मेरी नजर मेरा शहर

बटलर फैक्ट्री के साईरन ने मुज्जफरपुर शहर ने अपनी नींद अभी खुली है। शहर रात की मदहोशी से जाग रहा है। गर्म तेल की काली कढ़ाही में कड़कराती जलेबी, आलू-दम और पूरी की सुंगध ने शहर की नींद से जगा दिया है। साईकिल अपने सीट पर शहर के भविष्य को लादे सड़को पर भागा ले जा रही है। एक जोश दिखाई दे रही है शहर के भावी पीढ़ी के आंखों में। रिक्शे की मदमस्त चाल अब सिटी बसों की रफ्तार में तब्दील होती जा रही है। शहर एक बार फिर अपनी बुलंदियां छुना चाहता है। अब यह शहर भी विकास की धीमी चाल को खरगोश के चाल के साथ जोड़ना चाहता है।
रेलवे फाटकों के जंजीरों से बंटा हुआ मुज्जफरपुर शहर अब ओवरब्रीजों के चौड़ी सड़को पर आजादी से चहल कदमी कर रहा है। पान ठेलों की दुकान पर पान सुपारी और सिगरेट का कश छोड़ता पौरुषेता अपने रोजनामचे पर आड़ी तिरछी लकीरें खीचता बाईक को स्टार्ट कर अपनी दिहाडी के लिए दफ्तर के सफर पर निकल पड़ा है।
सूबे की सांस्कृतिक राजधानी मुजफ्फरपुर को साहित्यिक ऊर्जा प्रदान करने वाला देश भर में उत्तर छायावाद के गढ़ के रूप में बहुचर्चित निराला निकेतन के हिस्से में अब केवल  स्मृति शेष ही बचे रह गए हैं। क्योंकि महाकवि आर्चाय जानकी वल्लभ शास्त्री अपनी रचित गद्य के सहारे शहर को व्योम में छोड़कर बहुत दूर चले गए हैं। जो कुर्सियों  महाप्राण निराला, पृथ्वीराज कपूर, उदय शंकर भट्ट, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेद्वी, आचार्य त्रिलोचन शास्त्री, कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी, क्रांतिकारी कवि रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय बच्चन, आचार्य महाशंकर मिश्र, आचार्य जयकिशोर नारायण सिंह व नवगीत प्रवर्तक राजेन्द्र प्रसाद जैसे विरले लोगों का अतिथ्य स्वीकार करती थी, वो दलान पर धूप का घटना बढ़ना देख रही है। अब जाड़े की धूप में भी थोड़ी गर्म हो गई है क्योंकि 'किसने बांसूरी बजाई' के गीत कोई नहीं गाता।
मुजफ्फरपुर की तवायफ मंडी यानी चतुर्भुज स्थान की गलियों के चेहरे पर स्याह झुरियां पड़ गई हैं, पर उसकी आवाज में ठसक अभी भी कायम है। महफिलें उजड़ गई हैं। राते बेमजा। शहर बदल गया है। पहले रतजगा हुआ करता था। रात-रात भर संगीत की महफिल।  कभी महफिल की शान रही जीनत बेगम कहती हैं, ‘दुष्यंत का शेर सुनाती है,.. दुकानदार तो कब के लुट गये,..तमाशबीन दूकानें सजा कर बैठ गए। क्या करे धीरे-धीरे इस कस्बे ने अपनी नींद तोड़ दी है।‘ सफेद और नीली रोशनी में सीडी प्लेयर, ब्यूटी पार्लर, साईबर कैफे, वीडियो गेम्स के काउंटर से आती आवाजें हारमुनियम पर “झुमका गिरा रे” और “इन्हीं लोगों ने” की आवाज को डायल्यूट करती है।
“कल्यानी चौक” शहर की ह्रदय स्थली के रूप में मशहूर है। यहां से निकलने वाले रास्ते चार दिशाओं में जाने का संकेत देते हैं। मौसम चुनावी हो या ईद और दीवाली भी दस्तक दे रही हो।  कल्याणी चौक चौराहे के आसपास के बाजार हमेशा चहकते रहे हैं। मुजफ्फरपुर सूबे का इकलौता ऐसा अनूठा शहर रहा है जहां चुनाव प्रचार के अंतिम दिन कल्यानी चौक पर सभी प्रत्याशी जनता से अपनी बात कहने के लिए खुद जुटते हैं। कोई आयोजक या प्रायोजक नहीं होता है। प्रत्याशी प्रचार गाडिय़ों पर बने मंच पर खड़ा होकर ही जनता से वोट का भिक्षाटन करते हैं। ना कोई मारपीट, ना कोई हंगामा।
देश के अन्य शहरों के तरह आधुनिकता का आगमन इस शहर में थोड़ा अलग है जिसका अनुमान कच्चे पक्के घरों के छतों पर केबल टी. वी. के छतरी से तो होता ही है साथ ही नये फिल्मी गानों पर बच्चों के थिरकने से भी होता है। पर हम परंपरा के साथ साथ-गांठ से ही आधुनिक हो सकते है। सप्ताह के पहले दिन सोमवार को “गरीब स्थान” मंदिर में महादेव के शिवलिंग की अर्चना और क्लब रोड के “दुर्गा मंदिर” में उमड़ी भीड़ से इस बात का प्रमाण पेश करती है। दाता कम्बल शाह का मजार इस शहर के सांप्रदायिक सदभाव का प्रतीक है। वक्त के साथ माल गोदाम से सिनेमा टाकिज बने इस शहर में अभी तक PVR ने दस्तक नहीं दिया है। कभी इस शहर में दर्जन के हिसाब से सिनेमाघर हुआ करते थे जिनमें कई बंद हो चुके है तो कई सिनेमा देखने के नई तकनीकों से अपने अस्तित्व का जंग लड़ रहे है। सिनेमाघरों की जनता अपने मनोरंजन के लिए वाताअनुकूलित कमरों के रेस्त्रां के तरफ रूख कर चुकी है।। सौन्दर्यीकरण के नाम पर “ शहीद जुब्बा साहनी पार्क” शहर ने यहां के बाशिंदों को हरी घास की कालीन पर सकून के दो वक्त नसीब किया है। शहर अभी तक मैकडोल्नड, पिज्जा हट, सब-वे के रेस्त्रां से महरुम है। पर इन व्यंजनों के स्वाद से महरूम रहने का इल्म शहर के पेशानी पर जरा भी है। शहर खुश है भारत जलपान रेत्रां के समोसे के स्वाद से और सफी दाऊदी मार्केट के पावभाजी के चटकारे से।
