JNU के बेबाक, बेखौफ आजादी पर पाबंदी की कोशिशे! -प्रत्युष प्रशांत

देश के हर विश्वविद्यालयों में चंद दिनों पहले छात्र संघ चुनावों का दौर चल रहा था, जिसमें हर विश्वविद्याल से अलग JNU ने एक अलहदा नज़ीर पेश की। कमोबेश हर सहभागी पार्टियों ने पसमांदा दलित महिला उम्मीदारवारों के हाथों में प्रतिनिधित्व की जिम्मेदारी सौपी। हालांकि JNU के छात्र समुदायों ने इससे पहले भी महिला प्रतिनिधि पर अपनी सहमति की मोहर लगाई है। जिस देश के लोकतंत्र ने राजनीति में महिलाओं के आरक्षण के विषय लंबे समय तक फुटबाल बना हुआ है, वहां JNU के छात्रों का यह आत्मविश्वास लोकतंत्र को नई ऊर्जा देता है। लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह बनता है कि जिसके के लिए देश का लोकतंत्र स्वयं को तैयार नहीं कर पाया, छात्र राजनीति में छात्रों में इस निर्णय तक पहुंचने का साहस कैसे दिखाया? वास्तव में JNU देश का एक ऐसा अनोखा विश्वविद्याल है जिसने प्राथमिक स्तर पर कई प्रयोग किए, जिसके परिणाम लड़कियों के हक में देखने को मिले है।
इन प्राथमिक प्रयोगों में लड़कियों को यहां नामकंन में कुछ नबंरों की छूट, राज्यों और जिले के आधार पर भी नामकंन में कुछ नबंरों की छूट और लड़कियों की सुरक्षा के लिए यौन उत्पीड़न निवारण कमेटी(जीएस कैश) की सुविधा है। जेंडर सेसिटाइजेशन से जुड़ी यह कमेटी लड़कियों को भारत के किसी भी राज्य के किसी भी जिले से यहां आने का सहज वातावरण और अभिभावकों को एक आत्मविश्वास दिलाती है। पिछले कुछ दिनों से जीएस कैश पर लगातार हमलों ने JNU में रह रही लड़कियों के मनोबल को ठेस पहुंचाई है, क्योंकि प्रशासन इस कमेटी की आंतरिक संरचना में फेरबदल करने पर अमादा है। ये बदलाव JNU की लड़कियों और महिलाओं के बेखौफ आजादी के माहौल को दायरे में लाने की कोशिश है, जो उनके आज़ाद ख्यालों को रोक तो नहीं पायेगा परंतु, उनके आत्मविश्वास को कमजोर जरूर करेगा।
क्या है जीएस कैश ?
कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न की रोकथाम और दिशानिर्देशों के अनुसरण के लिए भारत में सुप्रीम कोर्ट के विशाखा गाईडलाईन्स के तहत, JNU के उपकुलपति प्रो. करूणा चानाना की अध्यक्षता में यौन उत्पीड़न कार्य समूह को नियुक्त किया गया। जिससे JNU ने ‘जीएस कैश’ का गठन हुआ, जिसके तीन प्रमुख कार्य है-लिंग संवेदीकरण और अभिविन्यास, संकट प्रबंधन और मध्यस्थता और औपचारिक जांच और निवारण।  JNU में ‘जीएस कैश’ अपने आप में अनोखा प्रयोग रहा है जो JNU में सफल भी हुआ है। अगर कोई पुरुष छात्र, शिक्षक या कर्मचारी किसी लड़की या कैंपस की महिलाओं को तंग करता है, या यौन शोषण करता है या धमकाता है तो लड़की या महिला इस आयोग में शिकायत कर सकती है। आयोग में छात्रों का एक प्रतिनिधी होता है जो चुना जाता है चुनाव से, इसके अलावा छह शिक्षक, कर्मचारियों का एक प्रतिनिधि और एक कर्मचारी सदस्य के होते है जो जेंडर विषय पर काफी संवेदनशील होते है। पूरी सुनवाई होती है और फैसले भी होते है। परेशान करने वालों को चेतावनी भी मिलती है और सस्पेंड भी किया जाता है। इसतरह के कई मामलों में छात्र, शिक्षक या कर्मचारी किसी को भी नहीं बक्शा जाता है। जरूरत होने पर काऊसलिंग की भी व्यवस्था होती है।
यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसे JNU ने लड़कियों और महिलाओं के सुरक्षा के लिए देश से पहले सोचा था। ध्यान देने वाली बात यह भी है जो कई बार ख़बरों में मुख्य सुखिर्यों में होता है कि JNU में सबसे अधिक यौन शोषण की घटनाएं होती है, इस ख़बर का एक पहलू यह भी है कि ‘जीएस कैश’ जैसी बांडी लड़कियों और महिलाओं को ये हौसला देता है कि वो अपनी शिकायत दर्ज करें। देश के अन्य शिक्षण संस्थानों में इस तरह की कोई बांडी काम नहीं करती, जिसके कारण यौन-शोषण की मामले दर्ज ही नहीं हो पाते है।
इस तरह किसी भी कमेटी के लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि वह लड़कियों या महिलाओं के मन में यह विश्वास पैदा करें कि यहां उनकी बात को सुनने में पूर्वाग्रही मानसिकता या संरचनागत स्थिति बाधा नहीं पैदा करेगी। जो महिला उत्पीड़न के अधिकतर मामलों में होता है, महिलाएं इसलिए शिकायत नहीं कर पाती है क्योंकि पूर्वाग्रही मानसिकता या संरचनागत स्थिति स्थिति को सहज नहीं बनने देती है। इस स्थिति को अधिक लोकतांत्रिक और शिकायतकर्ता के लिए अधिक सहज बनाने के लिए छात्र प्रतिनिधी, शिक्षकों के प्रतिनिधी तमाम प्रयास करते है ताकि शिकायतकर्ता सहज होकर अपनी बात कमेटी के समक्ष रख सके। अगर शिकायतकर्ता कमेटी के कार्यप्रणाली से नाखुश होती है तो उसके सामने अन्य विकल्प भी खुले होते है जिसका प्रयोग स्वतंत्र रूप से करने में सक्षम है। अरविंद जैन बताते है कि- “किसी भी कानून प्रक्रिया से गुजतना इतना त्रासद और अपमानजनक है कि एक साधारण महिला का आत्मविश्वास न्याय मिलने से पहले ही खत्म हो जाता है।” जीएसकैश ने JNU के छात्राओं और महिलाओं के मन में जेंडर सेसिटाइजेशन का आत्मविश्वास पैदा करने में सफल रही थी, इसलिए JNU के ‘जीएस कैश’ के इस मांडल को देश के अन्य शिक्षण संस्थानों का पालन करने के लिए मानक बनाया गया। न्यायमूर्ति श्री जे एस वर्मा ने सर्वोच्च न्यायलय के दिशानिर्देशों को विश्वविद्यालयों और शैक्षिक संस्थानों में लागू करने की भूमिका पर बताते है कि “यूजीसी को जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से उन दिशानिर्देशों की एक प्रति खरीदनी चाहिए, जो उन्होंने अपने विश्वविद्यालय में यौन उत्पीड़न की समस्या से निपटने के लिए तैयार की थी और जांच की कि क्या अन्य विश्वविद्यालय में इसे दोहराया जा सकता है या नहीं।”
क्या है नये बदलाव और क्या है आईसीसी ?
