को उनके अधिकार मिल सकते हैं? अधिकारों की मांग तो दूर की बात अभी तक अधिकतर महिलाओं को किसान का दर्जा ही नहीं मिला है, क्योंकि खेती में अधिकतम काम करने के बावजूद ज्यादातर ज़मीन पर स्वामित्व पुरुषों का ही है.
‘सौ में सत्तर काम हमारे, लिखो बही में नाम हमारे’
‘खेत में खलिहान में फिर क्यों नहीं विधान में’
पिछले दिनों दिल्ली में ये नारे गूंजे लेकिन महिलाओं की यह आवाज़ पारंपरिक तरीके से ज़्यादा दूरी तक नहीं सुनी गई. एक-दो अंग्रेजी अखबारों ने इस मुद्दे पर हल्की-फुल्की बात ज़रूर की लेकिन किसी भी बड़े-छोटे अखबार की सुर्खियों में इन्हें जगह नहीं मिली. अगर ध्यान दिया जाये तो ये सिर्फ नारे नहीं हैं, बल्कि महिला किसानों की स्थिति की सीधा बयान है.
29-30 अगस्त को दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में देश भर से आई महिला किसानों और उनके हकों के लिए काम करने वाली महिलाओं का जमावाड़ा लगा था. राष्ट्रीय महिला आयोग और यूएन वीमेन ने महिला किसान अधिकार मंच के साथ मिलकर महिला किसानों की समस्याओं को सरकार तक पहुंचाने के लिए कई राज्य और केंद्र स्तरीय कृषि अधिकारियों को बुलाया था. यहां तक कि केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने भी अपने बहुमूल्य 15 मिनट इन महिलाओं को दिए. लेकिन मंत्री जी की दिलचस्पी सुनने से ज़्यादा बोलने में थी. उन्होंने अपनी बात कही और बाकी बातें सुनने के लिए अपने नुमाइंदों को छोड़ गए. महिलाएं इसी में खुश थीं कि कम से कम उनसे बात तो की जा रही है.
मुद्दे की बात अगर महिला किसानों की ही भाषा में की जाये तो हम सबसे पहले शामली मेश्राम की कहानी सुन सकते हैं. मध्य प्रदेश के आदिवासी बहुल ज़िले मंडला की महिला किसान शामली ने विवाह के बाद अपने पिता की ज़मीन में से अपना हिस्सा लिया है.
‘मैं खेतों में काम करते हुए बड़ी हुई हूं और मैं एक किसान हूं. अपनी ज़मीन पर अपने हिसाब से खेती करने का हक हर किसान को होना चाहिए. और ये हक उसे तब ही मिल सकता है जब उसके पास खेती की ज़मीन का मालिकाना हक हो. मेरे पिता की ज़मीन बाकी परिवारों की तरह मेरे दो भाइयों के ही हिस्से आती. लेकिन जब मुझे अपने अधिकार का पता चला तो मैंने अपने मां-बाप को समझाया. पिता ने मेरी बात को नहीं माना. लेकिन काफी कोशिश करने के बाद में उन्हें समझा पाई कि मुझे भी उन्होंने ही पैदा किया है तो फिर मेरे साथ भेदभाव क्यों. आज मेरे पास अपनी ज़मीन है और मैं अपने हिसाब से खेती कर पाती हूं. मैं चाहती हूं कि बाकी महिला किसानों को भी उनका अधिकार मिले’ शामली ने मंच पर अपनी बात रखी.
गूगल किसान की परिभाषा बताता है, ‘वह व्यक्ति जो खेत का मालिक है या फिर प्रबंधक है.’ हम सभी जानते हैं कि देश का सत्तर प्रतिशत से अधिक कृषि कार्य महिलाएं करती हैं लेकिन कितनी महिलाएं हैं जो अपने खेत का मालिकाना या फिर प्रबंधन का ही अधिकार रखती हैं? इस सवाल का पहला जवाब तो यह है कि डेटा के डिजिटाइज़ेशन को तैयार हमारे देश में अभी तक भूमि स्वामित्व पर लिंग के आधार पर अलग किया गया डेटा नहीं है. हम यह पता नहीं कर सकते कि देश और राज्यों में कुल कितनी ज़मीन महिलाओं के नाम पर है और कितनी ज़मीन साझे तौर पर महिलाओं और पुरुषों की है. 2010-2011 की कृषि जनगणना के मुताबिक ग्रामीण महिला श्रमिकों में से 75 फीसदी कृषि कार्य में लगी है. जबकि महिलाओं का ऑपरेशनल लैंड पर हक महज़ 12.79 फीसदी ही है. इसमें से भी कुल 10.36 फीसदी ज़मीन ही खेती योग्य है.
