बाढ़ के साथ जीना सीखना ही होगा -प्रत्युष प्रशांत


भारत में अच्छी फसल के लिए पहले मानसून का इंतजार और फिर बड़े हिस्से में का बाढ़ के चपेट में आना, नदियों का तटबंध कोई नई घटना नहीं है यह हमेशा से होता रहा है। इसमें नई बात यह है कि अब इसके चपेट में मुबंई और चैन्नई जैसे महानगर भी होते है। महानगरों में बाढ़ जैसी स्थिति का पैदा होना जल निकासी व्यवस्था की खराब स्थिति के वजह से ही नहीं अन्य कई कारणों से है। इसके बरक्स उत्तर भारत में हर साल हजारों लोगों की मौत होती है और करोड़ों लोग इससे प्रभावित होते है। महत्वपूर्ण सवाल यह है कि हर बार सा होता है बाढ़ के तत्कालिन कारणों पर बहस होती है और बाढ़ खत्म होती ही सब भूल जाते है। फिर अगले साल हम उसी समस्या पर बात करते है और मामला बाढ़ राहत के अनुदान के बाद खामोश हो जाता है।

फोटो सभार, अरविंद सोनी
कोसी तटबंध में अब तक का यह आठवां कटाव है, जिसमें नेपाल के पंचायतों के साथ बिहार के कई जिले बाढ़ से प्रभावित है। अब तक न सा कोई तटबंध बना है और न भविष्य में बनेगा जिसमें कटाव न आए। कोसी नदी के तटबंध में कटाव और पिछली कई सरकारों ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि कोसी को बांधा नहीं जा सकता। अपनी विशिष्ट भौगिलिक परिस्थितियों और जटिल विशेषताओं के कारण कोसी एक ऎसी नदी है जिसके बारे में अभी व्यापक रूप से समझा जाना बाकी है। कोसी को घूमती-फिरती नदी भी कह सकते है क्योकि पिछले 200 सालों में इसने अपने बहाव में 120 किलोमीटर का परिवर्तन किया है। कोसी के इस तरह खिसकने के कारण आठ हजार वर्ग किलोमीटर जमीन बालू के बोरे में बदल गई है। बिहार आज जिस बाढ़ से बेहाल है उसकी चेतावनी पर्यावरणविद बहुत पहले से देते आ रहे है। चीन की पीली नदी भी जब अपना रास्ता बदला था तो उस प्रलय में पांच लाख मारे गये थे। यहां ध्यान देने की जरूरत यह है कि चीन की महत्वाकांक्षी तिब्बत परियोजना के कारण भारी मात्रा में अरूण नदी में रेत के प्रमाण बढ़ा है जिसके कारण रेत का जमाव और फैलाव बिहार में बढ़ा है। क्योंकि सप्तकोसी का पानी कोसी में आयेगा और कोसी की तलछट मैदानी इलाकों में जमा होगा जिसका सबसे बड़ा हिस्सा भारत में है इसलिए कोसी के मार्ग में बदलाव आता रहेगा और मानसून-दर-मानसून बिहार डूबने के लिए अभिशप्त ही बना रहेगा। इससे निजात पाने के लिए दीर्घकालिक रणनीतिक के तहत उपाय करने होंगे। हमें और नीति निर्माता प्रकृति पर नियंत्रण करने के अपनी पुरानी विकास की अवधारणा का त्याग करें और यह माने कि हमें बाढ़ के साथ जीना सीखना होगा।

फोटो सभार,अरविंद सोनी

मौजूदा बाढ़ में बिहार राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के आंकड़ों के अनुसार राज्य के
19 ज़िले बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हैं, जिसमें अररिया, सीतामढ़ी, पश्चिमी चंपारण एंव गोपालगंज प्रमुख हैं। पूरे राज्य के बाढ़ से अब तक 5oo से भी ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है और एक करोड़ से ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं। ऎसा नहीं है कि बाढ़, इतने बड़े स्तर पर पहली बार आई हो, साल 1954  के बाद से लगभग हर साल नियमित रूप से बारिश के महीनों में बिहार के किसी न किसी हिस्से में बाढ़ आती ही रही है। कभी स्थिति नियंत्रण में रहती है तो कभी सरकार की सारी तैयारियां विफल हो जाती है। 2004 से लेकर अब तक राज्य में सिर्फ़ बाढ़ के वजह से 2200 लोगों की मौत हो चुकी है। बिहार के लोगों ने बाढ़ के वजह से नुकसानों से उबड़ना तो सीख लिया है। पर बाढ़ के साथ जीना सीखने की जरूरत है। हम यह बार-बार नहीं कह सकते है कि बाढ़ लाना नदी का स्वभाव है। प्रकृति के साथ समायोजन विकसित कर हम बाढ़ की त्रासदी को समाप्त तो नहीं कर सकते, पर कम जरूर कर सकते है। हमें प्रकृति के साथ जीने की अपनी कलाओं को विकसित करना ही होगा अन्यथा हम भीषण बाढ़ में डूब जाएंगे और भीषण सूखे में भूखे मरेगे।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन ने ह्वांग-हो नदी जिसे चीन का शोक कहा जाता है के बाढ़ पर पूरा नियंत्रण स्थापित कर लिया है, अब वहां बाढ़ की विभीषिका नहीं झेलनी पड़ती जबकि कोसी साल-दर-साल डूब और विस्थापन का दायरा बढ़ाती जा रही है।




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