आस्था बनाम सामाजिक सुरक्षा -प्रत्युष प्रशांत

“उठो द्रौपदी उठो, अपने वस्त्र संभालो। अब गोंविंद न आयेगे।”
बाबा राम रहीम को बलात्कार के मामले में दोषी पाए जाने के बाद हिंसा को देखते हुए कुछ सवाल बार-बार अपनी जगह बना रहे है। सवाल है कि धर्म, जो व्यक्तिगत आस्था और विश्वास का विषय है, वह एकाएक ताकतवर कैसे बन सकता है? कि लोगों की व्यक्तिगत आस्था उसे हिंसा और आगजनी करने से नहीं रोक पाती है। धर्म के प्रति लोगों की आस्था लोकतंत्र में लोकतांत्रिक हितों से ऊपर कैसे स्थापित हो जाते है? मौजूदा समय में लोगों में धर्म के प्रति आस्था को किस तरह से देखा जाए?
हालिया मामले का विरोधाभास यह भी है कि जिस समाज को महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा के लिए बलात्कारी व्यक्ति के विरुद्ध सड़क पर उतरना था वो अपनी आस्था या व्यक्तिगत हितों के प्रभाव में बाबा के समर्थन में हिंसा पर उतारू थे और महिलाओं के लोकतांत्रिक अधिकार को तार-तार करने की कोशिश में शिद्धत से जुटी है। हालांकि यह अपने आप में पहली घटना नहीं है। इसके पूर्व भी कई मामलों में समाज और सामाजिक मूल्यों ने महिलाओं के अधिकारों के साथ ऐसा करती रही है। साथ ही साथ यह धार्मिक संस्थाओं में ही नहीं अन्य सामाजिक संस्थाओं ने भी महिलाओं की अस्मिता और सम्मान के साथ खिलवाड़ किया है। जहां एक तरफ तमाम धर्मगुरूओं के यहां महिलाओं के यौन शोषण/उत्पीड़न की खबरें आती है। वही रूपनसिह देओल और केपी एस गिल का मामला या भंवरी देवी का मामला या तरूण तेजपाल और तहलका पत्रिका में महिलाकर्मी के यौनशोषण का मामला या परिवार संस्था के अंदर ही महिलाओं और बच्चियों के यौन शोषण के कई मामले कई तहों को उधेड़ रहे है? जाहिर है कि निजी और सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के सामाजिक सुरक्षा के सवाल पर गंभीरता से पुर्नविचार करने की आवश्यकता है।

अगर तमाम धर्मगुरूओं के मामले को देखा जाए तो इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि धर्म गुरूओं के प्रति आस्था और विश्वास के दो कारण है एक वो लोग जो जातीय उत्पीड़न से तंग आकर अपने मान-सम्मान और अस्मिता के रक्षा के लिए बाबाओं के शरण में जाने के लिए विवश होते है। दूसरा, लोग व्यक्तिगत स्वार्थ से वशीभूत होकर धर्म का उपयोग शिखर तक पहुचंने वाले उस सीढ़ी के रूप में करते हैं। यह कोशिश धर्म को रूढ़ बना देने की होती है, इस माध्यम से आमजन के विवेक को कुंठित कर, उसके व्यवहार को भीड़ की मानसिकता से जोड़ दिया जाता है। बाबाओं के साम्राज्य ने जनता के सामने वो विकल्प उपलब्ध कराये है जो जनता के प्रति राज्य की जिम्मेदारी थी। राज्य और राज्य की संस्थाओं की नाकामीयों ने इन बाबाओं को धीरे-धीरे मजबूत किया। मिसाल के तौर पर हिंदू या अन्य धर्मों ने भी कई समुदायों के लोगों के अस्तित्व और सम्मान की रक्षा लोकतांत्रिक अधिकारों के साथ नहीं किया न ही अपने अंदर लोकतात्रिक चेतना का विकास ही किया। इसलिए इन तबकों का विश्वास इन धार्मिक आस्थाओं के साथ अधिक होता गया। बाबाओं के साम्राज्यों ने अपने अनुयायियों के मन में मिथकीय मूल्यों के साथ नई संस्कृतियों ने साथ-साथ एक नई सुरक्षा भावनाओं का विकास किया है। जो मुख्य धारा कि किसी धर्म या मंदिर, मस्जिद या गिरजाघरों में कभी पूरा हो सके है। निश्चित तौर पर इन धर्मगुरूओं के प्रति आस्था लोगों को वो मुक्त वातावरण उपलब्ध करा सकी है जो जमाने से वंचित समुदायों के लोगों की महत्वकांक्षा रही है।
हमें यह भी समझना होगा कि पिछले कई दशकों में मनोरंजन उधोग ने भी बाबाओं के सम्राज्य को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। तमाम संचार माध्यमों ने बाबाओं के मुठ्ठीकरण और मारण मंत्र वाले बंगाली बाबा से लेकर झोलाछाप बाबाओं के विज्ञापन से कोई परहेज नहीं है। तमाम बाबाओं को माध्यमों के द्दारा स्थापित करने के साथ-साथ उनसे जुड़ी सनसनी खबरों का दोहन टीआरपी रेटिग के लिए किया जाता रहा है जो अभी भी थमा नहीं है। वास्तव में जनमानस के आस्थाओं का बाजारीकरण इन माध्यमों के द्दारा ही होता है। मौजूदा समय में धर्म कम लागत में अधिक मुनाफा वाला सबसे भरोसेमंद कारोबार है जिसमें घाटे की कोई संभावना नहीं है। जब कोई बाबा सोने के मुकुट और तलवार लेकर जनता के सामने आते है या चमत्कार करता है तो आमजन की भावनाओं का दोहन, धर्म का कारोबार चलाने में अपनी भूमिका निभाता है। उन्हीं के बूते समाज की अंधविश्वास फलती-फूलती है और मानवीय विवेक का क्षरण होता है।
बाबा राम रहीम के मामलें में उन महिलाओं के संघर्ष को स्वाहा करने का इससे अधिक अच्छा तरीका और क्या हो सकता है कि समाज में नैतिकता के तमाम ठेकेदार गुरमीत राम रहीम के उत्तराधिकारी में तलाश में लगे हुए है। एक तरफ न्याय व्यवस्था यौन शोषण के मामले में दोषी पाये जाने पर राम रहीम को सजा सुनाती है तो दूसरी तरफ सरकार विवाहित बलात्कार को नये सिरे से परिभाषित करने की कोशिश कर रही है। इसे देखकर यही कहना सही होगा कि “उठो द्रौपदी उठो, अपने वस्त्र संभालो। अब गोंविंद न आयेगे।”


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