अचानक से कोई वर्णिका खड़ी नहीं होती.......... प्रत्युष प्रशांत



समान्य स्थिति में किसी महिला का जिक्र आते ही, उपलब्धि नहीं, अक्सर अत्याचार की आशंका सिर उठाती हैहाल के दिनों में सोसल मीडिया पर बेबाक बयानी के बाद ट्रोल किया जाना जैसे मुद्दों लड़कियों के साथ चस्पा होते रहते है, इसलिए वर्णिका जैसे लड़की का किस्सा चौंकाती नहीं है। विकटिम बेलमिग जैसे कई उदाहरण हाल के दिनों में देखने को मिलते रहते है जिसके आधार पर सोसल मोरलिग किया जाता है। हलिया मामला इसलिए अधिक चौंकाती है क्योंकि बुद्धि और साहस पर एकाधिकार की मानसिकता को वर्णिका  जैसी लड़कीयां अपनी आत्मरक्षा के लिए न केवल तोड़ती है, बल्कि चुनौति भी देती है। खासकर जब वर्णिका कि तस्वीर को सोसल मीडिया में वायरल किया जा रहा हो और यह बताया जा रहा है कि वर्णिका के साथ होने वाले हादसे में उसके जान-पहचान के लोग ही शामिल थे। इसतरह यदि जान-पहचान के आधार पर किसी भी हिंसा को खारिज करने की कोशिशे हो रही है तो सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के हिंसा या मैरेटल रेप को किस तरह से देखने की कोशिश किया जाए ?
 कई रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आ चुके है कि ज्यादातर रेप जान-पहचान वाले लोगों के द्दारा ही होता है। मैरेटल रेप के विषय पर कई तरह की बहसें सामने आ रही है। इस मामले का एक पहलू यह भी है जो अक्सर महिलाओं से संबंधित मामलों में उठाया जाता है, सामाजिक और मौलिक ढ़ाचा तैयार किया जाए। जिसके दायरे में कोई भी महिला अगर कुछ कर रही है तो उसके साथ हुए हादसे पर सवाल उठाने के बजाए उसकी उपस्थिति को ही टारगेट किया जाए। वर्णिका के मामले में भी इस तरह के संस्कारी सवालों को भी उठाया जा रहा है कि आधी रात को लड़की सड़क पर क्या कर रही थी, उसके मां-बाप को उसका अता-पता था? जिसका जवाब में वर्णिका ने भी कहा कि- मेरे पिता को पता था कि मैं कहां हूं, क्या आरोपियों के पिता भी जानते थे कि आधी रात को लड़के कहां थे और क्या कर रहे थे?
निश्चय ही वर्णिका की कहानी मौजूदा समय में बदलती हवा का प्रतीक है क्योंकि वह अपने खिलाफ हुए हादसे के विरुद्ध खड़ी होने की कोशिश कर रही है। क्योंकि विकटिम बेलमिग की घटनाओं के बाद कई महिलाओं ने स्वयं को पीछे खींच लेती है, और स्वयं को चुप कर लेती है। जाहिरा वसीम और गुलमेहर कौर के साथ विकटिम बेलमिंग का मामला अभी अधिक पुराना नहीं हुआ है, न ही नाहिद आफरीन का मामला बीते अधिक पुराना हुआ है। जहां अपनी उपस्थिति और विकटिम बेलमिग की घटनाओं के बाद उन्होंने स्वयं को पीछे कर लिया और खामोश हो गई। अक्सर इस तरह के मामलें हमारे समाज और सिस्टम की कई परतों को खोल देती है, जिस के बारे में हम नेताओं के स्लोगन और एंड कंपनियों के पंच लाईन सुनकर निश्चिंत हो जाते है कि सब ठीक हो गया है या सब ठीक चल रहा है।
