मर्यादा की मारी चिंता और अफ़सोस का कर्मकांड-प्रियदर्शन(सभार: लेख मूल रूप से द वायर हिंदी से लिया गया है)

मृणाल पांडे में बाकी जो भी दुर्गुण हों, वे असभ्य और अशालीन होने के लिए नहीं जानी जातीं. वे किसी रूप में वामपंथी भी नहीं हैं. उन पर बीजेपी विरोधी होने का भी वैसा इल्ज़ाम नहीं रहा है, जैसा दूसरों पर है.

मृणाल पांडे. (फोटो साभार: फेसबुक/आॅक्सफोर्ड बुक स्टोर)
मृणाल पांडे. (फोटो साभार: फेसबुक/आॅक्सफोर्ड बुक स्टोर)
पचास के शुरुआती वर्षों का एक कार्टून है जिसमें मोरारजी देसाई को मुर्गे के तौर पर दिखाया गया है. तब वे बंबई के मुख्यमंत्री थे (तब महाराष्ट्र नहीं बना था).  उसी दौर में एक कार्टून में शेख अब्दुल्ला शेर की तरह पिंजड़े में क़ैद हैं, और उनकी रिहाई के लिए नेहरू की क़रीबी मानी जाने वाली मृदुला साराभाई ने नेहरू पर तीर का निशाना साध रखा है- नेहरू कहते हैं, आंखों से काम लो.
इसी तरह एक अन्य कार्टून में प्रधानमंत्री नेहरू गधे की तरह हांफते हुए चल रहे हैं और उनकी पीठ पर शेख अब्दुल्ला सवार हैं- लक्ष्य कश्मीर है. कहना मुश्किल है कि यही वह कार्टून था जिसके बारे में यह किस्सा मशहूर है कि प्रधानमंत्री के यहां से कार्टूनिस्ट को फोन गया कि क्या वे एक गधे के साथ चाय पीना पसंद करेंगे? ‘डोंट स्पेयर मी शंकर’ वाला नेहरू का जुमला मशहूर है ही.
मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर वरिष्ठ लेखिका मृणाल पांडे ने ‘जुमला जयंती’ पर भक्तों को बैशाख नंदन बताते हुए जो ट्वीट किया, उस पर सोशल मीडिया पर दो दिन चले अफसोस के व्यापक कर्मकांड के बीच मुझे इन प्रसंगों की याद आई.
एक प्रसंग विंस्टन चर्चिल का भी याद आया. कहते हैं, दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान किसी ने चर्चिल को मूर्ख कह दिया. पुलिस ने तत्परता दिखाते हुए उसे गिरफ़्तार कर लिया. ब्रिटिश संसद में इस पर ख़ासा हंगामा हुआ. तब विंस्टन चर्चिल ने कहा- उसका अपराध यह नहीं है कि उसने प्रधानमंत्री को मूर्ख कहा है, बल्कि यह है कि उसने युद्ध के समय एक सरकारी राज़ को उजागर कर दिया है.
चर्चिल ख़ुद पर हंस सकते थे. नेहरू ख़ुद को गधा बनाया मंजूर कर सकते थे. संसद में लोहिया और नेहरू के बीच की नोकझोंक मशहूर है. जब नेहरू ने दलील दी थी कि नेफ़ा में कुछ नहीं उगता तो लोहिया ने दलील दी थी कि प्रधानमंत्री के सिर पर भी कुछ नहीं उगता, इसका मतलब यह नहीं कि उसकी कोई अहमियत नहीं है.
ऐसे प्रसंगों और कार्टूनों का एक पूरा सिलसिला है. एक का ज़िक्र के बिक्रम सिंह ने अपनी किताब ‘कुछ गमे दौरां’ में किया है. वे बताते हैं कि इमरजेंसी के दौरान जब अख़बार सेंसर किए जा रहे थे तो कुछ पत्रकार इंदिरा गांधी से मिले.
उन्होंने शिकायत की तो इंदिरा गांधी ने कहा- ‘वी वांट टु स्टॉप द स्प्रेड ऑफ़ द रयूमर.’ उस बैठक में केरल के जाने-माने कार्टूनिस्ट अबू अब्राहम भी थे. उन्होंने पलट कर पूछा. ‘बट व्हाई डु यू वांट टू स्टॉप द स्प्रेड ऑफ ह्यूमर.’ के बिक्रम सिंह ने लिखा है कि उसके बाद कभी अबू अब्राहम के कार्टून सेंसर नहीं किए गए.