जूरन छपरा में डांक्टर और मेडिकल टेस्टों की टंगी तख्ती इस बात का एहसास कराती है कि यह शहर आरोग्य सेवा के लिए दूसरे शहर का मोहताज नहीं है। सूत्ता पट्टी का कपड़ा बाजार मंडी और इस्लामपुर में लाह के चूड़ियां और लहठी इस शहर के व्यावसायिक पहचान देता हैं। बिहार विश्वविधालय, लंगटसिंह महाविधालय जहां डा० राजेन्द्र प्रसाद ने अंग्रेजी के प्राध्यापक के पद को शुशोभित किया, मंहत दर्शनदास महिला विश्वविधायल, इंजीनियरीग कालेज, मेडिकल कालेज जैसे संस्थान इस शहर को जगाये रखने का प्रयास करते है।......
मुजफ्फरपुर के सड़को का किस्सा कुछ अल्हदा सा है। सड़को के मामलों में शहर अपने ऎतिहासिक विरासत से कोई समझौता आज तक नहीं किया है। शहर के व्यस्त सड़को की सुध नहीं ली जाती जिसके कारण इस शहर को ‘गड्ढों का शहर’ भी कहा जाता है। दूसरी तरफ गली-मोहल्ले की सड़को पर सीमेंट-कंक्रीट के संगम ने मोटर साईकिलों को हुडीबाबा करने का तोफहा दिया है।
मुजफ्फरपुर का वर्तमान नाम ब्रिटिश काल के राजस्व अधिकारी मो० मुजफ्फर खान के नाम पर पड़ा है। इतिहास इस शहर को खुदीराम बोस के शहादत के लिए याद करता है परंतु स्वदेशी आंदोलन के दौरान डाकविभाग के कर्मचारियों ने खाकी पतलून पहनने से इंकार कर दिया था और ब्रिटिश अधिकारी के सामने धोती पहन कर विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया था, जिसे “धोती आंदोलन” के नाम से जाना समझा जाता है। इसी तरह यहां जेल के कैदियों ने मिट्टी के लोटे में पानी पीने से इंकार कर दिया था जिसके कारण ब्रिटिश अधिकारियों को मजबूरन कैदियों को लोटे वापस करने पड़े थे जिसे “लोटा आंदोलन” के नाम से जाना जाता है। चर्चा इस बात की भी होती है कि महात्मा गांधी को झंडे में चरखा की प्रेरणा यहां के निवासी ध्वजा प्रसास साहू से मिली थी।
मुज्जफरपुर शहर का अच्छा खासे क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यहां के कालनियों में अपार्टमेंट की शुरूआत अभी गिनतीयों में ही है। यहां व्यावसायिक माल की शुरुआत अभी शैश्व अवस्था में ही है और मार्केट माडल अपनी जड़े जमाए हुए है मसलन सफी दाऊदी मार्केट, पंकज मार्केट, पूजा मार्केट।
साहित्यक संस्कृति में मुज्जफरपुर शहर ने अपना दखल लगातार बनाये रखा है। प्रसिद्ध  उपन्यासकार देवकीनंदन खत्री की “ चंद्रकांता “ और  “चंद्रकांता संतति” की रचना भूमि मुजफ्फरपुर ही है | भारतीय कथाजगत के शलाकापुरुष शरतचंद्र ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास “श्रीकांत “ के महत्वपूर्ण अंश इसी शहर में लिखे | कवीन्द्र रवींद्र नाथ टैगोर का तो इस शहर से पारिवारिक सम्बन्ध रहा है। रामवृक्ष बेनीपुरी, रामजीवन शर्मा जीवन और मदन वात्स्यायन की रचनात्मक प्रतिभा यहीं  से सम्पूर्ण साहित्य जगत में प्रसरित हुई। वर्तमान समय में सुमन केसरी अग्रवाल, गीताश्री, प्रभात रंजन, शांति सुमन, सच्चिदानंद सिन्हा, रश्मि रेखा, पंकज राग जैसे रचना कर्मियों ने यहां के साहित्य परंपरा को जीवित रखा है।
लीची यहां के अब भी रसीले और मीठे है और बचा कर रखा है उसने इस शहर का स्वाद, मगर यह यहां के चुनिदां लोगों को गिनती से नसीब हो पाते है, फिर बांस के टोकरों में हरे- हरे पत्तों के साथ शहर से कहां विदा हो जाते है इसका पता मुज्जफरपुर को भी नहीं है। बहुत कुछ है जो इस शहर को अलविदा कह चुका है पर ये शहर है जो अपनी धुन में परंपरा को सहेज कर आधुनिकता का इस्तकबाल करने के लिए तैयार खड़ा है।

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