36 साल की कोतेले लोहे, नागालेंड के फेक ज़िले के एनहुलुमी गांव से हैं. वे 14 साल की उम्र से अपने मां-बाप के साथ खेती करती रही हैं. वे खुद को एक किसान मानती हैं. उनका कहना है, ‘हम महिलाएं बहुत मेहनत करके अपने परिवारों के लिए तरह-तरह की फसलें उगाते हैं. लेकिन हमारा श्रम अनदेखा ही रहता है. मैं अपने समाज की बाकी महिलाओं की तरह खेत में अपने पति से बहुत ज़्यादा समय बिताती हूं. ज़्यादा काम करती हूं. लेकिन किसान का दर्जा मुझे नहीं, मेरे पति को ही मिलता है.’ सिर्फ यही नहीं, वे बताती हैं कि महिला कृषि श्रमिकों को पुरुषों की तुलना में कम मेहनाताना मिलता है. इसमें समानता लाने के लिए वे अन्य महिलाओं के साथ काफी समय से कोशिश कर रही हैं, लेकिन स्थिति जस की तस है.
‘हम महिलाएं सदियों से खेती कर रही हैं. हम अब तक अपने पारंपरिक तरीकों और बीजों को बचाते चले आए हैं. लेकिन न तो कभी हमारे योगदान को चिन्हित किया गया और न ही इसका महत्व समझा गया. सरकारें सिर्फ कैश क्रॉप को बढ़ावा दे रही हैं, जिन्हें ज़्यादा उगाने से हमारी मिट्टी पर बुरा असर पड़ रहा है. उनके दिए बीज भी सिर्फ एक बार प्रयोग में लाए जा सकते हैं, जबकि हमारे पारंपरिक बीज हम हर साल इस्तेमाल कर सकते हैं’ कोतेले का कहना है कि महिलाएं मिलकर बीज बैंक बनाना चाहती हैं, खेती में सामूहिक सुधार करना चाहती हैं. लेकिन जब उन्हें किसान मानने की जगह सिर्फ कमतर दर्जे का श्रमिक माना जाता है तो फिर कैसे वे सरकार से किसी भी तरह की मदद पा सकती हैं.
पिछले कुछ सालों में हम कृषि कार्यों के लिए महिलाओं पर अधिक निर्भर हुए हैं. क्योंकि पुरुष जीविकोपार्जन के अन्य तरीकों की ओर रुख कर रहे हैं. लेकिन इसके बावजूद भी आंकड़ों पर गौर करें तो खेती में महिला कृषकों (इसमें भी अधिकतम महिला कृषकों के पास ज़मीन का मालिकाना हक नहीं है) की संख्या घटी है और श्रमिकों की संख्या बढ़ी है. भारत की पिछली दो जनगणनाओं को देखें तो 2001 में खेती से जुड़ी कुल महिलाओं का 54.2 प्रतिशत हिस्सा कृषि श्रमिक थीं. जबकि बाकी 45.8 फीसदी महिलाएं कृषक के तौर पर इससे जुड़ी थीं. लेकिन साल 2011 में महिला श्रमिकों का आंकड़ा बढ़कर 63.1 फीसदी हो गया और कृषकों का आंकड़ा घट कर 36.9 फीसदी ही रह गया.
अब जब बड़े जोर-शोर से लैंगिक समानता की बात की जा रही है, जब सस्टेलेबल डेवलपमेंट की बात करते हुए पहली बार यह माना जा रहा है कि लैंगिक हिंसा का सीधा असर विकास पर पड़ता है, तो यह ज़रूरी है कि देश की महिलाओं की सबसे बड़ी आबादी, जो कि खेती से जुड़ी है, उनके अधिकार भी सुनिश्चित किए जाएं.