राजीव गांधी ने भी एक काला प्रेस बिल लाने की कोशिश की थी. तब राजेंद्र धोड़पकर ने एक कार्टून बनाया था जिसमें संपादक वकील से फोन पर पूछ रहा है, ‘वकील साहब, अगर मैं लिखूं कि नेता चोर है तो मुझ पर कौन मुक़दमा करेगा- चोर या नेता?’
हास्य और व्यंग्य की यह परंपरा पत्रकारिता से ज़्यादा साहित्य में रही है. गधे के रूपक पर कृष्णचंदर ने ‘एक गधे की आत्मकथा’ लिख दी जो भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे ज़्यादा पढ़ी गई किताबों में एक है. हरिशंकर परसाई के यहां ऐसे व्यंग्य आलेखों की भरमार है. एक मित्र ने एक व्यंग्य की याद दिलाई. ट्रेन में एक सज्जन प्रधानमंत्री की आलोचना करते जा रहे थे- प्रधानमंत्री चोर है, प्रधानमंत्री बेईमान है.
उनको प्रधानमंत्री के समर्थकों ने घेर लिया, आप हमारे प्रधानमंत्री के बारे में ऐसा कैसे कह सकते हैं. उन सज्जन ने खुद को बचाते हुए कहा कि उन्होंने किसी देश का नाम तो लिया नहीं है. समर्थकों ने धमकाया, ‘हमें मूर्ख समझते हो, हम नहीं जानते कि किस देश का प्रधानमंत्री चोर और बेईमान है?’
मैं उम्मीद करता हूं कि प्रधानमंत्री भी हंसी-मज़ाक की इस स्वस्थ परंपरा से परिचित होंगे और शायद ऐसे किसी मज़ाक का बुरा नहीं मानेंगे. लेकिन उन भक्तों का क्या किया जाए जो मृणाल पांडे के इस ट्वीट पर पिल पड़े हैं और इसे अमर्यादित बताते हुए मर्यादा की तमाम सीमाएं ख़ुद फलांग रहे हैं?
दुर्भाग्य से बहुत सारे सज्जन और तटस्थ समझे जाने वाले पत्रकारों और लेखकों की राय भी यही है कि मृणाल पांडे ने प्रधानमंत्री को गधा बताकर अमर्यादित ट्वीट किया है और कुछ ने तो इसके लिए उनके विरुद्ध एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया से प्रस्ताव तक पास करने की मांग की है.
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मृणाल पांडे का विवादित ट्वीट.
लेकिन क्या मर्यादा का सवाल इतना शाकाहारी होता है? जिस सोशल मीडिया पर- फेसबुक, वाट्सऐप और ट्विटर पर, लगभग रोज़ फूहड़ चुटकुलों की झड़ी लगी रहती है, जहां आक्रामक दुष्प्रचार अपने चरम पर होता है, वहां मृणाल पांडे के एक ट्वीट से लोग इतने आहत क्यों हो गए?
इसी सोशल मीडिया पर कई मनोरंजक चुटकुले राहुल गांधी से लेकर आलिया भट्ट तक पर चले हैं. एक चुटकुला चला था- राहुल सोनिया गांधी से कह रहे हैं- क्या हमारे देश का नाम बदल गया है? सोनिया पूछती हैं, क्यों? राहुल कहते हैं- टीवी चैनल चला रहे हैं कि साक्षी मलिक और पीवी सिंधु ने भारत का नाम रोशन कर दिया है. सोनिया कहती हैं- तू पोगो चैनल ही देखा कर.
इसी तरह जिन किसानों की फ़सल बरबाद हो गई है, वे सोनिया गांधी को 100 रुपये पकड़ाते हुए कह रहे हैं- ‘आप भी ये मुआवज़ा ले लो, आपकी भी फ़सल बरबाद हुई है.’
इन पंक्तियों के लेखक ने इन चुटकुलों का आनंद भी उसी तरह लिया जिस तरह दूसरों ने भी लिया. लेकिन मामला सिर्फ चुटकुलों का नहीं है. हम ऐसे बर्बर समय में रह रहे हैं जब बहुत ही ख़तरनाक ढंग से स्त्रियों, अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों के ख़िलाफ़ माहौल बनाया जा रहा है.
डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख राम रहीम की सहयोगी हनीप्रीत के नाम पर टीवी चैनलों मे जो तमाशा चल रहा है, उसमें हमारे समाज की सामंती मर्दवादी सड़ांध भी दिखती है और आधुनिक समय की लंपटता भी.
लेकिन मर्यादित आचरण और भाषा के पैरोकार टीवी चैनलों के इस तमाशे का विरोध नहीं कर रहे, मृणाल पांडे के ख़िलाफ़ जो ट्रोलिंग शुरू हो गई है उसका भी विरोध नहीं कर रहे, बस मृणाल पांडे के ट्वीट को पत्रकारिता की ऐसी अमर्यादा बता रहे हैं जिसके लिए उन्हें दंडित किया जाना ज़रूरी है.
शील और मर्यादा की ऐसी रक्षा में शामिल इन लोगों में बहुत सारे ऐसे हैं जो अपने चैनलों, सोशल मीडिया पर अपनी टिप्पणियों, अपने अख़बारों में तरह-तरह के चटखारे लेने से नहीं चूकते.
मृणाल पांडे तब से पत्रकार और संपादक रही हैं जब हम बच्चे हुआ करते थे. वे बहुत संंभ्रांत मानी जाती रही हैं. उनकी जटिल हिंदी और कुलीन अंग्रेज़ी अपनी भव्यता से बहुतों को आक्रांत करती रही है. उनमें बाकी जो भी दुर्गुण हों, वे असभ्य और अशालीन होने के लिए नहीं जानी जातीं.
वे किसी रूप में वामपंथी भी नहीं हैं. उन पर बीजेपी विरोधी होने का भी वैसा इल्ज़ाम नहीं रहा है जैसा दूसरों पर है. इन सबके बावजूद उन्होंने ऐसा ट्वीट क्यों किया जो बहुत सारे लोगों को बिल्कुल चुभ गया, इस सवाल पर विचार करें तो असली पीड़ा दिखाई पड़ती है.
अब चोट वहां से शुरू हो रही है जहां से इसकी कम उम्मीद की जाती है. लेकिन मृणाल पांडे स्वतंत्रचेत्ता रही हैं, उनसे असहमति की लगातार गुंजाइश बनी रह सकती है. वे तमाम विचारधाराओं को अलग-अलग मौक़ों पर निराश कर सकती हैं.
वैसे प्रधानमंत्री पर उनके ट्वीट से जिन लोगों को, उन्हीं की भाषा में, ‘मिर्ची लगी है’, उन्हें अभी इसके लिए कुछ और तैयार रहना चाहिए. राजपाल से आ रही मृणाल पांडे की नई किताब पुरानी किस्सागोई के अंदाज़ में मोदी सरकार की नोटबंदी और उनके अर्थ प्रबंधन पर कई दिलचस्प चुटकियां लेती है.
फिलहाल शालीनता और शिष्टता की संस्कृति पर लौटें. कभी चुपके से एक मस्जिद में मूर्तियां रख देने वाली और कभी कानून के सामने खाई गई क़समों की अवहेलना करते हुए खुलेआम एक मस्जिद गिरा देने वाली विचारधारा, गोमांस खाने के शक में घर से निकाल कर किसी को मार देने वाली, और गोरक्षा के नाम पर सड़क पर सरेआम जान लेने वाली खूंखार वैचारिकी वैशाखनंदन के संबोधन से इतनी आहत हो जाए कि ट्रोलिंग का नया सिलसिला शुरू कर दे- यह भी मेरी तरह के लेखक के लिए डराने वाली बात है.
उन तथाकथित उदार बुद्धिजीवियों को अपनी राय पर पुनर्विचार करना चाहिए जो मृणाल पांडे के ट्वीट में प्रधानमंत्री का ऐसा अपमान देख रहे हैं जिसके लिए मृणाल पांडे को क्षमायाचना करनी चाहिए. हालांकि अच्छा होता कि ऐसे लोगों को ब्लॉक करने की जगह मृणाल पांडे अपनी फॉलोअर सूची में बने रहने देतीं, लेकिन शायद नकली लोकतांत्रिकता की जगह वैचारिक अकेलापन उन्हें ज़्यादा सही लगता हो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)

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