शुक्रिया रोज़, हम सबको हिम्मत देने के लिए, मुझे भी कुछ कहना है #MeToo-Rachana Priyadarshini

#MeToo कहने को पांच अक्षरों के छोटे से दो शब्द। इन्हें एक नज़र में पढ़कर कोई अंदाज़ा भी नहीं लगा सकता कि इसके पीछे कितनी गंभीर और विकराल पीड़ा छिपी हो सकती है। दरअसल यह अमेरिकन ऐक्ट्रेस ऐलिसा मिलानो द्वारा सोशल मीडिया पर चलाया गया एक कैंपेन है, जो देखते-ही-देखते दुनिया भर में पॉपुलर हो गया। चंद रोज़ में ही सोशल मीडिया के हज़ारों-लाखों ही नहीं करोड़ों यूज़र्स यह जानने को बेताब हो उठे कि आखिर ऐसा क्या राज़ छिपा है इन दो शब्दों में? पता चला हॉलीवुड की मशहूर अभिनेत्री रोज मैकगॉवन ने गत 13 अक्टृबर, 2017 को ट्विटर पर मशहूर निर्माता-निर्देशक हार्वी वाइंसटाइन के खिलाफ कई बड़े खुलासे किये। रोज़ ने आरोप लगाया कि हार्वी ने साल 1997 में उनके साथ रेप किया था।
हार्वी पर आरोप लगाने के कुछ देर बाद ही ट्विटर ने रोज़ का अकाउंट सस्पेंड कर दिया। रोज़ ने तब अपने इंस्टाग्राम अकाउंट के माध्यम से लोगों को बताया कि ट्विटर ने उनका अकाउंट सस्पेंड कर दिया, क्योंकि उनका अकाउंट ट्विटर पॉलिसी का उल्लंघन कर रहा था। फिर तो कई देशों समेत भारत में ट्विटर पर भी #WomenBoycottTwitter नाम से एक नया ट्रेंड  शुरू हो गया। इसके बाद दुनिया समेत भारत की महिला ट्विटर यूजर्स ने एक दिन के लिए ट्विटर से बॉयकॉट करने का फैसला लिया। इस वजह ट्विटर की काफी मिट्टी-पलीद हुई और अगले ही दिन उसे रोज़ के अकाउंट से बैन हटाना पड़ा। इसके बाद रोज़ ने हार्वी के खिलाफ एक के बाद एक कई ट्वीट्स किये। साथ ही रोज़ ने दुनिया भर की तमाम महिलाओं से यह अपील की कि
अगर यौन शोषण की शिकार सभी महिलाएं #MeToo को अपने फेसबुक स्टेटस में लिखें, तो शायद हम दुनिया को इस बड़ी समस्या का अंदाज़ा करवा सकें।
बस फिर क्या था तमाम सोशल साइट्स पर हैश टैग के साथ #MeToo पोस्ट की मानो बाढ़-सी आ गई। #MeToo पोस्ट करनेवालों में भारतीय महिलाओं की बड़ी संख्या है। यह बात वाकई हैरान करनेवाली है और साथ ही साथ शर्मनाक भी। इससे इतना तो स्पष्ट है कि इस मैसेज को वायरल करने के पीछे रोज़ का जो उद्देश्य था, वह तो सफल हो गया, लेकिन साथ ही साथ हमें इस बात का भी अंदाज़ा हो गया कि भारत सरकार द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे तमाम नारे लगवाने और ‘धनलक्ष्मी’, ‘कन्या सुरक्षा’ जैसी अनेको योजनाएं चलाने के बावजूद भारत में महिलाओं की सुरक्षा की क्या स्थिति है।
महिलाओं के खिलाफ होनेवाले इस तरह के अपराध का अंदाजा इस बात से लगाइए कि दुनिया भर की इनटरनेट यूज़र महिलाओं  में 76% महिलाएं फेसबुक यूज़ करती हैं लेकिन भारत में फेसबुक यूज़र्स में से बस 24 फीसदी ही महिलाए हैं उनमें से भी भारतीय समाजिक मानसिकता को ध्यान में रखते हुए निश्चित रूप से कई महिलाओं ने भुक्तभोगी होते हुए हुए पब्लिकली इस कैंपेन में हिस्सा नहीं लिया होगा। इनके अलावा जो महिलाएं फेसबुक या ट्विटर जैसी सोशल साइट्स यूज़ नहीं करती या फिर सुदूर गांव-देहातों में रहनेवाली उन महिलाओं के बारे में सोचिए, जो इंटरनेट से परिचित ही नहीं है, अगर उनके आंकड़ों को भी इसमें शामिल कर लिया जाये, तो?
