पिया की पहरेदार बनकर भी मर्दवाद की कैद में हैं टीवी की महिलाऐं -प्रत्युष प्रशांत


अब शोषण और दमन का चेहरा बदल गया है क्योंकि देश बदल गया इसलिए अब रामायण की कहानी सिया के राम है, तो चंदगुप्त की कहानी चंद्र नंदनी है, इसलिए पहले पुरुष पिया पहरेदारी करता था अब पिया को पहरेदारी करनी है यानी पहरेदार हमेशा नये अवतार में आता रहेगा।
मौजूदा समय टी.वी. ने मनोरंजन का एक सा सच खड़ा किया है जहां सब मस्त है टी.वी. पर कोई नाच ही नाच रहा है, तो कोई गाना ही गा रहा है या तो हंसा रहा है और लोगों की हंसी उड़ा रहा है। इस बात से बेपरवाह की तमाम विविधताओं को ही स्टीरियोटाइप चुटकुलों को तरह पेश किया जा रहा है। लगभग तमाम रियालिटी शो अपने प्रस्तुती में इस तरह का कि आप उसके बहाव में वर्ग, जेंडर और कई श्रेणियों में बंटते हुए नजर आते है। यह एक सा पहलू है जिसे देखने वाले दर्शक को सजग होने की जरूरत है। टी.वी. के मनोरंजन उद्योग ने अपने दर्शकों को बनाए रखने के लिए धार्मिक पात्रों, इतिहास के वीर नायक चरित्रों, मिथक कथाओं और सामंती मूल्य वाली गाथाओं पर सोप-ओपराज को दर्शकों के लिए पेश किया। जिसमें केवल औरतें ही परेशान है, सताई हुई है, घबराई हुई है और सब कुछ बदलने के बजाए बदला लेने के लिए तैयार खड़ी है या विवशता में सब कुछ स्वीकार करने के लिए तैयार खड़ी है। असल में भारतीय टी.वी. के मनोरंजन उद्योग पास दर्शकों के मनोरंजन की कोई मौलिक परियोजना नहीं दिखती है।

