परिवारवाद और पैसे की राजनीति के बीच निर्मला का रक्षा मंत्री बनना सुखद है- प्रत्युष प्रशांत

भारत जैसे देश में जहां महिलाओं के शिक्षा का स्तर आकंड़ों में दम तोड़ रहा हो, राजनीतिक दलों में महिलाओं की भागीदारी नौ फीसदी, न्यायिक व्यवस्था में तीन फीसदी, सिविल सेवाओं में सात फीसदी, ट्रेड यूनियन में छह फीसदी हो, जहां बची-खुची शिक्षित महिलाएं “ग्रेजुएट महिला सर्वेट” के रूप में घरों की हाऊस वाईफ है। वहां केंद्रीय मंत्रीमडल में ही नहीं सामाजिक, निजी संस्थाओं और समाज के हर क्षेत्र में महिलाओं की सहभागिता, प्रतिनिधित्व और उपलब्धियों के अपने अलग मायने है। क्योंकि वो न केवल स्वयं को सिद्ध करती है, बल्कि सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक बेड़ियों को तोड़ने के साथ-साथ आधी आबादी के लिए फुट प्रिंट भी तैयार करती है।
मौजूदा केंद्र सरकार के मंत्रीमंडल में स्मृति ईरानी के बाद निर्मला सीतारमण ऐसी दूसरी मंत्री है, जिनपर साईबर स्पेस पर सबसे अधिक लाईक, कमेंट और शेयर देखने को मिल रहा है। जिसमें मौजूदा सरकार के साथ उनके महिला होने की छवि को भी ग्लोरिफाई किया जा रहा है। विचारधाराओं में सहमति नहीं होने पर प्रतिनिधित्व में महिलाओं की सहभागिता पर इस तरह की बयानबाजी समाज के उसी मानसिकता की पर्तों को खोलता है जो महिलाओं के सहभागिता, प्रतिनिधित्व और किसी भी उपलब्धि को पचा नहीं पाता है। पुरुषों के वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में लंबे अरसे भारत में किसी महिला का रक्षा मंत्री बनाना परंपराओं को तोड़ने का सराहनीय प्रयास है। भारत के अतिरिक्त दुनिया के कई देशों में महिलाओं ने इस परंपरा को तोड़ा है, गौरतलब है कि शेख हसीना (बंगलादेश), एनएम नकुला(दक्षिण अफ्रिका), जेनी हेन्निस(नीदरलैंड), आर.ओमामो(केन्या), एनएमई सोर्रडिया(नार्वे), उर्सुला वांन डेर लेयेन (जर्मनी), मेरिस पेन (आस्ट्रेलिया), मारिया डोलोरेस डे कोस्पेडल (स्पेन),फ्लोरेंस पार्ली(फ्रांस) और रोवर्टा पिनोटी (इटली) में रक्षा मंत्री के पद पर महिलाएं ही काम कर रही है। इसके पहले हिना रब्बानी खार भी पाकितान में रक्षा मंत्री रह चुकी है और विश्व में सबसे पहले रक्षा मंत्रालय चिली देश ने महिला को सौंपा था जिनका नाम- विविआनी ब्लान्लो सोज़ा था।
विचारों में सहमति या असमति किसी भी महिला के संघर्ष चाहे वो किसी भी जाति, वर्ग या धर्म से आती हो कम नहीं कर सकता है क्योंकि लैंगिक असमानता का दोहरापन एक ही तरह से काम करता है। यह भी एक सच्चाई है कि जाति, वर्ग या धर्म के आधार पर लैंगिक असमानता के पैमाने अलग-अलग होते है जिसे चाय को खोलाने वाली आंच की तरह कम-ज्यादा किया जाता रहता है। इस तरह की बातों का में पूरा रस लेते हुए स्त्री-विरोधी उपर्युक्त तर्को को बिल्कुल सही नहीं माना जा सकता है जिस तरह की मानसिकता महिलाओं के उपलब्धियों को लेकर है उस स्थिति को स्पष्ट करने के लिए कुछ पंक्तियां नाकाफी ही है। इसी तरह के तर्क सानिया मिर्जा के टेनिस खेलने को लेकर मूल्लाओं के थे और इसी तरह के तर्क किसी भी आम महिलाओं के लिए बनाये जाते है। जब वो बनी बनाई परिपाटियों को तोड़ती है और सामाजिक सरंचना को चुनौति देती है।