फिर ऐसा भी नहीं है कि केवल महिलाओं के साथ ही सेक्शअल अब्यूज़ होता है। अगर सेक्शुअल असॉल्ट का सामन कर चुके लड़कों को भी इस में शामिल कर लिया जाए तब तो यह आंकड़ा न जाने कहां तक पहुंच सकता है। यह कोई मज़ाक नहीं है। सेक्शुअल अब्यूज़ पर चल रहे इस कैंपेन के बारे में मशहूर एक्सट्रेस और फिल्म डायरेक्टर पूजा भट्ट का कहना हैं-
कोई मुझे बताये कि जो औरतें या मर्द फेसबुक पर नहीं है, जिन्हें सोशल साइट्स का आइडिया नहीं है उनकी बातें कौन सुनेगा? केवल फेसबुक अपडेट पर सेक्शुअल अब्यूज़ मैसेज को वायरल करने मात्र से ही यह समस्या खत्म नहीं हो सकती। हम ऐसी सोसायटी में रहते हैं, जहां लोग अपने घरों की बात को बाहर लाने से डरते हैं। जिस दिन लोगों में यह हिम्मत आ जाये और अपने बाप, चाचा, मामा, आंटी का नाम लेने लगें, तभी शायद बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। मैं ही क्या,मुझे बताइए कि कौन सी ऐसी महिला है, जो इसका शिकार नहीं हुई हैं। लड़के भी सेक्शुअली अब्यूज़्ड होते हैं। इंडस्ट्री में तो लड़कियों से ज्यादा लड़के इसका शिकार होते हैं, लेकिन वह अगर किसी से इसका ज़िक्र करते हैं, तो लोग मज़ाक बनाते हैं। मुझे लगता है हमें इस मुद्दे पर एक समान ही सोचना चाहिए।
पूजा के अलावा बॉलीवुड, हॉलीवुड और टेलिवर्ल्ड की और भी कई नामचीन हस्तियों ने इस कैंपेन के हैशटैग को अपने फेसबुक पेज पर शेयर किया है। कुछ लोगों ने एलिसा के इन आरोपों का यह कह कर मज़ाक उड़ाया है कि उन्हें बीस वर्षों बाद यह याद आया कि उनके साथ सेक्शुअल अब्यूज़ हुआ था। अब तक वह कहां थी उनके अनुसार यह सब और कुछ नहीं, बल्कि पब्लिसिटी पाने का एक तरीका है। चलिए आप एक बार को मान लीजिए कि एलिसा झूठ ही बोल रही हैं, लेकिन जो महिलाएं एलिसा के इस ‘झूठ’ को सच मान कर अपना ‘सच’ बयां कर रही हैं, उनका क्या? क्या वे सबके सब झूठ बोल रही हैं? क्या उन्हें भी पब्लिसिटी पाने की दरकार है? ऐसा कतई नहीं है।
इस स्थिति पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है, एक तरफ तो हम विकास की ओर कदम बढ़ाने की बात करते हैं, दूसरी ओर इस तरह की भयावह सच्चाई हमारे उस विकास के नज़रिये का मज़ाक उड़ाती प्रतीत होती हैं। केवल इस विषय में कानून बनाने से काम नहीं चलेगा, हमें इस बारे में लोगों का, इस समाज का नज़रिया भी बदलना होगा। लोगों को यह समझाना होगा कि डंडे या थप्पड़ की चोट वक्त के साथ कमज़ोर पड़ जाती है, लेकिन किसी इंसान के आत्मसम्मान पर लगी चोट का दंश समय बीतने के साथ गहरा ही होता जाता है। ऐसे दंश से महिला हो या पुरुष दोनों ही के लिए उबरना और एक सामान्य ज़िंदगी जीना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए देश बदलने से पहले हमें अपनी सोच बदलनी होगी।(आभार यूथ की आवाज्,लेख मूल रूप से यूथ की आवाज पर २० अक्टूबर २०१७ को प्रकाशित हुआ है।)

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