मौजूदा प्रशासनिक अलमबरदारों की कार्यकारी परिषद की 279 बैठक में पिछले 18 साल से चल रही लोकतांत्रिक व्यवस्था ‘जीएस कैश’ के जगह पर आतंरिक शिकायत समिति(आईसीसी) लाकर व्यापक फेरबदल कर दिया है और हवाला ‘जीएस कैश’ की कानूनी वैध्यता का दिया जा रहा है। जिसमें नए नियमों और प्रक्रियाओं को लेकर छात्र और विश्वविद्यालय समुदाय में काफी आलोचना हो रही है। इसमें छात्रों और शिक्षकों के प्रतिनिधियों के चयन की प्रक्रिया को पारदर्शी रखने के बजाए उसको निर्वाचित सदस्यों के साथ-साथ कई बदलाव कर दिये गये है। हालांकि आतंरिक शिकायत समिति(आईसीसी)में निर्वाचित सदस्य की नियुक्ति भी असंवैधानिक तरीके से किया गया है क्योंकि आइसीसी के दिशा-निर्देश में ही संस्था के सदस्यों को असंवैधानिक बताया गया है। साथ ही साथ तमाम निर्वाचित सदस्य लिंग संवेदीकरण और अभिविन्यास के प्रति समझ भी संदेह के घेरे में है, क्योंकि अधिकतर सदस्य कुछ मामलों में जांच के दायरे में है।
जहाँ हर रोज स्त्री यौन हिंसा का अनुपात बढ़ता जा रहा हो, स्त्रियाँ सार्वजनिक जगहों पर भी असुरक्षित महसूस करती हों, रास्ते में आते-जाते एक डर लगातार उनका पीछा करता रहता हो और न डरने वाली स्त्रियों को पिद्दी-पिद्दी भर लड़के भी डराने की कोशिश में लगे रहते हों। जहाँ शैक्षणिक संस्थाओं में छात्राओं को ही नहीं शिक्षिकाओं और स्त्री कर्मचारियों तक को भी किसी न किसी तरह सेक्सुअल अब्यूज का शिकार बनाया जाता हो चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक। ऐसी स्थिति में जेएनयू जैसी संस्था से ‘जीएस कैश’ को ख़त्म करना किस ओर इशारा करता है? जेएनयू जैसी संस्थाएँ एक दिन में खड़ी नहीं होती हैं और न ही ‘जीएस कैश’ जैसी कोई बॉडी ही। लम्बे सामूहिक संघर्ष से हासिल होता है इस तरह का कुछ भी। जीएस कैश स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ही महत्त्वपूर्ण है लेकिन आज भी जिस समाज में हम जी रहे हैं उसमें इस तरह के किसी भी बॉडी की जरूरत निश्चित तौर पर स्त्रियों को ही सर्वाधिक है। जब हम अभी तक अपनी शैक्षणिक संस्थाओं में लिंग, जाति, वर्ग आधारित किसी भी तरह की समानता को मुकम्मल तौर पर सुरक्षित नहीं कर पाये हैं ऐसे में स्वतंत्रता-समानता के लिए किये गये संघर्ष को एक झटके में खत्म कर देने का निर्णय क्या सामंती-पितृसत्तात्मक मानसिकता को और अधिक बढ़ावा देना नहीं है? जब शैक्षणिक संस्थाओं के लिए सरकार बहादुर और उनके अलमबरदारों का यह रवैया है तो बाक़ी जगहों का अनुमान किया जा सकता है। हमारे जीने की जगह रोज-ब-रोज कम की जा रही है। रोज दिन हमें और अधिक दमघोटू माहौल में धकेला जा रहा है और हम अभी भी अपने मध्यवर्गीय रुमानियत में डूबे चाँद-तारों की सैर कर रहे हैं, नदी-समुद्र में हिचकोले खा रहे हैं, चाय की चुस्की और कॉफ़ी मग की एलीटनेस में स्त्रीवाद तलाश रहे हैं। जब हम ऐसे में भी अपने हिस्से की ज़मीन और अपने हिस्से की हवा के लिए संगठित न हुए तो आगे की पीढ़ी को हम हमारे ऊपर शर्मिंदा होने से न रोक सकेंगे।

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