धर्मगुरुओं के पाखंड के पीछे लम्बी लड़ाई वाली उन महिलाओं को ना भूलें -प्रत्युष प्रशांत
" धर्म द्वारा समाज की नैतिकता को कब्जा लेना, आधुनिक
दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी है "-आर्थर सी. क्लार्क
धार्मिक भावनायें
या भीड़ की आस्था किसी वैज्ञानिक सोच या लोकतांत्रिक अवधारणा पर आधारित नहीं होती
है। इसका सबसे कमजोर और दुखद पहलू यह है कि इसे कभी दैवीय प्रक्रोप का डर दिखा कर
या दंगों से जिंदा रखने की कोशिशे होती रहती है। धर्गगुरू गुरमीत राम रहीम का
बलात्कार के मामले में दोषी पाया जाना और उनकी प्रति श्रद्धालुओं का हिंसा पर
उतारू होना यह दिखाता है कि एक देश के मानस और उसकी लोकतांत्रिक व्यवस्था का
दिवालियापन इस कदर हो गया है कि बलात्कार के आरोपी किसी बाबा के इर्द-गिर्द समूचे
देश का ध्यान और बहुत कुछ केंद्रित कर दिया गया है। हमारे देश में
गुरमीत राम रहीम के तरह कई तरह के उदाहरण सामने आये है जिनका जनमानस पर गहरा
प्रभाव रहता है, लाखों लोग इसके कहने पर अपनी जान देने को तैयार रहते है। कोई
आशाराम बापू, कोई गोल्ड बाबा, कोई राधे मां या इस तरह के धर्मगुरूओं ने धर्म और
नैतिकता के नाम पर जो कुछ भी किया है-वह अक्षम्य है। उन्हें इसलिए क्षमादान नहीं
मिलना चाहिए क्योंकि इससे अराजता की स्थिति पैदा होगी।
समाज में नैतिक
मूल्यों के निमार्ण में धर्मगुरू अपने अनुयायियों को अग्रसर करने बजाय, उनकी आस्था
और विश्वास को लोकतांत्रिक ताकत के रूप में इस्तेमाल किया है। जनसमूह की आस्था और
विश्वासों का धर्म को राजनीति के साथ एकीकरण करने की कोशिशों ने धर्मगुरुओं को
अधिक शक्तिशाली बना देती है। जबकि धर्म और राजनीति दो अलग-अलग तत्व है यह किसी भी
स्थिति में एक नहीं हो सकती है। परंतु, वोट की राजनीति हमेशा इसे एक करने की
कोशिशें करती है। इसके साथ-साथ धर्मगुरू भी स्वयं को राजनीति से विलग नहीं रखना
चाहते है क्योंकि धर्म और राजनीति गठजोड़ से सामाजिक नैतिकता को अपनी तरफ झुकाया जा
सकता है। धर्म और राजनीति का विषय समाज के हर वर्ग के जीवन को प्रभावित करने की
क्षमता रखता है।
कम से कम पांच
प्रभावित राज्यों में हो रही हिंसा और आगजनी की खबरें तो यह स्पष्ट करती है कि
सड़कों पर समाज का नैतिक मूल्य धर्म और राजनीति के गठजोड़ के सामने घुटने टेक चुका
है। इसलिए हम उस महिला के संघर्ष को नहीं देखना चाह रहे है जो इन सारे दबाबों के
आगे झुकी नहीं, डटी रही और लड़ती रही। उस महिला ने देश के लोकतंत्र, लोकतांत्रिक
मूल्यों और न्यायपालिका में अपनी आस्था और विश्वास को कमजोर नहीं पड़ने दिया।
धर्गगुरू गुरमीत राम रहीम का बलात्कार के मामले में दोषी पाया जाना उस महिला के
साथ-साथ लोकतांत्रिक मूल्यों की भी जीत है।
एक लोकतांत्रिक
देश के नागरिक को यह सवाल स्वयं से पूछना होगा कि महिलाओं के शरीर पर धार्मिक
आस्थाओं का प्रदर्शन कब तक किया जाता रहेगा ? लोक आस्था और लोक विश्वास वाले इस
देश में बाबाओं और संतों का पूराना इतिहास रहा है कमोबेश हर बार तमाम बाबाओं का
चरित्र महिलाओं के मामले में एक ही तरह रहा है। यह सिद्ध करता है कि तमाम
लोकतांत्रिक कानूनों के बाद भी महिलाएं आज भी उस पायदान पर खड़ी है जिसके
लोकतांत्रिक अधिकारों को आसानी से रौदा जा सकता है। महिलाओं का अपना अस्तित्व
लोकतंत्र के दरवाजे पर आस्थाओं का चढ़ावे के सिवा और कुछ नहीं है।
परंतु, समस्या यह
भी कि एक गणतांत्रिक देश में दकियानूसी और भेदभाव महिलाओं के साथ कई स्तरों पर
किया जाता है। यह बात कौन किसे समझाए? भारतीय समाज में ऐसा होता है और
इसका एक लंबा इतिहास भी रहा है। महाराजा लाईबेल केस, मुंशी बजलुर रहीम बनाम
शम्सुन्निसा बेगम मामला, दादाजी भीकाजी बनाम रख्माबाई केस और इस तरह के कई केस इस
नजिर को पेश के करते है कि तमाम मामलों में समान उन महिलाओं को भूला देता है।
जिन्होंने मौजूदा स्थितियों के साथ लंबा संघर्ष किया और कभी घुटने नहीं टेके।
परंतु, वास्तव में इस तरह के मामलों में समाज के तुष्टीकरण की राजनीति और महिला विरोधी धार्मिक
कानूनों की वकालत होती है।
धर्मगुरू गुरमीत राम रहीम
का हलिया मामला एक शांत तालाब में एक तरंग के तरह है चूंकि एक-एक कदम आगे बढ़ने में वक्त लगता है इसलिए
सच्ची समानता लाने वाला जन आंदोलन शायद ही देखने को मिले।
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