वर्णिका का हलिया हादसे को क्लास, जेंडर और लोकेशन के आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता है। इसतरह हम महिलाओं के साथ होने वाले हर हिंसा को चाहे वह किसी भी क्लास में क्यों नहीं हो रही हो, उसको सही ठहराने की कोशिश भी कर रहे है। साथ ही साथ इन बहसों में उन सवालों छुपा रहे है कि इस तरह के हादसों के पीछे खास तबके के ही लोग होते है जो सामाजिक और आर्थिक नज़रिये से कमजोर पृष्ठभूमि के है। वर्णिका के मामले में तो आरोपी उस क्लास के जो सामाजिक और आर्थिक नज़रिये से सभ्रांत घराने से आते है। वर्णिका का मामला महिलाओं के साथ हिंसा के साथ-साथ अन्य पहलूओं को भी परत-दर-परत खोलता है जिसपर कहीं कोई चर्चा होती नहीं दिख रही है। जाहिर है कि क्लास और जेंडर के आधार पर हिंसा के मामले में किसी को आरोपी नहीं बनाया जा सकता और किसी को इससे मुक्त भी नहीं किया जा सकता है।
बहरहाल हलिया वर्णिका घटना में उसने स्वयं को अपहरण होने से बचा लिया, वह स्वयं बहादुर निकली। परंतु, स्वयं के ऊपर अपहरण की कोशिश के विरुद्ध कुछ नहीं कर पाई। क्योंकि सरकारी महकमा इसे महज छेड़छाड़ की घटना मानती है। लंबे संघर्ष और दवाबों के आगे आरोपियों ने आत्मसर्मपन कर दिया है। फिर भी यह यक्ष प्रश्न खड़ा होता है कि क्या समाज में महिलाओं के सुरक्षा के मामलें में छेड़छाड़ इतना समान्य है कि सार्वजनिक परिवहन से लेकर निजी परिवहन के साधनों पर या सार्वजनिक जगहों से लेकर निजी जगहों पर भी किसी को भी यह हक है कि वह किसी महिला के साथ अश्लील या अभद्र व्यवहार कर सकता है। महिलाओं के साथ हिंसा के हादसों के बाद अक्सर महिलाओं को सावधानी बरतने की नसीहतें दी जाती है, जो काफी हद है मौजूदा समाज की स्थिति को देखते हुए सही कही भी जा सकती है। परंतु, समाज में इस तरह के हादसे तभी कम हो सकते है जब हम पुरुष स्वयं अपने व्यवहार में बदलाव नहीं करेंगे। फिर वो चाहे समाज के किसी भी तबके से आते हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इस तरह की घटनाओं को आधुनिक तकनीक या महिला सुरक्षा के ऐप्स बनाकर कम नहीं किया जा सकता है।
यूं तो लड़कियों पर थोपी गई हिंसा और प्रशंसा दोनों में पुरुष जाति का स्वार्थ होता है। यदि आज वर्णिका के हिम्मत पर प्रशंसा के फूल भी बरस रहे हैं तो इसका एक कारण सामंती मूल्यों में जकड़े पुरुषों का यह आभास है कि इस तरह के हाई प्रोफाइल मामलों में अकेले दम पर सामना करना उसके वश की बात नहीं है। मतलब पड़ने पर पुरुष सदैव औरतों का सहारा लेता है और काम निकलते ही उसे घर के चारदीवारी में लौट जाने का हुक्म सुना देता है। पुरुष अपनी सुविधा के मुताबिक ही महिलाओं की आजादी तय करता है।

इस हादसे पर राजनीतिक प्रतिक्रिया औंछी ही कही जा सकती है जहां विरोधी और सत्ता पक्ष की राजनीति इस्तीफे से आगे बढ़कर सोच ही नहीं रही है। ताकि आम जन के बीच में अपना मेडल लेकर चलते बने और वर्णिका अपने पिता के साथ इंसाफ के लिए चौराहे पर खड़े रहे। यह दुखद स्थिति है कि महिलाओं के अधिकांश सवाल न ही सामाजिक रूप से न ही राजनीतिक रूप से स्वस्थ परिणति तक नहीं पहुंच पाती है।

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