महिला किसानों की कुछ मुख्य मांगें:
- महिला किसानों को किसान का दर्ज़ा दिया जाय ताकि वे किसान क्रेडिट आदि सुविधाओं का लाभ ले सकें. उनके कृषि भूमि पर अधिकार सुनिश्चित किए जाएं. अधिकतर कृषि आधारित टीवी रेडियो प्रोग्राम्स में सिर्फ किसान भाइयों को संबोधित किया जाता है. सरकारी वेबसाइट्स और एडवर्टाइज़्मेंट्स में भी अधिकतर पुरुष किसानों के चित्र होते हैं. सिर्फ पुरुष ही किसान हैं, इस धारणा को बदला जाये.
- सभी कृषि योजनाएं ज़मीन के मालिकों के लिए हैं, सभी सब्सिडी और फायदे मालिक के खाते में जाते हैं. क्योंकि महिला किसानों को ज़मीन का मालिकाना हक मिलने में वक्त लगेगा, कृषि योजनाओं को ज़मीन के मालिकाना हक से जोड़ कर न लागू किया जाये. ज़मीन पर खेती करने वाले की पहचान करके उसे इन योजनाओं का फायदा दिया जाये.
- सभी कृषि योजनाओं पर खर्च होने वाले धन का आधा हिस्सा महिला किसानों पर खर्च किया जाये. साथ ही कृषि कार्य के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं को बीमा के दायरे में लाया जाये.
- पुरुष अधिकतर खेती में जुताई और कटाई का काम करते हैं, इन कामों के लिए तकनीक और उपकरण बाज़ार में जल्दी आते हैं, लेकिन महिलाओं के कामों से जुड़े हुए उपकरणों और तकनीक पर मुश्किल से ही ध्यान दिया जाता है. सरकार ध्यान दे कि धान जैसी फसल बोने, निराई-गुड़ाई करने में उन्हें घंटों मेहनत करनी पड़ती है. उन्हें इन सब कामों के लिए आसानी से इस्तेमाल किए जा सकने वाले उपकरण उपलब्ध कराए जाएं. इससे बचे समय का इस्तेमाल वे बच्चों के लालन-पालन व अपनी देखभाल में कर पाएंगीं. निराई या कटाई के समय महिलाएं अपने बच्चों व स्वयं के पोषण पर कम ध्यान दे पाती हैं जिससे महिला किसान और उनके बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं.
- महिलाओं के पारंपरिक कृषि ज्ञान को मान्यता मिले. साथ ही पारंपरिक बीज संरक्षण के लिए उनकी मदद की जाये.
राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा ललिता मंगलम ने महिला किसानों को भरोसा दिलाया है कि वे उनकी मांगों को सरकार तक पहुंचाएंगी और उनकी मदद करेंगी. यूएन वीमेन की मौजूदगी भी सरकार और किसानों के बीच पुल बनने की उम्मीद जगाती है. विकासशील देशों में खेती को एक पिछड़ते हुए सेक्टर की तरह देखा जाता है, और जीडीपी को विकास के मीटर की तरह देखने वाले अर्थशास्त्रियों का व्यवहार इसकी तरफ सौतेला ही रहता है. जबकि भारत जैसे देश में खेती सिर्फ एक बड़ी आबादी का पेट भरने का ज़रिया और जीविकोपार्जन का साधन ही नहीं, एक परंपरा है. कश्मीर से कन्याकुमारी तक इस परंपरा का लगभग सारा बोझ महिलाओं के कंधों पर है. वे इस बोझ को खुशी-खुशी उठाना भी चाहती हैं. ऐसे में सरकार की ज़िम्मेदारी है कि इन किसानों की समस्याओं को समझे ताकि हम न सिर्फ एक बड़ी आबादी को आत्मनिर्भर होते देख सकें बल्कि कृषि उत्पादों के लिए विदेशी बाज़ारों पर अपनी निर्भरता को भी कम कर सकें.

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