अतिथि तुम नहीं आओगे -प्रत्युष प्रशांत

शरणार्थियों पर भारत का हलिया फैसला हतप्रद करने वाला है क्योंकि इससे पहले भारत हमेशा शरणार्थियों के विषय पर हमेशा उदार रहा है। भारत सरकार की आशंका के अनुसार कुछ रोहिंग्या आतंकी संगठन से जुड़े हो सकते है जो भारत के सुरक्षा के लिए खतरा है। रोहिंग्या शरणार्थियों के भारत में रहने से सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक समस्याएं होगी।

बीते छह सितंबर को म्यांमार सीमा से लगे बांग्लादेश के तेकनाफ में सीमा पर करने के बाद अपनी बच्ची के साथ आराम करतीं एक रोहिंग्या शरणार्थी. (फोटो: सो ज़ेया तुन/रॉयटर्स)

यह चौंकाने वाला बयान भी है क्योंकि भारत का
2,000  सालों से मानवाधिकार को लेकर शानदार रिकार्ड रहा है। तिब्बती, 1971  में पाकिस्तानी सेना के प्रताड़ित किए गए बंगाली, श्रीलंका के तमिल मूल के लोग, सिविल वांर से भागकर आए नेपाली, बांग्लादेशी चकमा, अफगानिस्तानी, ईरान और सीरिया सहित अफ्रीका के लोग देश में पनाह मिली है। भारत ने अनेक मौके पर बाहर से आए शरणार्थियों को लौटाया नहीं है। तिब्बती शरणार्थियों का तो बाहें फैलाकर स्वागत किया गया और आज तक हर संभव सहायता करता आ रहा है। श्रीलंका से आए तमिल शरणार्थियों को भी हर संभव समर्थन और सहयोग दियाम जिसका बाद के दिनों में खामियाजा भी भुगतना पड़ा। पाकिस्तान से आए हिंदू शरणार्थियों या तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान(अब बंग्लादेश) से आए लगभग एक लाख चकमा और हाजोंग शरणार्थियों को अब भारतीय नागरिकता दी जा रही है। फिर रिहिंग्या शरणार्थियों के प्रति इस तरह कठोर रवैया क्यों अपनाया जा रहा है?

म्यांमार सीमा पार करने के बाद बांग्लादेश स्थित बंगाल की खाड़ी के शाह पोरीर द्वीप में रोहिंग्या शरणार्थी. फोटो: (दानिश सिद्दीकी/रॉयटर्स)

साथ में, भारत ये कैसे भूल सकता है कि अतिथि देवों भव: भारत की सांस्कृतिक परंपरा है, कई लोग रहे है, जहां बसने वाले शरणार्थियों ने उस देश का नाम रोशन किया, आंइस्टाइन शरणार्थी थे, और उनकी खोज अमेरिका के विकास का उर्जा पैदा करने का सबसे बड़ा जरिया बना। हमारे देश के मिल्खा सिंह शरणार्थी बनकर आए थे और जहां से आए थे उस देश ने ही उनको फ्लाइग सिंख का खिताब दिया था। इन लोगों को अपने देश से जान बचाकर भागना पड़ा था और नए देश में उनका स्वागत हुआ। हो सकता है, रोहिंग्या समुदाय में कुछ उग्रवादी भी हों, लेकिन इसके लिए पूरी आबादी को गुनाहगार कैसे ठहराया जा सकता है? खासकर तब जब भारतीय मीडिया का एक खास हिस्सा गरीब और बेहाल रोहिग्या शरणार्थियों के बारे में तथ्यहीन दुष्प्रचार कर रहा है और भारतीय जनता के दिमाग में आधारहीन भय को कई स्तर पर पैदा कर रहा है। इन शरणार्थियों के बारे में कई बैसिर-पैर की बाते बताई जा रही है कोई उन्हें हिंदू बना रहा है, कोई मुस्लिम तो कोई बौद्ध कोई यह नहीं बता रहा है कि रोहिंग्या शरणार्थी मानव समुदाय का हिस्सा है और इंसान ही है।
इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि शरणार्थी समस्या के निदान के लिए क्षेत्रीय या राष्ट्रीय साधनों के हिसाब से सबकी राय अलग-अलग हो सकती है और इस व्यापक मानवीय संकट से निपटने के लिए अंतराष्ट्रीय सहायता बहुत कम मिलती है जो नाकांफी ही होती है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि शरणार्थियों की समस्या के समाधान की दिशा में सरकारों को मार्गदर्शन देने के लिए एक ख़ास क़ानून होना चाहिए। दक्षिण एशियाई देश मौजूदा अंतरराष्ट्रीय शरणार्थी क़ानून स्वीकार करना चाहें अथवा वे ख़ुद एक अलग क़ानून बनाएं, लेकिन उनके लिए अब फैसला लेने का वक्त आ चुका है। भारत इस मामले में मानवअधिकारों के प्रति विश्व स्तर पर प्रतिबद्धता विकसीत करने में महत्वपूर्ण पहल कर सकता है, ताकि पूरी दुनिया में स्टेट लेस मानव समुदायों के लिए ठोस समाधान की तलाश की जा सके। भारत के सांस्कृतिक पहचान जो “अतिथि देवों भव:” से गौराविंत होती आ रही है, वो विश्व संस्कृति के रूप में अपनी पहचान बना सके। जिससे कोई भी देश शरणार्थियों के मामलें में अपने हाथ मजबूरी में बंधा हुआ नहीं दिखा सके और अपनी सुविधा के हिसाब से एक बड़े मानव समुदाय के तकदीर का फैसला नहीं कर सके। कम से कम रोहिंग्या समुदाय के मौजूदा स्थिति पर म्यांमार और कई देशों की मजबूरी तो यहीं दिखाती है कि अपनी सुविधा के लिए किसी भी बड़े समुदाय को भेड़-बकरी के तरह कहीं भी हांक सकते है, और उनके मानवाधिकार के कोई मायने नहीं है।


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