समकालीन दौर में भारतीय टी.वी. ने जो स्त्री-छवि बनाई है उसमें नयी स्त्री कथित परंपरा (साड़ी,पल्लू,घूंघट,लाज) वादी स्त्री की जगह नयी स्त्री है जो नये सच को स्थापित करती है। इस छवि में लड़कियां है जो अधिक आत्मविश्वासी है, अधिक वाचाल है, लोक-लाज से मुक्त है, अपनी पीड़ा, अपनी कामना और अपनी बात कहती है, यही आज के समाज का आईना है, हर नए बनने वाले स्पेस की नई तस्वीर है। फिर भी चिंता की बात यह है कि जब जमाना बदल गया है, जनतंत्र है, कानून की नजर में एक नागरिक के रूप में स्त्री-पुरुष एक समान है। सबका साथ सबका विकास है। बेटी बचाओ, बेटी बढ़ाओ है। फेसबुक की नीली दीवार है, चहचहाती चिड़िया है, वाट्स अप है। लड़कियां सुरक्षित नहीं है, पर आत्मनिर्भर है, जागरूक है, पर सदमा झेलने को तैयार है। लेकिन समांती समाज वही का वही है जहां पहले था। इसलिए सोप-ओपराज की स्त्रीयां परेशान है, शिक्षित होकर आधुनिक बेटियां, पत्नीयां और प्रेमिकाएं शारिरिक तौर पर आजाद होकर भी मानसिक गुलामी की शिकार है। समाज में मर्दवादी चेतना नहीं मरी है। इसलिए महिलाएं मुक्त नहीं है। बालिका वधू, न आना इस देश में लाड़ो, अब के बरस मोरो बिटिया ही दीजौ जैसे सीरियलों में इतनी स्थिति तो सही बनाई कि अति नाटकीयता के बीच कुछ पल से भी बनाये जिसमें औरतों के शोषण, उसपर हिंसा और दमन को दिखाया गया। जो सीमित अर्थों में सही लेकिन सार्थक मानी जा सकती है। अब शोषण और दमन का चेहरा बदल गया है क्योंकि देश बदल गया इसलिए अब रामायण की कहानी सिया के राम है, तो चंदगुप्त की कहानी चंद्र नंदनी है, इसलिए पहले पुरुष पिया पहरेदारी करता था अब पिया को पहरेदारी करनी है यानी पहरेदार हमेशा नये अवतार में आता रहेगा।
मौजूदा समय टी.वी. ने घरेलू स्पेस में अपने सांस्कृतिक अर्थ को खोलता है इस घरेलू स्पेस के अतिक्रमण पर जितनी अधिक बहसें घरों के ड्राईग रूमों में होगी, कार्यक्रमों को अधिकतम देखा जायेगा, उतनी टीआरपी बढ़ेगी। कमाई बढ़ेगी। फिर 18 साल की नायिका का 9 साल के बच्चे से रोमांस पर कुछ भी गलत नहीं है। एक छोटा सा लड़का जिसकी उम्र स्कूल में खेलने की है वो किसी सीन में सिंदूर भरता है, प्यारी-प्यारी बातें करता है, किसी डल्ट की तरह हरकतें करता है, कुल मिला कर प्यार करता है। जीवन की वास्तविकता के बजाए सेक्सपांट बनाने का उद्देश्य समझना मुश्किल है। स्पष्ट है कि आप सा कुछ दिखाएं जो न केवल दिलचस्प हो बल्कि चर्चा में आ जाए तो कार्यक्रमों में आने वाले प्रचार अधिक होगे और स्पांसर लाईन लगाएंगे। मैनेजबल विवाद को बनाए रखों जिससे दर्शकों की कमी न हो। औरत का कमजोर होना और मर्द को मर्दवाद को पोसने में ही चैनलों का फायदा है। इसलिए तमाम मनोरंजन परोसने वाले चैनल मीडिल क्लास की भावना को छेड़कर, भड़काकर, बहसों में लाकर दर्शकों को पोजिसन लेने में विवश करके, अपनी कामयाबी का रास्ता बनाते है। जिसकी कीमत किसी चैनलो को नहीं चुकानी है, आम दर्शकों को चुकानी है, क्योंकि इससे पैदा होने वाला मूल्यबोंध दर्शकों के सांस्कृतिक बोध को तोड़ ही नहीं रहा, नए मूल्यबोंधो को बना भी रहा है। इस तरह के तमाम शो आम औरतों के मन में प्रिय बना दी गई परंपरा प्रदत्त सामंत की मर्दानगी वाली छवियों को भी गढ़ रहा और सामंती अवशेषों को समकालीन जीवनमूल्यों में घोलने का काम भी कर रहा है।
तमाम सोप-ओपेराज में प्रस्तुत महिलाओं की छवियों के विषय में यह समझने की जरूरत है कि मनोरंजन उद्योग अपनी कमाई की एटीएम मशीन सिर्फ महिलाओं के पीठ पर क्यों टांगना चाहती है? एक बड़े स्त्री उपभोक्ता वर्ग आपके कार्यक्रमों के रूढ़िवाद, मर्दवाद सेक्सिस्ट मूल्यों को क्यों देखे? क्या इस तरह के कार्यक्रमों आपके उस संकल्प को पूरा करता है जो प्रसारण के अधिकार के वक्त आपने लिया था।
जाहिर है कि मनोरंजन उद्योग ने एक नवीन तर्कशील महिलाओं की छवि को भी उसी सांचे में ढालने का काम कर रही जो अपने पति और एक अदद घर की खातिर स्वयं को समर्पित कर देती है, उसकी प्रोफेशनल छवि वाली महिला भी अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए उन्हीं मूल्यों में बंधी हुई है जिसको बदलने की कोशिश वो करती है पर कर नहीं पाती है। पहले वो आत्मनिर्भर महिला के रूप में सामने आती है और आखिर में आदर्श पत्नी बनकर घर में रम जाती है, शुरूआत में वह अपना जो स्पेस आत्मनिर्भर तरीके से बनाती है, सामाजिक मूल्यों के आगे घुटने टेक का पहरेदार पिया की बन जाती है।

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