भारतीय सामाजिक संरचना में जेंडर-भेदभाव समाजीकरण और भेदभाव का इतिहास काफी पुराना है, समय-समय पर इस तरह की घटनाएं सामने आती रहती है जो यह सिद्ध करती है कि सामाजिक सरंचना में या समाजीकरण की प्रक्रिया में जेंडर संवेदनशीलता का विकास नहीं के बराबर हुआ है। वास्तव में हमारे समाजीकरण ने हमारे दिमाग में यह क्रेमिकल लोचा ठूंस-ठूस कर भरा है कि राजनीति में ही नहीं किसी भी क्षेत्र के लिए महिलाएं बनी ही नहीं है, वो बस घर में हाथ बंटाने के लिए ही होती है। जबकि महिलाओं के आगे आने से राजनीति में ही नहीं कई क्षेत्रों में  ऐसे बदलाव हुए है जो मिसाल है। महिलाओं के आगे आने से परिवार और समाज के अनेक नियम कायदों में बदलाव भी हुए है, तीन तलाक और मेरेटल रेप इसका बेमिसाल उदाहरण है। इस तरह के बदलाव की गुंजाइश अभी कई मोर्चों पर है। तमाम लोकसभाओं और विधानसभाओं में महिलाओं के वोट प्रतिशत में इजाफा इस बात को सिद्ध करता है कि आधी आबादी अपनी स्थिति में बदलाव देखन चाहती है।
इस बात में कोई गुरेज नहीं है कि सत्ता-संघर्ष और पुरुषवादी वर्चस्व के खेल में महिलाओं की अपनी स्वयं की क्षमताओं का जाने-आनजाने में अनदेखा किया जाता रहेगा। धीरे-धीरे इसे अपने अंत के तरफ बढ़ने में अभी काफी वक्त लगना है। भले ही महिलाओं की उपलब्धियां बहुत छोटे स्तर पर ही सही पर भविष्य में कई महिलाओं के लिए रास्ता खोलने का काम जरूर करेगी, इसे कोई रोक नहीं सकता है। महिलाएं अभी जिस खेल का हिस्सा है, उस खेल में निर्णायक स्थिति में पहुंचने के लिए सामाजिक और सास्कृतिक स्तर पर महिलाओं को अपने दहलीज से बाहर आने के लिए लंबे संघर्ष की जरूरत है। यह रास्ता अभी इतना लंबा है कि इसपर छोटी मोटी उपलब्धियों से अपने अंदर ऊर्जा का संचार तो किया जा सकता है पर रूका नहीं जा सकता है। कई रिपोर्टो का भी दावा है कि औरतों को मर्दों के बराबरी के लिए अभी एक-दो नहीं कई सदियों का इंतजार करना होगा। महिलाओं को घर की राजनीति में परिपक्व होकर देश की राजनीति में सहभागिता और प्रतिनिधित्व के लिए सामने आना होगा। परंतु, इस सफर में हमें महिलाओं के साथ कंधा से कंधा मिलाकर खड़ा होने की जरूरत है, इनकी हौसला अफजाई की जरूरत है बजाय इसके आत्मविश्वास और साहस को रौंदने की।
देश की आधी आबादी और खासकर युवा पीढ़ी के लिए यह एक आदर्श उदाहरण हो सकता है कि जिस राजनीति में पैसा और परिवारवाद अपने चरम पर है। वहां निर्मला सीतारमण जैसी एक मध्यवर्गीय परिवार की महिला भी अपना अलहदा और नई पहचान बना सकती है।

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