“बोलना आंटी आऊं क्या घंटी मैं बजाऊं क्या” आपको कूल नहीं बेशर्म बनाता है-प्रत्युष प्रशांत
सोसल मीडिया के
साइबर खिड़कीयों पर केवल लाइक, कमेंट, शेयर और सब्सक्राइब्स के ही विकल्प मौजूद
नहीं है। सिनेमा, नाचगाना आदि के बारे में यह मानकर चलते है ये संस्कृति दास्ता से
मुक्त भी करते है और गुलाम भी बनाते थे। पंरतु, आज हम उपभोग की प्रक्रिया के
मायनों में एक अर्थ का निर्माण भी करते है और देखने वाले को सक्रिय भी करते है। इसके
साथ एक ऐसा बाजार भी जुड़ा
हुआ है जो सीधा-साधा ठोस लाभ भी जुड़ा हुआ है। इस लाभ की कोई नैतिकता, मर्यादा या
सामाजिक जिम्मेदारी नहीं है। इसपर पिछले दिनों कई क्षणभंगुर महाकाव्य इस तरह
प्रसारित हो रहे है, जिसने शीला की जवानी और तन्दूरी चिकेन को भी पीछे छोड़ दिया
है। वे एक नया सौंदर्य और वर्णन भाषा लेकर आते है, फूहड़ बोलों, घटिया संगीत के साथ
ऐसा कुछ प्रस्तुत
करते है, जो गर्व तो कम देता है पर सर झुकाने की वजह अधिक देता है।
बिना किसी
बुनियादी रचनात्मक मौलिकता के यह चोखाधंधा लाइक, कमेंट, शेयर और सब्सक्राइब्स के
अंगूठे के ठेलने भर से शुरू होता है और कुछ लाख व्यू के बाद अतीत में खो जाता है,
पर छोड़ जाता है सोसल मीडिया के एक हिस्से का ऐसा दिवालीयापन जिसे निजी और सार्वजनिक जगहों पर
केवल महिलाएं ही झेलती है और शर्म से आंखे झुकाये अपने कपड़ों के सलवटों को ठीक
करके आगे बढ़ जाती है। कुछ दिनों पहले ढिचंक पूजा “सेल्फी मैंने लेली यार” जैसे गानों से लाखों कमाने वाली अब ट्रेडिग
लिस्ट के साथ ख़बरों का भी हिस्सा नहीं है। उनकी जगह को अब ओमप्रकाश मिश्रा आये हुए
है, मिश्रा की “आंटी की घंटी” किस आंटी को गर्व और सम्मान दे रहा है पता
नहीं? कुछ दिनों बाद इससे भी अधिक अश्लील प्रस्तुति के साथ कोई नया चेहरा होगा और सोसल
मीडिया के साइबर खिलाड़ी लाइक, कमेंट, शेयर और सब्सक्राइब्स में धंसे रहेगे। सोसल
मीडिया के साइबर खिलाड़ीयों और नीति-निर्माताओं को यह समझने की जरूरत है कि इन
चीजों के जरिए इंटरनेट का खतरनाक उदारवाद आभासी दुनिया के माध्यम से असल दुनिया में
पैंठ बनाने की कोशिश कर रहा है। सोसल मीडिया के साइबर खिड़की पर आइटमों का पैंठ
केवल क्षणभंगुर नहीं है, यह हफ्तेभर में अतीत में खो जरूर जाता है पर इसके अपने
प्रभाव है, जिसको गंभीरता से समझने की जरूरत है।
भाषाई शिष्टाचार,
नैतिकता और मर्यादा का मायने ही नहीं समझने वाले इन गानों को सुने तो इसमें कोई
मौलिकता नहीं देखती है। ध्यान से सुनने पर पता चलता है कि किस तरह से महिलाओं से
जुड़ी कुंठाओं का गान गर्व के साथ हमारी स्वीकृति से किया जा रहा है। आश्चर्य यह भी
है कि इस तरह के गाने किसे कूल बनाते है और हमेशा महिलाएं ही इसके केंद्र में
क्यों होती है? अगर हम इस तरह के गानों का हिस्सा बन गए है या बनने वाले हैं तो
हमें सोचना होगा कि आगे से महिलाओं के बारे में किस तरह की और कैसी टिप्पणियों को
हमें गलत कहेगे और किन्हें नहीं कहेगे। इस तरह के गानों से अगर किसी के अपमान को
कानूनी दायरे में देखा जाए तब या तो हमें विखाशा गाईड लांइस को फांड़कर फेंकना होगा
या उसपर पड़ी धूल को झाड़ना होगा।
“क्योंकि बोलना
आंटी आऊं क्या” गर्व से चिल्लाने की नहीं शर्म से सर झुकाने देने वाली बात है, हम
तुम्हारी है तुम ही संभालों ये दुनिया! कहकर अलविदा नहीं कह सकते है। हमको शर्म भी
आती है, पर अब हमें कहना भी होगा।
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