जाति आधारित भेदभाव की सच्चाई है निर्मला यादव की कहानी - प्रत्युष प्रशांत
"हम 26 जनवरी 1950 को अंतर्विरोधों से भरे एक ऐसे जीवन में प्रवेश करेंगे, जहां हमारे पास राजनीतिक समानता तो होगी लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में असमानता होगी। राजनीति में हम ‘एक व्यक्ति एक वोट’ और ‘एक व्यक्ति एक मूल्य’ के सिद्धांत को स्वीकृति देंगे लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन की संरचना की वजह से हम एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत से लगातार इनकार करते रहेंगे।
सामाजिक
जीवन जीने के अपने तरीके में भारतीय समाज ने मौजूदा सामाज व्यवस्था में उन्हीं
पक्षों का अनुमोदन अधिक किया, जिसकी दुहाई या जिसके गलत होने का राग हम सार्वजनिक
रूप से मर्सिया के रूप में गाया करते है। समाज को जिन-जिन धार्मिक-सास्कृतिक और सामाजिक
व्यवहारों के साथ संघर्षशील होना था, उसको अपनाने में हमने कोई गुरेज नहीं है। जाहिर
है कि रोज़मर्रा के सामाजिक जीवन में जाति आज भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
इसलिए घरों में कभी चाय की प्यालियां बदली जाती है, तो कभी नाम जानने के बहाने उपनाम “टाइटिल”
जानने की कोशिश होती है। अगर नाम के साथ उपनाम “टाइटिल”
नहीं है तो पिता का नाम और फिर दादा का नाम पूछ लिया जाता है।
बाबा
साहब भीमराव अंबेडकर राजानीतिक समानता के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक जीवन में
असमानता को समाप्त करने की बात करते थे। निर्मला यादव का हलिया मामला राजनीतिक
समानता और सामाजिक जीवन में असमानता के बहसों को सतह पर लाने का काम किया है। जाहिर
है आधुनिक भारत में हमने उस तरह के समाज का निर्माण ही नहीं किया है जो पढ़ने-लिखने
के बावजूद दकियानूस स्वभावों और जातीय दम्भ से बाहर निकलने में सक्षम हो सका हो।
लोकतात्रिक
अधिकारों के संदर्भ में देश का कानून अस्पृश्यता को अपराध मानता है परंतु, निर्मला यादव के
मामले में अस्पृश्यता निवारण कानून प्रभावी नहीं हो सकता। क्योंकि निर्मला यादव
अस्पृश्य समुदाय से आती ही नहीं है। कानून के लिए यह पेशोपेश की स्थिति है क्योंकि
यादव समुदाय न शुद्र/अस्पृश्य है और न क्षत्रिय। पर गौरतलब बात यह भी है कि भारत
के किस कानून के तहत जातीय श्रेष्ठता के आधार पर मुकदमा दर्ज नहीं किया जा सकता
है। इस मामले में संवैधानिक रूप से निर्मला यादव जातीय उत्पीड़ और बदतमीजी के
शिकायत की हकदार है। कानून को निर्मला यादव की मदद में सामने आना चाहिए। इस बदलते
और आधुनिक भारत में डां मेघा विनायक ने निर्मला यादव पर विभिन्न धाराओं में मुकदमा
दर्ज कर एक नया विमर्श जरूर खोल दिया है। हालांकि निर्मला
मामले में मेधा खोले ने अपना मुकदमा वापस ले लिया है और इसका आधार यह है कि यह
उनका व्यक्तिगत मामला है और उनका इरादा कतई भी किसी की जाति भावना को ठेस पहुंचाना
नहीं है।
इस
मामले का एक पक्ष यह भी है कि आज भी समाज में आर्थिक और सामाजिक समानता पाने के
लिए लोगों को अपनी जाति छुपानी पड़ती है। अपनी जातिय अस्मिता या पहचान के साथ आप
सम्मान के अधिकारी नहीं हो सकते है क्योंकि समाज का सामाजिक व्यवहार वर्ण और धर्म
आधारित है। वर्ण और धर्म आधारित सामाजिक संरचना समाज में लोकतांत्रिक समानता का
विकास नहीं दे सकती है क्योंकि वर्ण और धर्म आधारित सामाज रोज़मर्रा के सामाजिक
जीवन में इससे बंधा हुआ है या नैतिक गुलाम है।
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